'दीवार वही रहती है, तस्वीर बदलती है' / जयप्रकाश चौकसे

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'दीवार वही रहती है, तस्वीर बदलती है'
प्रकाशन तिथि : 02 अप्रैल 2014


एक सीमेंट के ताजे विज्ञापन में शिक्षिका एक छात्र से दीवार पर निबंध लिखने के लिए कहती है। वह आठ दस वर्ष की आयु का बालक कहता है कि दीवारें दो तरह की होती है- अच्छी दीवार और बुरी दीवार। उससे इसका स्पष्टीकरण मांगा जाता है। मासूम बालक कहता है कि उसके मित्र इकबाल के साथ उसे क्रिकेट खेलना अच्छा लगता है परंतु ताऊजी ने कहा कि इकबाल के साथ मत खेलो- उसके और तुम्हारे बीच दीवार है। बालक कहता है कि उसको यह बुरी दीवार दिखाई नहीं देती। पूरी कक्षा में सन्नाटा है, शिक्षिका के चेहरे पर मानो रक्त ही नहीं रहा।

एक विज्ञापन फिल्म कितना बड़ा सबक सिखाती है। ज्ञातव्य है कि विज्ञापन फिल्म के लेखक के अवचेतन में सुभाष घई की निर्माण की गई 'इकबाल' नामक फिल्म थी और इसमें भी गरीब गूंगे-बहरे इकबाल को अपनी क्रिकेट योग्यता सिद्ध करने के लिए अनेक अदृश्य दीवारों से लडऩा पड़ता है। अभिषेक कपूर की 'काय पो छे' में भी एक हिन्दू कोच एक प्रतिभाशाली मुस्लिम बालक खिलाड़ी की जान बचाने के लिए जान पर खेल जाता है और फिल्म की पृष्ठभूमि भी गुजरात 2002 के दंगे थे और फिल्म में योजनाबद्ध हिंसा के स्रोत को बताने में भी फिल्मकार को कोई संकोच या भय नहीं हुआ। पृथ्वीराज कपूर के 'दीवार' नाटक में भी अदृश्य की भयावहता को प्रस्तुत किया गया था।

इसी सीमेंट कम्पनी की एक और विज्ञापन फिल्म में एक संयुक्त दीवार बनाई जाती है परंतु समझौते और शांति के बाद लाख कोशिश करने पर भी यह दीवार टूटती नहीं। अंग्रेज में एक कथा है 'डोर इन द वॉल' जिसमें सांसारिकता में आकंठ आलीन लोगों के घर में एक दीवार है जिसमें अध्यात्म में प्रवेश की एक अदृश्य खिड़की है जो उस सदस्य को दिखाई देती है जो मुक्ति की तलाश में है। सारे समाज में ही विभिन्न अदृश्य दीवारें मौजूद होती है। कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए इन दीवारों को मजबूत बना रहे हैं और कुछ ही वर्षों में ये अदृश्य दीवारें दिखने भी लगेंगी। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी को कमजोर बनाने के लिए बर्लिन के बीच दीवार बना दी गई थी और एक ही शहर दो हिस्सों में बंट गया था, कई घरों में मां दीवार के परे वाले हिस्से में रहती है और बेटा इस पार तड़पता है, मां उधर सिसकती है परंतु यह दीवार अंततोगत्वा तोड़ दी गई है। आज हमारे तमाम शहरों और कस्बों में अदृश्य दीवारें हैं।

अनेक स्थानों पर तथाकथित विकास का प्रतीक फ्लाय ओव्हर ही एक दीवार है जिसके पूर्व में गरीब और मध्यम वर्ग के वे वंशज रहते है जिनकी पीढिय़ां यहां रह चुकी हैं, पांच सितारा होटल हैं और वे सब उच्च वेतन प्राप्त बंधुआ तथा श्रेष्ठि वर्ग के लोग रहते हैं गोयाकि फ्लाय ओव्हर एक दीवार है जो आर्थिक आधार पर शहर को बांटता है। संगठित अपराध के परिवार में विभाजन होने पर वे प्लाय ओव्हर की एक ओर एक 'भाई' को दूसरी ओर दूसरे 'भाई' को 'इलाका' दे देते है। अब एक ओर का गुंडा अपने को दूध पिलाने वाली मां को रात में भेष बदलकर मिलने जाता है, पहचाने जाने पर गोली मार दी जाएगी। कितना विचित्र लगता अगर महाभारत के विराट पर्व में भेष बदलकर अज्ञात वर्ष काटने वाले पांडवों की खोज में कौरव भी भेष बदल कर आते और आसपास होते हुए भी एक दूसरे को पहचान नहीं पाते।

मध्यम वर्ग के घरों में भी यह अदृश्य दीवार है और वह इस तरह है कि ज्यादा धन कमाने वाला भाई चोरी छुपे पिज्जा और केक लाकर अपने बच्चों को खिलाता है और गरीब भाई के बच्चे अपनी भूख को ही बांटते हैं और सुबह कचरे के साझा डिब्बे में पिज्जा-केक के फेंके हुए खाली खोखों को देखकर उनके हृदय झुलस जाते हैं और भूख मर ही जाती है। अदृश्य दीवारें कहां नहीं है? एक बीमार समाज इन्हीं के साथ रहना सीख रहा है।

बाजार ने नई नौकरियां उपलब्ध कराई है और एफडीआई के आगमन से अगले महीनों में पच्चीस प्रतिशत इजाफा होगा जिसका राजनैतिक श्रेय जाने किसे मिलेगा और उस समय मनमोहन सिंह अपनी आत्म-कथा लिख रहे होंगे कि कैसे एफडीआई लाने में विरोध सहना पड़ा और दीवारें पार करना पड़ी। क्या ये सारी दीवारें सिर्फ नेताओं ने बनाई है? आम आदमी तगारी लेकर इसमें सीमेंट डालता रहा है। आम आदमी की व्यवस्था में भागीदारी के कारण सरकारें बदलने पर भी कुछ नहीं होता।

निदा फाजली की पंक्तियां हैं

'ये पत्थर कंकर की दुनिया जज्बात की कीमत क्या जाने, दिल मंदिर भी है, दिल मस्जिद भी है, ये बात सियासत क्या जाने। आजाद न तू, आजाद न मैं, जंजीर बदलती रहती है, दीवार वही रहती है, मगर उस पर गी तस्वीर बदलती रहती है दीवार इन्सां की मुसीबत क्या जाने....'