'पशुधन' नहीं, 'धनपशु' हैं आवारा / अर्पण जैन 'अविचल'
शहर में ट्रेफिक सिग्नल के सामने, अस्पताल में लगे नीम के पेड़ के नीचे, रास्ते के किनारे, कचहरी के खुले बरामदे में, चौराहों के बीचों-बीच, हाँफती रेलवे लाइन पर नेरोगेज रेल के सहारे खड़ा, कभी पोलिथीन तो कभी कूड़ा करकट ख़ाता, कभी शहरी सभ्यता के बीच आ जाता, कभी कुछ ज़हरीला खा लेने से परमेंश्वर शरण में चला जाता और आदम की तरक्की की इबारते गुथता शहर और उन बेजुबान पशुधन को शहरी तरक्की में बाधक समझता प्रशासनिक अमला और आम जनमानस...
यही व्यवस्था का ताना-बाना बुनता बुनकर तमस के तज में वैश्विक प्रगति के सपने बुनने को ही शहर की प्रगति मानता हैं। चाक-चौबंध व्यवस्थाओं के तंज़ के सहारे जीने की नाकाम कोशिश की उड़ेड़बुन में लगा शहरी मानव धरती के प्राण को आवारा मानने को आतुर हो चला हैं। इसे शहर की प्रगति मानना समय की भूल के ख़ाके के सिवा कुछ नहीं हैं।
राजनीति के चरगाह से लेकर अफ़सरशाही के बीच झूलती आस्था के बिंब में पशु को आवारा सिद्ध करने हेतु पूरी सियासत बिछ-सी गई हैं। वर्तमान में मानसून के मौसम में चारे की कमी और पशुपालकों की अदद लापरवाही सहित संकट की घटा ने राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के आधार पशुओं को बर्बरता के हल में जोत दिया हैं। शहरी व्यवस्था की मुख्य धारा में जब संकट के लिहाज से पशुओं को माना जाने लगा तो निश्चित तौर पर सांस्कृतिक विरासत के अंधे कुएँ में भी उबाल-सा आ गया, जलविहीन धरती की कल्पना मात्र से सिहर जाने वाली आबादी एक बार पशु विहीन समाज की कल्पना कर के भी देखे, शायद अस्तित्व पर उठता प्रश्नचिन्ह भी नज़रबद्ध हो जाएगा।
आम पशुपालक भी संकट में हो सकता हैं, पर उन्होने अपने पशुओं को समाज में स्वच्छंद छोड़ तो दिया हैं, किंतु इसका सर्वाधिक असर गाय और बछड़ों पर पड़ा है। क्षेत्र में बेसहारा घूमने वाले पशुओं में सबसे अधिक संख्या इन्ही पशुओं की है। शहर में भी संकट है, पशुओं को खाने के लिए खेत खलिहानों में भी कुछ नहीं मिल रहा, खेत भी तो खाली हैं। जहां थोड़ी बहुत खेती है वहाँ वे पहुंच नहीं सकते।
इन्ही सब शहरी पशुपालकों के सभ्यतागत लिबासों और परंपराओं ने उन बेजुबान और बेसहारा पशुओं को 'आवारा' घोषित कर दिया हैं। बीते मार्च माह में हिमाचल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष पशुधन को बेसहारा सड़कों पर छोड़ देने से उपजी स्थितियों पर चिंतित दिखा था, प्रश्नकाल के दौरान एक सवाल पर समूचे सदन ने पशुओं को बेसहारा छोड़ने की प्रवृत्ति को ग़लत ठहराया। सदन के एक सदस्य ने जब आवारा पशुओं की समस्या पर कुछ कहा तो मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह तुरंत अपनी सीट से उठे और कहा कि पशु आवारा नहीं होते। पशुओं को आवारा कहने की बजाय उन लोगों को आवारा पुरुष कहो जो पशुओं को बेसहारा छोड़ देते हैं। उसके बाद सदन में सड़कों पर छोड़े गए पशुओं के लिए बेसहारा शब्द का प्रयोग किया गया।
