'पैसा' अखबार का आक्षेप / रामचन्द्र शुक्ल

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लाहौर का 'पैसा' अखबार पंडित मदनमोहन मालवीय तथा नागरी के और दूसरे हितैषियों पर ताना छोड़ता है कि तुम लोगों ने सर अंटनी मैकडानल पर जोर डालकर नागरी को उर्दू के साथ अदालत में दाखिल तो करा दिया लेकिन इसका फायदा क्या हुआ क्योंकि इस समय तक सैकड़ा पीछे अस्सी दरख् वास्तें उर्दू में आती हैं। आगे चलकर वह अपने कथन की पुष्टि में यह प्रमाण उपस्थित करता है कि 'लीडर' में जिससे मालवीयजी का भी सम्बन्ध है जितने अदालती इश्तहार निकलते हैं वे सब उर्दू में।

'पैसा' अखबार को समझना चाहिए कि मनुष्य समाज छोटे बड़े कई दलों में बँटा रहता है। संयुक्त प्रान्त में कचहरी के अमलों का भाषा व्यवहार बँधा चला आता है जो जनसंख्या के अधिकांश की समस्याओं को अपने द्वारा ही समझी या जोड़ी बातों में लिख पाता है, उनके साथ अन्याय करता है और अपना महत्तव बनाए रखने के लिए अदालतों की कार्रवाइयाँ जहाँ तक जनता के न समझने योग्य रूपों में हो वहाँ तक उन लोगों के लिए आनन्द ही आनन्द है। सर्वसाधारण के मन में वे यह बात बैठाते आते हैं कि जो बोली तुम लोग बोलते हो, जो अक्षर तुम लिखाते हो, उनसे अदालत का काम नहीं चलता। वहाँ के लिए तो एक दूसरी बोली है, दूसरे अक्षर हैं, जिन्हें हम थोड़े से लोग ही जानते हैं। इन भलेमानुषों की चलने पावे तो अदालतों में इशारों से बातचीत हुआ करे और चीन देश से अक्षर लाकर जारी कर दिए जायँ। ये लोग भोलीभाली प्रजा पर यह बात प्रगट ही नहीं होने देते कि उनकी दरखवास्त उनके जाने हुए नागरी अक्षरों में भी पड़ सकती हैं। यदि कहीं किसी हाकिम ने कोई नागरी की दरखवास्त लौटा दी तब तो इन लोगों को और भी बहकाने का मौका मिल गया। दूसरी बात विचारने की यह है कि अभी नागरी के प्रवेश की आज्ञा का प्रचार हुए कितने दिन हुए हैं। अभी पुराने ढर्रे के कुशिक्षित अमलों की वह पीढ़ी जिसमें सदाचार, लोकहित औरर् कर्तव्येपरायणता का भाव विशेष नहीं, जीती जागती है। हमारा आसरा उन पर नहीं, वरन् आगे आनेवाली नवशिक्षित सन्तति पर है। इस बीच में हमारी हिन्दी भाषा दिन दिन उन्नति करती हुई बंगला, मराठी, गुजराती आदि अपनी सगी बहिनों के साथ मिलकर सारे उत्तरीय भारतवर्ष को एक भाषा सूत्र में बाँध देगी।

इसके अतिरिक्त पैसा अखबार ने जो यह लिख कि लीडर पत्र में जो कि मालवीयजी का आरगन और नागरी अक्षरों का पूर्ण पक्षपाती है अदालती इश्तहार सदा उर्दू में छपा करते हैं। इसके सम्बन्ध में उसके सम्पादक को स्वयं विचारना चाहिए कि सम्पादकीय मत और विज्ञापनदाताओं की इच्छा भिन्न भिन्न बात है। विज्ञापन में प्रकाशित किसी विषय के लिए सम्पादक उत्तरदाता नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त वह समय भी बहुत शीघ्र आवेगा जब उर्दू के पक्षपाती निर्विवाद होकर नागरी अक्षरों की उपयोगिता को स्वीकार कर लेंगे और प्राय: समस्त अदालती कागजात और विज्ञापनादि इन्हीं सर्वगुणालंकृत अक्षरों में प्रकाशित हुआ करेंगे।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई.)

[ चिन्तामणि: भाग-4]