'बादळी' अर 'लू' रै मिस चन्द्रसिंह रौ कवि-उणियारौ / डॉ. अर्जुनदेव चारण / कथेसर

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मुखपृष्ठ  » पत्रिकाओं की सूची  » पत्रिका: कथेसर  » अंक: जनवरी-मार्च 2012  

आधुनिक राजस्थानी कविता रौ जकौ उणियारौ आज आपां रै सांम्ही पळकै है उणरी आब अर ओप अै कवि आपरी जूण गाळ हासिल करी। अै सगळा कवि न्यारा न्यारा अर अेकठ होय नै आधुनिक राजस्थानी कविता रै पसराव रा नुंवा मारग खोलिया। अै कवि जठै परम्परा सूं पोखियोड़ा छन्दां नै अंगेजै तौ उठै ई नुंवै सुर अर नुंवी घड़त नै ई पग पसारण देवै। औ दौर अेक नुंवी काव्य भासा रै घड़ीजण रौ दौर ई है इण सारूं राजस्थानी कविता रै खेतर में आं कवियां रौ अर आं री कवितावां रौ महत् कीं बत्तौ ई गिणीजैला। अेक ई बगत में सिरजण में लागोड़ा अै कवि आपरी सिरजणा रै पांण आधुनिक राजस्थानी कविता नै घणौ लूंठौ कैनवास सूंपै। इण रूप आं री कवितावां नुंवी जमीन तोड़ती दीखै। आं कवियां मांय सूं कोई प्रकृति रै न्यारा न्यारा रूपां रा चितराम मांडतौ दीखै, तौ कोई सामाजिक बदळाव सारूं रैयत नै चेतावण नै आफळै। कठै ई प्रीत अर रूप नै बखांणीजै तौ कठैई नारी री अस्मिता रा सवाल ऊभा करीजै। कोई कवि सिस्टी रै रहस नै समझणी चावै तौ कोई जूण मरण री बारखड़ी नै अरथावतौ दीखै। इण भांत अै सगळा कवि आप आप री सरधा मुजब आधुनिक राजस्थानी कविता रै सरूप नै अेक नुंवै संचै में ढाळण री जुगत बैठावता दीखै। आं कवियां री कवितावां रै पांण ई आधुनिक राजस्थानी कविता आपरी सींव री सांकळ तोड़ती निगै आवै।

सन् 1947 रै पछै री कविता रौ औ बदळाव छुटपुट रूप सूं तौ सन् 1940 रै आसै-पासै सुरू होय गियौ हौ जद चन्द्रसिंह री 'बादळी' छपनै आपरै सामाजिक रै हाथां पूगी। अेक श्रव्य परम्परा रौ पठ्य परम्परा में ढळण रौ औ अेक महताऊ प्रयास हौ। इण सारूं इण रचना में आं दोनूं परम्परावां रा गुण अर दोस मौजूद है। अजे अठै छन्द रौ बन्धण हौ अर इणरी घड़त में अजे चितराम मांडण री कला रौ उपयोग हौ। पण इणरै साथै ई उठै बात नै कैवण री नुंवी लकब ही। जिणरै कारण ई उण आधुनिक कविता रै रूप आपरी ओळखांण कराई। 'बादळी' कविता री सुरुआत ई जीवण नै बचावण री मंसा रै साथै होवै। जुद्ध पसन्द धरती री उण परम्परा में जठै मरणौ मंगळ गिणीजती रैयो हौ उठै कोई कवि जीवण नै बचावण री बात कैय रैयौ है। औ अेक सुभ संकेत है-

जीवण नै सह तरसिया बंजड़ झंखड़ वाढ।
बरसै भोळी बादळी, आयौ आज असाढ॥

इण दोहै री विसेेसता आ है कै अठै जीवण सारूं तरसता तत्वां में वे तत्व ई भेळा है जका खुद सिरजण रै गुण सूं वंचित है। 'बंजड़' जका कीं उपजावण में असमर्थ है पण तद ई जीवण रै प्रति वांरी ललक, वांरी आस मौळी नीं पड़ै। उणरै पेटै उपजण वाळै असंतुलन नै संतुलित करण सारूं कवि कैवै 'झंखड़' जठै कीं भी ऊग जावै अर अणमाप रौ ऊगै। औ कविता में बैलैंस है अर पछै खेत है। आ ईज इण कविता री सुन्दरता है। आ दो विरोधी चीजां नै अेक साथै पकड़ै अर वांरै असंतुलन सूं अेक संतुलन उपजावै-