आख़िर संवेदनाओं का दृष्टिकोण की अधर में लटक चुका हैं जहाँ जीवन की विराटता का दृष्टांत भी आज आवारा सिद्ध हो रहा हैं? सनातन धर्म में गौवन्श सभी देवी-देवताओं का एक स्थान हैं, इसके बारे में शास्त्रो में लिखा भी है-
"कहु बिधि हमहिं एक अस्थानू, जहाँ मिलि रहहिं होइ सममानू।
सुनहुँ देव तब कहेउँ बिधाता, सकल निवास एक गौमाता।।"
अर्थात: देवताओं ने विधाता से पूछा की प्रभु हमें कोई एक ऐसा स्थान बताइए जहाँ हम सब एक साथ रह सके, हम सब की एक साथ पूजा हो सके, तब ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा क़ि "है देवगण, आप सबको गौमाता के शरीर में निवास करना होगा, उसी की पूजा मात्र से आप सब की पूजा हो जाएगी"
धर्मपरायण जनमानस की भावनाओं को पशुपालकों द्वारा बड़ी चतुराई के साथ जिस तरह से खेला जा रहा हैं यह संस्कृति पर न केवल हमला हैं बल्कि सार्वभोमिक सनातनी विरासत पर कुठाराघात भी हैं।
पूजनीय और आस्था के धरातल की अलौकिक रश्मीयों को जब सड़कों पर पशुपालक केवल अपनी सुविधा और बचत के चलते छोड़ देते हैं तो उन धन पशुओं पर कार्यवाही क्यू कर नहीं होती?
सड़कों पर बेसहारा घूमते पशुओं से सारा प्रशासनिक अमला चिंतित हैं, पशु पालकों द्वारा स्वयं के पालित पशु, जिनमें अधिकांश गौवंश है, अनुत्पादक हो जाने पर पशुओं को घर पर बांधा नहीं जाता है, बल्कि घर से छोड़ दिया जाता है और यही गौवंश बेसहारा रूप में शहर भर में विचरण करते हैं। आख़िर पशुपालकों को इनकी चिंता क्यूँ नहीं होती?
शासन ने जिस तरह से गौ संवर्धन बोर्ड बनाया, यहाँ तक की गौशाला निर्माण हेतु निजी संस्थाओं को भी अनुदान दिया जा रहा हैं फिर सड़कों पर घूमते बेजुबान उपेक्षित क्यूँ? यह इस बात का प्रमाण है कि शासन द्वारा पशु संरक्षण की दिशा में किया जा रहा प्रयास या तो सही लोगो द्वारा संचालित नहीं किया जा रहा हैं या फिर उस पर भी भ्रष्टाचार की दीमक लगने से सड़ान्ध आना शुरू हो गई हैं।
पशुधन को बेमतलब ही दोषी माना जा रहा हैं, पशु में विवेक और बुद्धि की चालाकता की कमी ही उसे अपराधी सिद्ध करने पर तुली हुई हैं। आख़िर किस माटी से जन्मा हुआ मानस हैं या जो उस देवतुल्य वंश को दुतकार कर शहरी विलासिता के वैभव में खोया हुआ हैं।
गाँव-शहर में मनुष्य की तरह चौपाया जीव भी रहने का अधिकारी हैं, यह शहर केवल दौपाया मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि चौपाया जानवर के रहने का भी स्थान हैं। शहर के आस्ताने में बँध धनपशु मानुस खुले घूमते पशुओं का ना जाने कितने नामकरण कर देते हैं, सब्जी मंडी, किराना व गल्ला मंडी, दुकानों, गली सड़क में मुंह मारते दिखा देते, सड़क, गली, मुहल्ले में घूमते पशुओं देख उन्हे ऐसा लगता हैं जैसे नारा लगाते आन्दोलनकारी, नेता की तरह हड़ताल पर बैठ जाते हैं। आप लाठीचार्ज करों या बल बुलाइए, वे खुद में मस्त रहते हैं। पशु मालिक खुश होते हैं अपने पशुधन को आवारगी का तमगा दिलवाकर, बेचारे जानवर यहाँ-वहां मुंह मारकर पेट भर लेते हैं। फिर भी सुबह–शाम दूध देते हैं।
