'पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफून' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :25 फरवरी 2017
गुलज़ार पर प्राय: आरोप लगते रहे हैं कि वे कथानक किसी अन्य भाषा में बनी फिल्म से उठा लेते हैं। खबर इस तरह भी आई थी कि ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित गुलज़ार की लिखी 'गुड्डी' की सफलता पर गुलज़ार श्रीमती अंजना रवैल के घर मिठाई लेकर गए तो अंजनाजी ने आरोप लगाया कि 'गुड्डी' की कहानी उन्होंने सुनाई थी और उनकी इजाजत के बगैर गुलज़ार ने फिल्म लिख दी। 'गुड्डी' की तरह एक लड़की को अंजानाजी जानती थीं और उन्होंने ही उस अबोध बालिका को समझाया कि फिल्म के खतरनाक एक्शन दृश्य डुप्लीकेट करता है और नायक को श्रेय जाता है। गुलज़ार की संजीव कुमार व जया बच्चन अभिनीत 'कोशिश' पर आरोप था कि यह जापानी फिल्म 'हैप्पीनेस फॉर अस अलोन' से प्रेरित है और 'मेरे अपने' बंगाली 'अपन जन' से। इसी तरह 'साउंड ऑफ म्यूज़िक' की प्रेरणा से उन्होंने 'परिचय' बनाई। यहां तक कि उनके लिखे कुछ गीतों पर भी आरोप था जैसे 'तेरा जूता मेरा जूता' भी उत्तर प्रदेश के एक कवि का गीत था। इसी तरह 'चल छैय्या छैय्या' गीत भी पाकिस्तान के किसी लोकगीत की प्रेरणा से बना।
बहरहाल इन तमाम आरोपों के बावजूद उनका अपना भी बहुत कुछ है। दूसरी बात यह कि मौलकता का सवाल उलझा हुआ है। सारी बात 'अंदाजे बयां' पर आकर थमती है। गुलज़ार के पास अपना अंदाजे बयां तो है। मसलन 'आनंद' के क्लाईमैक्स में 'मौत एक कविता है, मिलने का वादा है' मौलिक है। मृत्यु के बारे में बंगाली उपन्यास 'आरोग्य निकेतन' एक नाड़ी वैद्य की कथा प्रस्तुत करता है। उसका नायक नाड़ी वैद्य अपनी मृत्यु का विवरण कुछ इस ढ़ंग से करता है, 'मौत के पैरों में बंधी पायल की छन छन मैं साफ सन सकता हूं… अब वह खेत से लगी पगडंडी पर चली आ रही है… अब पायल की आवाज तेज हो गई है गोयाकि वह मेरे करीब आ गई है…'। एक लेखक का वर्णन इस तरह है कि वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा है और रिश्तेदार तथा मित्र शैय्या के गिर्द खड़े हैं… अब धीरे-धीरे उनके चेहरे मुझे धुंधले से होते दिख रहे हैं। अंजना रवैल के पति एच.एस. रवैल ने महाश्वेता देवी की कथा से प्रेरित बहुसितारा फिल्म 'संघर्ष' बनाई थी, जिसमें परिवार के मुखिया मृत्यु शैय्या पर पड़े हैं और बड़ा कष्ट उठा रहे हैं। उनकी बहु कहती है, 'क्यों ससुरजी प्राण नहीं निकल रहे हैं, बड़ा कष्ट हो रहा है… याद कीजिए कैसे आपने अपने स्वार्थ के लिए स्वयं अपने पुत्र और मेरे पति को मरवा दिया था'। मृत्यु शैय्या के सारे वर्णन अधूरे हैं, अगर हम वेदव्यास की महाभारत में भीष्म पितामह का तीरों की शैय्या पर सूर्य के उत्तरायण होने तक के इंतजार का वर्णन न करें तो। युधिष्ठिर युद्ध के पश्चात संध्या को पितामह से अनोखा