'फुटपाथ' असफल, 'अनाड़ी' क्यों सफल / जयप्रकाश चौकसे

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'फुटपाथ' असफल, 'अनाड़ी' क्यों सफल
प्रकाशन तिथि :05 जून 2015


बच्चों में लोकप्रिय एवं गृहिणी के लिए सुविधाजनक दो मिनट में पकने वाली मैगी के नमूने रसायन शाला में जांच के लिए भेजे गए हैं और कई प्रांतीय सरकारों ने इसे कुछ दिन के लिए प्रतिबंधित भी किया है। भोजन में मिलावट एक विराट राष्ट्रीय समस्या है और मैगी प्रकरण उस भयावह राष्ट्रव्यापी बीमारी का लक्षण मात्र है। अगर सारी प्रचारित वस्तुओं का परीक्षण हो तो हमारी भूख ही खत्म हो जाएगी। भोजन में मिलावट भ्रष्टाचार का ही एक स्वरूप है, जिसकी जड़ में है नैतिक मूल्यों का पतन और सांस्कृतिक शून्य। इस वर्ष असमय बरसात के कारण आम कम आए परंतु फिर भी खास लोग आम खा सके, क्योंकि आम के निर्यात में सड़ा हुआ फल भेजे जाने के कारण अनेक देशों ने प्रतिबंध लगा दिया है।

इससे भी गहरी समस्या और शायद अनेक समस्याओं का मूल कारण पुरानी फिल्म 'उजाला' के एक गीत में जाहिर होता है,- 'नफरत है हवाओं में, वहशत है फिजाओं में, यह कैसा जहर फैला दुनिया की हवाओं में'। सारी मिलावट और भ्रष्टाचार की गंगोत्री नैतिक मूल्यों का पतन है, जिसे किसी सख्त अध्यादेश से सुलझाया नहीं जा सकता। नैतिक मूल्य की पहली पाठशाला घर है, परिवार है और वे खो चुके हैं। आज शिशु पहला झूठ अपने माता-पिता से सीखता है, जो बच्चे को कहते हैं कि मिलने आए व्यक्ति को बोल दो पापा घर पर नहीं हैं। परिवार की नींव प्रेम पर रखी होती है और उसी का लोप हो गया है। हर भ्रष्ट व्यक्ति का दावा होता है कि वह भ्रष्टाचार परिवार की सुरक्षा के लिए और भावी पीढ़ियों के लिए कर रहा है। अगर उसके परिवार का अपना ही कोई उसका विरोध करे और भ्रष्ट दौलत से खरीदे सामान का इस्तेमाल ही करने से इंकार कर दे तो संभवत: बात बन सकती है। बच्चा ही कह दे कि उसे महंगे कॉन्वेन्ट स्कूल की जगह सरकारी शाला में जाना पसंद है तो अंतर आ सकता है। कोई एक नन्हा कदम महान पथ को प्रशस्त कर सकता है।

भोजन और दवाओं में मिलावट पर कुछ फिल्में बनी हैं, कुछ फिल्मों में कोई दृश्य रखा गया है। ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' अत्यंत प्रभावशाली फिल्म थी, जिसमें जावाली का कथा रूपक भी था। राज कपूर एवं ख्वाजा अहमद अब्बास की 'श्री 420' में तो ऐसे दृश्य और संवादों की भरमार है तथा प्रतीकों का भी बाहुल्य है। एक ईमानदारी के लिए मिले गोल्ड मैडल को काम की तलाश में आया युवा गिरवी रखता है और बेइमानी से कमाएं धन से उसे वापस लेने आता है परन्तु उसकी आत्मा के जागने के दृश्य में धार आती है जब नायिका उसे ईमानदारी का उसका मैडल उसे सौपती है।

बहरहाल, हिंदुस्तानी दर्शक और सिनेमा की एक विशेषता इस तरह उजागर होती है कि दवा में मिलावट पर दिलीप कुमार अभिनीत संजीदा 'फुटपाथ' असफल रही, जिसके क्लाइमैक्स में दवा मिलावट में शामिल नायक अदालत में कहता है कि 'उसे अपनी सांसों में हजारों मुर्दों की गंध आ रही है' - इस संवाद को भावना की इस तीव्रता से दिलीप ने अदा किया कि सिनेमाघर से सांस लेना दूभर हो गया। इसी थीम पर अलग हटकर बनाई गई ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनाड़ी' में हास्य व दर्द की संयुक्त शैली का प्रस्तुतीकरण है और शंकर-जयकिशन-शैलेन्द्र ने सार्थक माधुर्य रचा जिस कारण फिल्म सफल रही। यह राज कपूर की उसी छवि की फिल्म थी, जिसमें आंसू के मध्य से मुस्कान प्रस्तुत करने के प्रयास होते हैं। इसी फिल्म में ललिता पवार ने सहृदय क्रिश्चियन डिसूजा के पात्र को अमर कर दिया था। इसी फिल्म के संवाद को कई फिल्मों में उठाया गया है कि इस फाइव स्टार हॉटल में वे ही लोग मजे कर रहे हैं, जिन्हें सड़क पर बटुए मिले और उन्होंने लौटाएं नहीं।

भारतीय अवाम को शक्कर में लिपटी कुनैन खाने का शौक है और सड़क पर मिले बटवे नहीं लौटाने का भी जुनून है परन्तु फिल्म में 'बटवा संवाद' पर ताली बजाना नहीं भूलते और भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस 'गृहयुद्ध' की बात की जा रही है वह भी इसी आचरण के कारण संभव नहीं है।