शहर धर्म और धार्मिकता से भी भरपूर है, रोज पुण्य कमाने के लिए इन्हे वे चारा भी खिलाते रहते हैं, कहते हैं इन पशुओं को चारा-पानी देने से धन-धान्य की वृद्धि होती हैं ग्रह दोष शांत रहते हैं परंतु गौवन्श को प्रताड़ित करने और उनकी चिंता ना करने वाले इन पशुमालिकों पर कभी ग्रहदोष नहीं मंडराते। जो इन्हें मुफ्त के माल पर मुंह मारने हेतु आवारा बना देते हैं।
शास्त्र यह भी कहते है क़ि
"धेनु सहहि दुख कोटि अपारा, ताको कोउ नहिं देखनहारा।
जगत मात दुख होउँ बेहाला, कस कठिन देख कलिकाला।।"
यानी की-गौमाता निरंतर करोंड़ो दुख सहन कर रही, किंतु इस कलियुग में उसे देखने वाला कोई नहीं है, संसार की माता दुखी हैं, तकलीफ़ में है, उसकी देखभाल करना हर मानव का धर्म हैं।
मानव ने विकास की गगनचुंभी इमारतों के सादृश्य अवस्था की गहन समझ ज़रूर विकसित कर ली हैं किंतु यही सब यदि समाज का हिस्सा है तो जीव जंतुओं के लिए किसी नये ब्रह्माण्ड की रचना कर दीजिए, शायद उसी से ही शालीनता का सम्मान हो जाए या धनपशुओं का कोई संभ्रांत शहर बस जाए.
जब-जब भी शहर की जनता ने मवेशियों के आवारा विचरण पर हाहाकार मचाया हैं, तब मीडिया के स्वर भी उन्ही मवेशियों के विरोध में उठे हैं, अख़बारों की हेडिंग भी यही बनीं है क़ि "शहर को आवारा पशुओं ने बनाया बंधक", "आवारा पशुओं ने किया नाक में दम", "यातायात व्यवस्था में बाधक आवारा जानवर", "शहरी सौंदर्य को पलिता लगाते आवारा मवेशी", "स्मार्टसिटी का सौंदर्य मवेशियों के कारण ख़तरे में..."
आख़िर किस दुनिया में जीने लगा है मीडिया भी, जिसमें बेजुबान को अपराधी मानकर शहरी खाँको को लिखने वाले लोग उन धन कुबेर पशुपालकों को पाक-सॉफ मानने लग गये? आख़िर इन मवेशियों से ज़्यादा तकलीफ़देह तो वे स्वार्थी और लालची पशुपालक हैं जो पशुओं के ख़ानपान पर लगने वाले अपने खर्च को बचाने की लालच में उन्हे शहर में खुला छोड़ देते हैं, फिर वही पशु न चाहते हुए सभ्यता का बाधक बन जाता हैं। आख़िर वह खुले में घूमने का आदि हैं, उसे आकाश का खुलापन और रसातल का प्रेम खींच लाता हैं अपने रंग में मस्ती करने के लिए. यदि पशुओं के दूध से व्यापार करना जानते हो तो उनका पालन पोषण करना भी तुम्हारी ज़िम्मेदारी हैं और वृद्धावस्था में उसे संभालना भी। जिस तरह बुजुर्ग माँ-बाप भी बुढ़ापे में व्यक्ति की ज़िम्मेदारी का हिस्सा होते है उसी तरह पशु भी हैं। तब इनका जमीर कहाँ चला जाता हैं।
ज़िम्मेदार केवल कन्नी काटने में ही अपनी भलाई समझते हैं, जबकि यथार्थ के धरातल पर स्वामित्व का स्वांग रचना महज कूटनीतिक षड्यंत्र ही माना जाएगा।
