'पेशेन्स स्टोन' और स्त्री विमर्श / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 30 नवम्बर 2013
इक्यावन वर्षीय अफगानिस्तान में जन्मे अतिक राहिमी की फिल्म 'द पेशेन्स स्टोन' संभवत: गोवा में चल रहे महोत्सव की श्रेष्ठ फिल्म है जो उनके स्वयं के ही लिखे फ्रेंच उपन्यास पर आधारित है और शायद विश्व में पहली बार एक फिल्मकार ने अपने ही उपन्यास पर फिल्म बनाई है। रूसी आक्रमण के समय सन् 1984 में अतिक राहिमी फ्रांस चले गए थे और सोरबार्न विश्वविद्यालय में उन्होंने पढ़ाई की। इसके पहले उन्होंने अपने ही उपन्यास 'अर्थ एंड एशेज' पर बनी फिल्म के लिए 25 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं।
पर्सियन मायथोलॉजी में द पेशेन्स स्टोन का जिक्र है जिसके सामने मनुष्य अपनी आशा, निराशा, बीमारियां, नैराश्य, दु:ख-दर्द का बखान करता है और वह स्टोन सब कुछ अपने में समाहित करके फट जाता है तो आपके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। अतिक राहिमी का कहना है कि उपन्यास लिखने के बाद उन्होंने यह कथा सुनी। उनकी कथा में एक पत्नी अपने कोमा में गुम पति को कह रही है जो न सुन सकता और ना ही बोल सकता है। पत्नी ये सब बातें पति के होशोहवास में सामान्य परिस्थितियों में कभी नहीं कर पाती। संकेत स्पष्ट है कि औरतों को किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं है। अतिक राहिमी मानते है कि औरतों को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। हमने अपनी आधी आबादी को गुलाम बनाए रखा है और गुलामी को भांति-भांति के नाम दे रखे हैं। कई बार उसे संस्कार और मर्यादा भी कहा जाता है।
बहरहाल गोवा फिल्म महोत्सव में जूरी के काम के लिए अतिक आए हुए हैं और उन्होंने यकीनन सुना होगा कि एक संपादक ने अपनी सहयोगी महिला के साथ अभद्र व्यवहार किया है और इसे लिखे जाने तक उस शक्तिशाली व्यक्ति का बाल भी बांका नहीं हुआ है। इससे जुड़े एक संदर्भ में 'मिरर' की संपादक मीनल बघेल ने अपने विरल संपादकीय में लिखा है कि पारम्परिक तौर पर बलात्कार शब्द सुनते ही बलात्कारी की यह छवि उभरती है कि वह अशिक्षित, उज्जड, बेहूदा किस्म का इंसान होगा परन्तु अभी जो तीन घटनाएं प्रकाश में आई हैं, उनमें तथाकथित सेवानिवृत्त जज है, आरोपी में से एक प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और एक लोकप्रिय पत्रिका के संपादक हैं। गोयाकि सुसंस्कृत, सुशिक्षित धनाढ्य लोग भी इस आदिम भूख और वहशियत के शिकार हैं। महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में गुजस्ता कुछ सदियों में कुछ परिवर्तन आए हैं परन्तु सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि अब कुछ महिलाएं इसका विरोध करने लगी हैं और उन्हें लोकलाज के तथाकथित हव्वे का कोई भय नहीं है। इसका यह भी अर्थ है किसी पेशेन्स स्टोन या कोमोटोज पति के सामने अपनी व्यथा-कथा कहने की आवश्यकता नहीं है परन्तु यह भी आशंका है कि किवदंती के स्टोन की तरह उसकी यातना को अपने में समाहित करके वह फटकर उसे यातना मुक्त नहीं करेगा। यह पर्सियन मायथोलॉजी में पेशेन्स स्टोन का हवाला स्मरण कराता है कि अहिल्या को भी उसके पति ऋषि गौतम ने चट्टान बन जाने का शाप दिया जबकि उसका कोई अपराध ही नहीं था।
इन्द्र ने उसके पति का रूप ग्रहण कर उसे छला था। राम के चरण पडऩे पर अहिल्या का उद्धार हुआ गोयाकि उसे शताब्दियों बाद विलंबित न्याय मिला। न्याय मिलने में देर होने का अर्थ अन्याय ही है। दुनिया के सभी देशों की मायथोलॉजी और आख्यानों में शोषित महिला के साथ पत्थर का जिक्र है जिसका यह अर्थ भी हम मान लें कि पत्थर और चट्टानें नारी दु:ख को सुनती हैं परन्तु पुरुष से संवेदना की आशा न करें। दुष्यंत कुमार की पंक्तियां कुछ ऐसी हंै कि 'वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए'। दुष्यंत को जन्नत में सुकून मिलेगा कि आवाज उठने लगी है, असर होगा। अतिक रहिमी ने इस आशय की बात भी की है कि पर्सियन साहित्य में ईश्वर को महिला माना गया है। सूफी साहित्य में भी ऐसी अवधारणा है परन्तु अधिकांश धार्मिक मान्यताएं उस परम को पुरुष ही मानती हैं और मैं इस अवधारणा से सहमत हूं क्योंकि संसार में जितना अन्याय, असमानता और बंदिशें हैं, यह प्राय: पुरुष ही लगा सकता है। गौरतलब यह है कि क्या कोमोटोज पति, कोमा सी दशा में पड़ा पत्थर रूपी पुरुष अपनी पत्नी की व्यथा सुनकर फट सकता है र वह बेचारी मुक्त हो सकती है?