नहीं नदी नाळा अठै, नहिं सरवर सरसाय।
अेक आसरौ बादळी, मरु सूकी मत जाय॥

'बादळी' काव्य जीवण रै 'होवण' रौ काव्य है। इण काव्य रौ मूळ सुर उण 'होवण' नै बचाया राखण री कळप लियोड़ौ है। आ रचना अेक परम्परा री अनन्तता रा अैनांण मांडै, जकी घड़ी घड़ी देवण रौ सन्देस देवै अर इण रूप वा भारतीय मानस री ओळख नै पुख्ता करै। 'बादळी' सिरजण री उण प्रक्रिया नै आपरै सामाजिक आगै खोलै जकी जीवण नै रचै, उणमें रस भरै अर सेवट अनन्त में लोप होय नुंवै सिरजण री साख मांडै। जीवण री स्सैं सूं मोटी जरूत है प्रीत। उण रै पांण ई जीवण में भांत भांत रा रंग खिलै। धरती अर मेह तौ लागै देह अर प्रीत रौ ई जोड़ौ है। इण जोड़ै नै सवायौ सवाग देवण सारूं स्रिस्टी आपरै रंगां री गांठड़ी खोलै। वां रंगां रै पांण ई जीवण रौ 'होवणौ' संभव होवै। स्थूल अरथां में तौ 'बादळी' प्रकृति काव्य रै रूप ई ओळखीजै है पण आपरै ऊंडै अरथां में वा राजस्थान रै अबखै जीवण रै जूण-रस नै अरथावण वाळौ काव्य है। आ वा अबखी जूण है जिणमें कोई रंग नीं होवै, जठै कोई उम्मीद नीं होवै। बादळी उणमें रंग भरै अर उम्मीद जगावै। औ ई कारण रैयौ होवैला कै कोई आधुनिक कवि बादळी नै आपरी सिरजणा रौ आधार बणावै-

रंग बिरंगी बादळी कर कर मन में चाव
सूरज रै मन भांवतौ चटपट करै बणाव।
पहरै बदळै बादळी, बदळ पहर बदळाय
सूरज साजन नै सखी आसी कुणसौ दाय।

आ रचना अठै रै मिनख रै धीजै नै तौ बखांणै ई पण उणरै साथै ई वा उणरी अमूंझ नै ई पकड़ै। इण रूप 'बादळी' अठै री जमीन री अमूंझ अर धीजै री गाथा बण जावै। औ धीजौ उणनै उणरी खास ओळख सूंपै अर अमूंझ उणरी हूंस बधावै। इण बात नै समझियां खुलासौ होय जावै कै आ कविता जीवण में पैठियोड़ै डर सूं मुगती री कविता है। 'बादळी' सनेसौ देवै काळ रै विधूंस रौ। काळ रौ माथौ चींथियां ई जीवण री रिच्छा होय सकै है। इणी जीवण नै बचावण सारूं खुद प्रकृति संघर्स करती दीखै। इणसूं पैली कविता में मिनख रौ संघर्स पैली वार सांम्ही आवै। इण संघर्स सूं ई औ प्रमाणित होवै कै स्रस्टि रौ केन्द्र मिनख है-

खिण दिक्खण खिण उत्तर दिस खिण चौगरदी चट्ट।
कुण जांणै किण खोह में, बीज झपाझप झट्ट।
भेंट्या डूंगर खरदरा, खदरौ हुयौ सुभाव
भांजै गाजै गडग़ड़ै, तेज दिखावै ताव।
आठूं पौर अेकसी, सूं सूं सूंसातीह
बांडी ज्यूं बटका भरै, खूं खूं खूंखातीय।

चौमासौ चार महीणां रौ होवै पण 'बादळी' दो महीणां री कथा कैवै। आं दो महीणां में ईज जीवण रै सरसण री बात है। उर्दू कविता में तौ कवि कैय देवै-

उम्रे दराज मांग कर लाये थे चार दिन।
दो आरजू में कट गये दो इन्तजार में।

पण अठै आरजू अर इन्तजार रै पेटै अेक अेक दिन ईज है। बचियोड़ा दो दिन तौ आस पूरीजण रा है। उर्दू कविता में आस पूरीजण री स्थिति नीं है पण अठै जूण री आस पूरीजती दीखै। आ पूरी रचना असाढ अर सावण महीणां री सींव में पसरियोड़ी है। अै दो महीणा ईज धरती री कूंख हरी होवण रा महीणा मानीजै। इणी सारूं म्हैं इण रचना नै जीवण रै 'होवण' री रचना कैवूं। जुगां पैली कालीदास मेघदूत री रचना कर बादळ नै सन्देस देवण वाळै रौ रूप दियौ हौ, कवि चन्द्रसिंह उणी परम्परा नै आपरै तरीकै सूं पोखता थकां आपरा अरथ साधण रै काम में लेवै-