ज्ञान अर्जित करते हैं। उनके बीच का वार्तालाप गीता के ज्ञान से कम नहीं है। मनुष्य जानता है कि मृत्यु अवश्यमभावी है, परन्तु उससे जानकर अनजान बना रहता है। दरअसल मृत्यु जीवन का पूर्ण विराम नहीं है वरन् उसे अर्धविराम मानना चाहिए या बकौल 'मेरा नाम जोकर' के कहें कि यह तो इंटरवल है याने मध्यांतर…'। नीरद चौधरी अपनी पुस्तक 'हिन्दुइज़्म' में लिखते हैं कि हमने पुनर्जन्म का आकल्पन इसलिए किया है कि हमें धरती से प्रेम है, भोजन से प्रेम है और उसे भरपूर भोगना चाहते हैं गोयाकि शारीरिकता एवं भोग विलास की तीव्र आकांक्षा से पुनर्जन्म का आकल्पन हुआ है। शताब्दियों से हम स्वयं को आध्यात्मिक कहने से थकते नहीं हैं जबकि हम परम भोगवादी हैं और हमारा सबसे बड़ा उत्सव भी लक्ष्मी-पूजन का है। हम पूंजीवादी और भोगवादी तथा इसे स्वीकार करते ही हमारी अनेक उलझनें सुलझ जाएंगी। शरीर स्वयं ही धर्म है। इस संदर्भ में राजकपूर का कथन था 'हिन्दु वह है जो जीवन से भरपूर आनंद ग्रहण करे तथा दूसरों को भी जितना मिला है उससे अधिक आनंद दे सके'। यह अतिरिक्त आनंद राशि आकल्पन ही कमाल का है। हमारे भीतर ही आनंद की गंगोत्री है और उसी धारा से सबको लाभ पहुंचाना है।
क्रिश्चिएनिटी की आधारभूत भावना कष्ट है, दुख है, हम सारा जीवन ही एक अदृश्य क्रॉस पर लटके हुए रहते हैं। तमाशा भी हम ही हैं और तमाशबन भी हम ही हैं। हिन्दु धर्म की आधारभूत भावना आनंद है। हमारे शिव भगवान नष्ट करने के ताण्डव के साथ ी आनंद ताण्डव भी करते हैं। राजकपूर की 'जिस देश में गंगा बहती है' में नायिका नायक को जाता देख 'ताण्डव' करती है परन्तु उसे लौटता देखती है तो आनंद ताण्डव करते हुए प्रेमी के लौटने पर ईश्वर को नृत्य द्वारा धन्यवाद ज्ञापन करती है। उसका सोच-विचार जिसे परम्परानुरूप हम आत्मा भी कह सकते हैं, उसके पैरों में बंधे घुंघरू हैं। इस बात से स्मरण आता है कि विजय आनंद की 'गाइड' की रोजी के लिए भी नृत्य ही जीवन राग है। शैलेन्द्र ने रोजी का चरित्र इन पंक्तियों द्वारा अभिव्यक्त किया है 'तोड़ के बंधन बांधी पायल, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है'। क्या महान संकेत शैलेन्द्र देते हैं कि मृत्यु जीवन का आविभाज्य अंग है। गुलज़ार के मानस-पुत्र विशाल भारद्वाज पर भी आरोप हैं कि एक लेखक उन्हें 'रंगून' की पटकथा दे गया था, जिसे बारह माह बाद उन्होंने यह कहकर लौटाया कि वे इस पर फिल्म नहीं बनाना चाहते हैं, परन्तु कुछ अंतराल से उन्होंने उसी कथा को 'रंगून' के नाम से बनाया है। इस प्रकरण का सच तो समय ही बताएगा। क्या अन्य लोगों का विचार उठाना या उससे 'प्रेरणा' लेना भी आनुवांशिक है और यह बायोलॉजिकल वंशजों के साथ ही मानस पुत्रों में भी आ जाता है। बहरहाल आम दर्शक के लिए मौलिकता या 'छद्म प्रेरणा' से महत्वपूर्ण यह है कि यह मनोरंजक है या उबाउ है।