'दुल्हनिया' और 'कॉलम' के बीस वर्ष / जयप्रकाश चौकसे

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'दुल्हनिया' और 'कॉलम' के बीस वर्ष
प्रकाशन तिथि : 18 अक्टूबर 2014


सत्रह अक्टूबर 1995 काे मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा में युवा आदित्य चोपड़ा के पहले निर्देशकीय प्रयास की शाहरुख खान काजोल अभिनीत 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का प्रदर्शन हुआ। कुछ महीनों तक उसका तीन शो प्रतिदिन प्रदर्शन होता रहा आैर फिर केवल एक शो में वह फिल्म विगत 20 वर्षों से चल रही है आैर संभवत: इसी वर्ष दिसंबर में प्रदर्शन समाप्त होगा। ज्ञातव्य है कि यह फिल्म प्रदर्शन के बाद ही तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार द्वारा सदैव के लिए मनोरंजन कर मुक्त कर दी गई थी आैर इस तरह की कर मुक्ति का कोई उदाहरण नहीं है। उसकी समय सीमा तय होती है। बहरहाल बीस वर्ष पश्चात यह सोचने का कोई आैचित्य नहीं है कि इस फिल्म की राष्ट्रीय या सामाजिक सोद्देश्यता क्या थी जिस कारण इस तरह की अभूतपूर्व मुक्ति प्रदान की गई। सरकार के फैसलों पर प्रश्न करने का कोई अधिकार सामान्य जन को नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अनाज पैदा करने से ज्यादा सवाल पैदा करते है।

बॉम्बे टॉकीज की शशधर मुखर्जी की अशोक कुमार अभिनीत 'किस्मत' मुंबई आैर कलकत्ता में तीन वर्ष तक तीन शो प्रतिदिन चली है आैर रमेश सिप्पी की 'शोले' एक वर्ष पश्चात एक शो प्रतिदिन पांच वर्ष तक चली है। ज्ञातव्य है कि इन्हीं शशधर मुखर्जी की पड़पोती काजोल 'दुल्हनिया' बनी थी आैर दूसरी पड़पोती रानी आदित्य चोपड़ा की 'दुल्हनिया' विगत वर्ष बनी हैं। सफलतम प्रेम कहानी के लेखक आैर निर्देशक को बीस वर्ष लगे अपनी 'दुल्हनिया' पाने को। आदित्य चोपड़ा फिल्म परिवार में जन्मे आैर उन्होंने किशोर-वय से ही हर शुक्रवार आम दर्शक के साथ बैठकर फिल्म देखने की आदत ऐसी डाली है कि आज भी वे शुक्रवार को मुंबई के 'चंदन' सिनेमाघर में फिल्म देखते हैं जो एकल सिनेमाघर है। मल्टीप्लेक्स के दर्शक की प्रतिक्रिया किसी फिल्मकार के लिए उतनी शिक्षाप्रद नहीं होती जितनी एकल सिनेमाघर की। फिल्म आम आदमी के साथ देखना वह पाठ है जो किसी फिल्मी मदरसे में नहीं पढ़ाया जाता। आदित्य ने इस पाठ को पढ़कर ही 'दुल्हनिया' रची आैर आज भी वे सफलतम फिल्मकार है। ज्ञातव्य है कि पृथ्वी थियेटर में नाटक समाप्त होने के बाद सारे कलाकार साथ भोजन करते हुए उस दिन की दर्शक प्रतिक्रिया की बात करते थे आैर पृथ्वीराज कपूर तदनुसार अगले दिन के शो के लिए नाटक में कुछ परिवर्तन करते थे अर्थात शनिवार को 'दीवार' देखने वाला शनिवार को प्रस्तुत 'दीवार' में कुछ परिवर्तन देखता था। इन सृजन बहसों का मूक दर्शक युवा राज कपूर होता था आैर इसी वैचारिक तरलता की जमीन पर उसने भारत के सामूहिक अवचेतन को समझने के बीज डाले। दर्शक प्रतिक्रिया के ज्ञान की राज कपूर आैर आदित्य के बीच की यह समानता यहीं समाप्त हो जाती है क्योंकि पृथ्वीराज कपूर की संस्था का मंत्र था 'कला देश के लिए' आैर यहां से सीखी सामाजिक प्रतिबद्धता राज कपूर के सृजन में गहरी हुई ख्वाजा अहमद अब्बास की संगत में। आदित्य चोपड़ा के सिनेमा में सामाजिक प्रतिबद्धता का अभाव रहा है, 'चक दे इंडिया' जैसे प्रयास उन्होंने कम किए हैं। दरअसल असल अंतर कालखंड का है। राज कपूर का विकास नेहरु युग में हुआ जिसमें गांधीवाद की छाया मौजूद थी जबकि आदित्य चोपड़ा का विकास आर्थिक उदारवाद के सांस्कृतिक बीहड़ में हुआ है।

बहरहाल 'दुल्हनिया' एक परी कथा है आैर युवा वय का सपना है जो आगे के कालखंड में जाकर 'चौबीस में नौकरी, पच्चीस में छोकरी' पर जाकर टिका जो रणबीर कपूर का संवाद है 'ये जवानी है दीवानी' से आैर स्वयं चोपड़ा घराने की 'वीर-जारा' से बाहर आते युवा दर्शक का कहना था कि नायक को बाइस वर्ष की सजा क्यों दी- बुढ़ापे में नायक-नायिका के मिलने का क्या अर्थ है? गोयाकि प्रेम का अर्थ शारीरिकता में सिमट चुका था। मनुष्य का कमाल है कि वह अनेक विराट विचारों को लघु कर लेता है। यहां तक कि अपनी चेतना के बौनेपन से अपने ईस्ट को भी लघु कर देता है। सारी वैचारिक संकीर्णताएं इसी तरह जन्म लेती हैं। अधिकतम की पसंद का मनोरंजन जगत आैर राजनीति में महत्व है परंतु अधिकतम के बहक जाने को भी हम देख रहे हैं। बहरहाल 'दुल्हनिया' का घूंघट उसके सौंदर्य का हिस्सा है परंतु आज कल दुल्हनिया घूंघट पलटने को बेकरार रहती है। यह महज इत्तेफाक है कि 'दुल्हनिया' की तरह यह कॉलम भी बी पार कर चुका है।