सज धज आवै सामनै चालै मधरी चाल।
सैंण सनेसौ बादळी सुणा सुणा तत्काल।

अठै औ सवाल ऊभौ कियौ जा सकै कै जद आखौ देस सुतंतरता री लड़ाई लड़ रैयौ हौ उण बगत चन्द्रसिंह उण लड़ाई सूं जुदा ऊभ प्रकृति री न्यारी न्यारी छवियां रा चितराम मांडण री खपत में क्यूं लागोड़ौ हौ। कांई कवि नै मुलक री आजादी सूं बत्ती प्रकृति री छबियां लुभावती ही? औ सवाल इण सारू ई जरूरी होय जावै के 1940 में छपी 'बादळी' बीकानेर रै महाराजा नै समरपित ही। कांई कवि आजादी रौ विरोधी हौ? इण सवाल रौ सीधौ उत्तर तौ औ दियौ जा सकै कै कवि खुद अेक जागीरदार परिवार सूं जुडिय़ोड़ौ हौ स्यात् इणी सारूं आजादी री वा लड़ाई जकी सामन्ती व्यवस्था रै खिलाफ लड़ीज रैई ही, दाय नीं आवती ही, पण इण तरै रौ जबाब देवणौ, चीजां नै सरल कर नै देखणौ है। अेक रचनाकार किणी जात या धरम सूं ऊंचौ होवै पण तद तौ वो देस री सींव में ई नीं बंधै? अचरज री बात आ है कै औ सवाल इण सूं पैली कोई नीं उठायौ। स्यात् औ कारण रैयौ ई होवै। पण तद ई म्हनै औ लागै कै चन्द्रसिंह सांम्ही आजादी री लड़ाई सूं ई मोटी अेक दूजी लड़ाई ऊभी ही अर वा ही अठै रै आम आदमी री अबखी जूण री संघर्स गाथा। रेत रै समन्द में रैवणियौ जीव जाणगियौ हौ कै अठै री जूण रौ आधार है मेह अर जे वो इण धरती माथै बगतसर बरस जावै तौ पछै अठै रौ मानखौ जीवण री हर लड़ाई में जूंझण सारूं तीयार रैवै। नींतर तौ उणरी पैली लड़ाई आपरी भूख रै खिलाफ ई चालती दीखै जिणरै केन्द्र में काळ ऊभौ रैवै। स्यात् इणी सारूं वो आजादी री लड़ाई सूं ई पैली भूख री लड़ाई सूं जूंझण रौ संकळप लेवै अर उणरै कारण ई 'बादळी' जैड़ी रचना सांम्ही आवै। हालांकि साहित् रै न्यारा न्यारा संचां में बांट नै देखणिया विद्वान इणनै प्रकृति काव्य कैय नै बधावता रैया है पण 'बादळी' परम्परागत प्रकृति काव्य रै सास्तरीय रूप में ढळै कोनी। आ तौ उमरदान लालस रै 'छपनै रो छोरारोळ' वाळी परम्परा नै आगै बधावण वाळी रचना है। इण सारूं 'बादळी' राजस्थान रै अबखै जीवण री अर उण जीवण सूं पार होवण री खपत में लागोड़ै अठै रै समाज री जीवन्त गाथा है। क्यूं कै इण रचना में सगळी बात बादळी रै माध्यम सूं कैईजी है इण सारूं इणनै प्रकृति काव्य मान लेवणौ चाइजै तौ इणमें स्यात् ई किणीनै अैतराज होवैला। बादळी में प्रकृति रा लुभावणा रंग नीं है। अबखाई रौ कैड़ौ रंग, अबखाई रौ कैड़ौ रूप अर अबखाई री सौरम कैड़ी होवै जे आ किणनै ई जांणणी होवै तौ उणनै पक्कायत रूप सूं 'बादळी' कनै जावणौ चाइजै। विधूंस रै सुर में ई नुंवी सिरजणा रा राग जलमिया करै, इण रचना रै पेटै आ बात खरीकी कैई जा सकै-

आज कळायण ऊमटी, छोडै खूब हळूस
सौ सौ कोसां बरससी, करसी काळ विधूंस।
वेगी बावड़ बावळी, धान रह्यो अळसाय
पानां मुख पीळिजियौ, झुर झुर नीचा जाय।
बण ठण आई बादळी, राची धर रंग राग
चेतन अत चंचळ हुयौ, जड़ जग उठियौ जाग।