इसी सन्दर्भ में मध्यप्रदेश के इंदौर नगर निगम ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला लिया हैं जिसमें स्पष्ट किया है कि यदि शहर में कोई पशुधन घूमता पाया जाता हैं तो उसे पकड़ कर, उसके मालिक का पता-ठिकाना खोज कर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी, दुबारा उसी मालिक का मवेशी पकड़ा जाता है तो मालिक को जिलाबदर किया जाएगा। होना भी यही चाहिए, क्युंकि मवेशियों को शहर में खुला छोड़ कर ये धन पशु यानी मवेशियों के मालिक केवल अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पाते हैं और शहरभर परेशान होता रहता हैं। उन बेचारे जानवरों को लोग आवारगी से नवाज देते हैं जबकि आवारा वे 'पशु' नहीं हैं, बल्कि आवारा पशुपालक 'धनपशु' हैं।
गौशालाएँ बनीं हैं व्यवस्थाए बनीं हैं, सरकारी योजनाओं का भी रेखांकन उभरा हुआ हैं, उसके बाद भी शहर में मवेशियों के लिए कोई जगह नहीं होती जहाँ वे चेन की सांस ले सके? आख़िर किस दिशा में सांस्कृतिक विरासत का गला घोटा जा रहा हैं।
मानव ने शहर, नगर, ग्राम को केवल अपने रहने के लिए ही मान लिया हैं, इन जानवरों के संसार के लिए कुछ छोड़ा भी नहीं... स्वयंभू इस धनसंपदा का मालिक बना बैठा हैं, किंतु इस बात से बेख़बर भी है क़ि प्रकृति की हर संपदा पर जितना अधिकार आदमी का है उतना ही पशु-पक्षियों का भी हैं।
उसी आदम रूपी संभ्रांत चित्रकारों ने अपने अधिकारों की बजाय मूक जीवजंतुओं के हक को मार दिया हैं इसी कारण पशुओं को शहर में आवारा करार दिया जा रहा हैं। शायद ये पशु नहीं बल्कि शहर "आवारा" हो चुका हैं, जिसे यह भी ध्यान नहीं क़ि जिसके कारण यह संपदा है, खेत है खलिहान हैं, अनाज है, भोजन है, सब कुछ हैं इस शहर पर उसका भी पूर्ण अधिकार हैं। और यदि कही व्यवस्था संचालन में कोई बाधा उत्पन्न हो रही हैं तो उन बेसहारा जानवरों पर आरोप-प्रत्यारोप की बजाए उन धन कुबेरों को बंधक बनाइए जिनके कारण चौपाया जानवर अपनी आज़ादी के हक़ से वंचित हैं... शायद संविधान की किताब ने प्राकृतिक न्याय दृष्टांत का उल्लेख उन बेजुबानो के लिए नहीं किया हैं या कहे वह अपना अधिकार माँगने में असक्षम है, जिसका फायदा ज़ुबान वाले बड़ी खूबसूरती से उठा रहे हैं।
शहर की खूबसुरती उसके बाहरी अंगवस्त्रों से नहीं बल्कि उसमें रहने वाले लोगों की मानसिक ताज़गी और सभ्यता के सम्मान से होती हैं। शहर में उठते-बैठते, घूमते-ठहरते पशुधन को आवारा कहना न्यायोचित नहीं बल्कि शहरी विकास के मुँह पर अर्पण की गई गाली है, भौतिकतावादी समाज जिस भी नज़रिए से शहर का नाप-तौल कर रहा हैं उस नज़रिए में भी जीव-जानवरों का अहम किरदार हैं। और यह भी सार्वभोमिक सत्य हैं क़ि आदमी से ज़्यादा वफ़ादार, ईमानदार, और कृतघ्न जानवर ही होता हैं। आदमी स्वार्थवश भूल जाता है एहसान, किंतु जानवर ताउम्र एहसानमंद रहता हैं।
पशुता की और अग्रसर मानव, स्वभाववश एवम् धन लोभ में इतना व्यस्त हो जाता और यह भूल जाता हैं क़ि उसकी ग़लतियों की सज़ा किसी और को मिलने वाली होती है वह भी बेजुबान जानवर 'आवारा' हो जाता हैं इसीलिए 'पशुधन' आवारा नहीं होता 'धनपशु' आवारा होता हैं।