'पीके' में भैरों का जूता और धूमिल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 जुलाई 2015
विगत आठ दिनों में दो बार राजकुमार हीरानी की 'पीके' टेलीविजन पर दिखाई गई और प्रदर्शन के समय सिनेमाघर में देखने के बाद भी टेलीविजन पर फिल्म दोबारा देखने में भरपूर आनंद आया। राजकुमार हीरानी गंभीरतम बातों को सहज हास्य के साथ प्रस्तुत करते हैं और यही हिंदुस्तानी सिनेमा का 'स्थायी भाव' रहा है।
फिल्म के आखिरी भाग में मित्र भैरों 'संजय दत्त' उस चोर को लेकर आ रहा है, जो टेलीविजन पर आयोजित स्वामी और पीके के बीच संवाद में महत्वपूर्ण गवाही देगा कि उसने ही चालीस हजार में यह 'विचित्र वस्तु' स्वामी जी को बेची थी; जो इस अवाम को शंकर जी के डमरू का टूटा हुआ मनका बताकर उसके लिए विराट मंदिर बनाना चाहते हैं। रेलवे स्टेशन पर डिब्बे में आतंकवादियों द्वारा रखा बम फटता है और भैरों तथा गवाह मारे जाते है। उसी दु:ख की घड़ी में पीके के ट्राजिस्टर कम टेप को किसी का धक्का लगता हैं और 'फिर सुबह होगी' के साहिर का गीत बजता है 'आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम, आजकल वह इस तरफ देखता है कम' खय्याम साहब को संगीत देने के सीमित अवसर ही मिले जबकि हर बार उन्होंने माधुर्य रचा। बहरहाल, दुर्घटना से सन्न पड़ा पीके अपने मित्र भैरों का जूता उठाकर चल देता है।
टेलीविजन विवाद में "पीके' स्वीकार करता है कि ईश्वर है, जिसने न केवल पृथ्वी नामक गोला रचा है वरन् ऐसे अनगितन गोले संसार में हैं। इतनी महान शक्ति की सुरक्षा का दायित्व यह 'स्वामी' ले रहे हैं, ईश्वर को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं, अपनी सुरक्षा के लिए उसकी आवश्यकता है। उस ईश्वर को सब मानते हैं परंतु व्यापार के लिए गढ़ी ईश्वर की छवि को बेचने वालों को ही वह 'रॉन्ग नंबर' करता रहा है और धर्म के नाम पर दुनिया को मत बांटो, हर व्यक्ति को अपना व्यक्तिगत धर्म और कर्म निभाने दो वरना बम फूटेंगे, लोग मरेंगे। इतना कहकर वह अपने मित्र भैरों का जूता दिखाता है और चेतावनी देता है कि धर्म के नाम पर मनुष्यों को बांटने का यह अंजाम होगा कि एक दिन सिर्फ जूते ही रह जाएंगे जैसे आज उसके पास मित्र भैरों का जूता मात्र रह गया।
टेलीविजन पर फिल्म दिखाने के बाद मैंने 'पुस्तक वार्ता' के ताजे अंक में धूमिल की एक लंबी कविता दोबारा पढ़ी, धूमिल को दोहराते रहने में ही जीवन की सार्थकता है। उस कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह है, 'वैसे ये सच है, जब सड़कों पर होता हूं, बहसों में बहता हूं, रह रह कर चहकता हूं, लेकिन हर बार वापस घर लौटकर, कमरे के अपने एकांत में, जूते से निकाले गए पांव-सा महकता हूं।' यह धूमिल नामक धूमकेतु अब हमारे बीच नहीं है परंतु उसकी रचनाओं के आईने में भूत, वर्तमान, भविष्य सब दिखता है।
एक मार्केटिंग संसार का प्रचलित किस्सा यूं है कि जूता बनाने वाली एक कंपनी ने मार्केट के शोध के लिए अपने लोग भेजे। इस रिपोर्ट के आधार पर जूतों के बाजार का अनुमान लगाया गया। एक ऐसे ही विशेषज्ञ ने कहा कि उसने अफ्रीका के एक क्षेत्र का दौरा किया, जहां नंगे पांव जनजाति के लोग प्रतिदिन अनेक किलोमीटर चलते हैं और उन्हें जूतों की आवश्यकता ही नहीं। वे पहाड़ों पर जंगलों में नंगे पैर सदियों से घूम रहे हैं। मालिक ने कहा 'बस वही सबसे बड़ा बाजार है' पहले वहां कुछ लोगों को मुफ्त जूते बाटेंगे, उन्हें आदत पड़ते ही असीमित मार्केट खुल जाएंगा। बाजार ही आवश्यकता रचता है, बेचता है। बाजार ने अनचाहे ही रच दिया है बाजारूपन जो सर्वत्र गंधाता है, ठीक वैसे ही जैसे धूमिल के जूते से निकला पैर। आज हम सब इस सर्वे शक्तिमान बाजार के मोहरे मात्र हैं। वह विचार और कविता ही मर गई जो कहती थी 'बाजार से गुजरा हूं परंतु खरीददार नहीं'।