औ कवि रौ दियोड़ौ बादळी रौ अरथाव है। जकौ जीवाजूण नै चेतन करै, जकौ जगत री जड़ता भांगै। वा है बादळी। इण भांत बादळी जीवाजूण रौ केन्द्रीय भाव बण सांम्ही आवै जिण रै अभाव में स्सैं सूख जावै। मूळ बात आ है कै कवि जड़ता रै खिलाफ ऊभौ होवै अबै इण जड़ता नै भांत भांत सूं अरथाय सकां। बादळी री जरूत धरा रै अतिरपत रूप कांनी सांनी करै अर धरा रौ अतिरपत भाव सेवट जीवाजूण रै अतिरपत होवण नै परगट करै। बादळी रै बरसियां ई जीवण आपरी पूरणता में विगसैला। कांई इण विगसाव नै आजादी रै पेटै ई नीं ओळख सकां?

चंद्रसिंह री दूजी रचना 'लू' 1954 में छपनै आई, आ रचना बादळी रै जलमी पण स्रष्टि रै खातै में तो लू रौ जलम हमेसा बादळी सूं पैली ई होया करै। लूवां जितरी आकरी बाजै बादळी री सिरजणा रा अैनांण उत्ता ई लूंठा बणै। अै दोनूं रचनावां अठै रै रैवासी री पीड़ अर उणरै संघर्स नै ओळखावै। खासियत आ है कै कवि बात तौ संघर्स री करै पण उणरौ सुर वीणती रौ है। औ विनय भाव आं तत्वां रै प्रति आदर परगट करणौ ई है क्यूंकै लू अर बादळी वे तत्व है जकां रै पांण अठै रा रैवासी जीवण री प्रेरणा लेवै। जे राजस्थान नै अर अठै रै जीवण नै कोई रेखांकित करणौ चावै तौ कैयौ जा सकै कै वो लूवां जैड़ौ आकरौ अर बादळियां जैड़ौ खिणभंगुर होवै अर इणरै साथै ई वो हमेसा समरपण रौ भाव अंगेजियां राखै। इण रूप कवि चंद्रसिंह आपरी आं रचनावां रै पेटै अठै रै जीवण नै ईज न्यारा-न्यारा अैंगल सूं देखण री कोसिस करै है। आ वांरी सींव ई मानी जा सकै कै वे हर बार प्रकृति रै किणी तत्व रै माध्यम सूं ईज आपरी छवियां मांडै। जिण भांत चन्द्रसिंह 'बादळी'में जीवण री रिच्छा रै भाव सूं रचना री सुरुआत रै उणी भांत 'लू' में ई वो स्सैं सूं पैली जीवण नै बचाया राखण री अरदास करतौ दीखै-

कोमळ कोमळ पांखडिय़ां कोमळ कोमळ पान
कोमळ कोमळ बेलडिय़ां राख्या लूवां ध्यान।

कवि री आ अरदास स्रष्टि री कंवळास नै बचावण री अरदास है। इण कंवळास रै बचियां ई आ स्रिस्टी बचैला। कंवळास है तौ करुणा अर दया है, त्याग रौ भाव इण सूं जुडिय़ोड़ौ है। अठै अेक कानी तौ कंवळास है अर उणरै सांम्ही है विधूंस पण औ विधूंस सिरजण नै पोखण री जरूत बण नै आयौ है स्यात् इणी सारूं कवि अरदास कर रैयौ है। जे इण मांय सूं सिरजणा री संभावना खीण होय जावै तौ पछै औ ई विधूंस स्रष्टि नै मेटण वाळौ बण जावै अर तद उठै अरदास री नीं उणसूं जूंझण री जरूत पड़ै पण क्यूं कै इण विधूंस में ई नुंवी सिरजणा रौ भेद छिपियोड़ौ है इणी सारूं अरदास है। आ तौ भारतीय मन रै सारस्वत भाव री अभ्यर्थना है जठै ब्रह्मा-विष्णु अर महेस री पूजा करीजै। सिरजणा-विकास विनास अर पाछी सिरजणा रौ औ भेद ई चन्द्रसिंह री आं रचनावां मांय परगट होयौ है-

लूआं आय'र रोस में बाळी जद बणराय।
बड़ै जतन सूं बीज सै राख्या धरा लुकाय।।
लूआं थे क्यूं अणमणी दीठां बादळियां
थांरा बाळ्या पांघरै फळसी पांघरियां।
लूआं रोग भगाविया मुरधर मिनखां जेह
ऊपर दीसै स्याम रंग भीतर कंचन देह।

कवि खुद 'लू' पोथी में 'अपणै मन री' बात बतावता लिखियौ है कै- 'प्रकृति अपणा अनेक रूपां में ही पूर्ण होवै। पहाड़ जठै सुहावणा दीसै बठै डरावणा भी। सूरज चांद पर तारामंडळ अपणी जगमगाट रै आवरण में अपणी कठोरता अर भयंकरता छिपाअी राखै। समंदर अूपर सूं शांत पण मांय उथळ पुथळ घणी। इण ही भांति अूपर सूं विकराळ दीखण वाळी वस्तु में भी कोमळ सूं कोमळ चीज छिपी मिळै।

वसंत अर वरसाळै रै बीच में लूवां रौ राज भी अण ही प्रकृति री अनेकता रौ अेक रूप-अर स्वभाविक रूप समझणौ चाहीजै। वसंंत रौ दिखण पवन अर वरसाळै री परवा अर सूरयौ इणां रै बीच री लू कितरी ही कठण सुभाववाळी होवता थकां भी पहली रौ विणास तौ दूसरी रौ सिरजण करण वाळी हुवै।

इण ही भाव नै ले कोई सहृदय लू रै प्रति अन्याय कियां कर सकै- खास कर मरुधर रौ वासी तौ लू रै पहलै लपकै नै ही वसंत री सारी सोभा भेंट चढा दे तो कुणसी अचरज री बात- क्यूं कै बादळी नै जनम देवणवाळी आ ही लू है।' (अपणै मन री-लू-चन्द्रसिंह)

अै रचनावां इण सारू ई महताऊ है कै इणमें राजस्थान री धरती, उणरी सौरभ अर उणरी रंगत परतख परगट होवै। रचनाकार अठै रै परिवेस नै पकड़ण नै खपै। इण परिवेस री पड़ताल करतौ वो मिनख अर परिवेस रै रिस्तै नै ओळख देवै। इत्तौ ई नीं वो आखै जीव जगत नै आपरै घेरै में लेवण नै खपै पण इण परिवेस में फगत तकलीफां है। इण धरती री रंगत अर सौरम लूआं रै कारण आपरी पसम गमायोड़ी है। फगत भरोसौ इत्तौ ई है कै आं तकलीफां सूं ई सिरजणा री नुंवी कूंपळां फूटैला।

लूआं थारै ताव में दीन्हौ सब कुछ होम
करै तपस्या मुरधरा बिलसै बीजी भोम।
जीव जका सह नीसर्या लूवां थारौ ताप
उण नै जग में आंच के ताप बण्या बै आप।
जीवण दाता बादळ्यां थां सूं जीवण पाय
भल लूआं बाजो किती मुरधर सहसी लाय।

विधूंस अर पोखण रा विरोधी भावां नै आपरै गरभ में समेटियां ऊभी आ रचना आपरै मूंडै बोलता चितरामां रै कारण अर तथ्यां री काव्यात्मक अभिव्यक्ति रै कारण आधुनिक राजस्थानी कविता में हमेसा आदर पावैला। औ मुरधर रौ बखांण अठै री जीवा जूण रौ ईज बखांण है। अठै रौ रैवासी ईज इत्ती अबखायां झेलण में सिमरथ है। औ उणरौ त्याग है आखी दुनिया सारूं। इण संघर्स रै पांण अठै रै जीवण में सरसता है। आ अबखायां सूं उपजियोड़ी राग है। इणी सारूं अठै आखी स्रिस्टि सारूं करुणा रौ भाव है। खुद री पीड़ नै ओळखण सूं पैलां दूजै री पीड़ नै ओळखण री खिमता अठै रै रैवासी नै मोटौ करै। समता अर सहयोग री इण भावना रै पांण ई स्रष्टि बचियोड़ी है।

लूआं थे चाली भली ले ले मन री मोज
मुरधर मेहां मेळसी बादळियां भर चोज।
जिण दिस नर कवळांठिया मतना कीज्यौ वास
थानै मुरधर झेलसी, जी भर देवौ तास।

मुरधर री महिमा रौ बखांण करती आ रचना आधुनिक राजस्थानी कविता नै आगै बधावण रौ काम करियौ। चन्द्रसिंह रै पछै जद जद कोई राजस्थानी कवि प्रकृति नै आपरी कविता रौ अंस बणायौ चन्द्रसिंह हमेसा उणरै सांम्ही ऊभौ रैय उणनै प्रेरणा देवतौ रैयौ है।

('बगत री बारखड़ी : अर्जुनदेव चारण' सूं साभार)