'बी.ए. पास' सिनेमाई डॉक्टरेट है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 20 मार्च 2013
यह एक लोकप्रिय बात है कि वर्तमान दौर युवा केंद्रित है और बाजार की ताकतों ने युवा-वय को ही एक आकर्षक वस्तु बनाकर उसे सिक्के के रूप में बाजार में चला दिया है। सिनेमा इस लहर से कैसे अछूता रहता और उसने भी युवा कहानियों को महत्व देना शुरू किया, परंतु सच्चाई यह है कि हर कालखंड में युवा नायकों की फिल्में बनी हैं। बहरहाल, युवा केंद्रित फिल्में प्राय: प्रेम कहानियां होती हैं या मस्ती मंत्र का जाप करने वाले नायक प्रस्तुत किए गए हैं। अयान मुखर्जी की रणबीर कपूर अभिनीत 'वेक अप सिड' जवानी की पहली अंगड़ाई की फिल्म थी और उनकी आगामी फिल्म 'जवानी दीवानी है' पूरी तरह जाग जाने की फिल्म हो सकती है।
बहरहाल, अजय बहल की 'बी.ए. पास' भी युवा केंद्रित फिल्म है, परंतु यह प्रेमकथा नहीं है और न ही मस्ती-मंत्र की फिल्म है। यह 'रंग दे बसंती' की तरह युवा के सोच में आमूल परिवर्तन और उनके कायाकल्प की भी फिल्म नहीं है। इसका केंद्रीय पात्र 'वेक अप सिड' के नायक से थोड़ा-सा कम वय का है, परंतु उसकी समस्या 'किड' पर वयस्कता लाद दिए जाने की है। उसकी मासूमियत पर मादकता के छा जाने की है और हैरतअंगेज यथार्थ यह है कि वय की मिक्सी में उसे जल्दी पीसे जाने का कारण उसकी गरीबी और असहायता है। गरीब युवा के अवचेतन में हिंसा ठूंसकर उसके द्वारा विध्वंस कराए जाने की तरह ही इस युवा होते लड़के को आतंकवादी तो नहीं बनाया जाता, परंतु समाज में पूंजीवादी संस्कृति के पतन का हिस्सा बना दिया जाता है और यह एक अलग किस्म का सांस्कृतिक आतंकवाद है। युवा वय के इस अभिनव रूप को पहली बार प्रस्तुत किया गया है और आश्चर्य यह कि फिल्म बनाने वाले भी सारे युवा हैं और उनका कमोबेश पहला ही प्रयास है।
आर्थिक उदारवाद के बाद भारत में पहले से मौजूद आर्थिक खाई को उदारवाद ने भयावह रूप से बड़ा कर दिया है। समाज में मौजूद भ्रष्टाचार और आर्थिक उदारवाद की बेसुरी जुगलबंदी ने समाज में मूल्यों के परिवर्तन प्रस्तुत किए हैं। एक वर्ग सामंतवादियों की तरह अय्याश हो गया है और उसके आर्थिक शिकंजे में युवा होता वर्ग फंस जाता है। इन बातों से आभास हो सकता है कि यह माक्र्सवाद या अन्य किसी गंभीर दार्शनिक चर्चा की फिल्म है, परंतु यह एक मनोरंजक फिल्म है, जो थ्रिलर के तेज गति वाले अंदाज में इस तरह प्रस्तुत की गई है कि दर्शक को सारे समय बांधे रखती है। यह दर्शक को सतह के नीचे बहते गूढ़ अर्थ खोजने का अवसर देती है अन्यथा यह एक किशोर की कथा है, जिसकी मासूमियत खरीद ली जाती है। उस किशोर की दो बहनों की व्यथा-कथा भी है।
फिल्म का प्रारंभ होता है एक मध्यम वर्ग के दंपती की कार दुर्घटना में मृत्यु के साथ और किशोर का भार एक रिश्तेदार लेता है तथा बहनों का भार अन्य रिश्तेदार। यह गरीबी के द्वारा किया गया दारुण बंटवारा है। किशोर का दाखिला सुबह लगने वाले कॉलेज में होता है और बी.ए. के इस छात्र को आश्रय देने वाले परिवार के यहां कमोबेश नौकर की तरह उसका इस्तेमाल किया जाता है। शतरंज में रुचि रखने वाला छात्र फुर्सत के चंद लम्हों में एक मरघट से जुड़े उद्यान में शतरंज खेलता है और उस संस्थान का रखवाला भी शतरंज का शौकीन है, परंतु यह दोनों शतरंज के विभिन्न स्कूलों को मानते हैं। इस रखवाले की भूमिका दिब्येंदु भट्टाचार्य ने एक निष्णात कलाकार की तरह निभाई है और किशोर की भूमिका में शादाब कमल की यह पहली फिल्म है और संवेदना की गहराई के साथ निभाया प्रयास है। फिल्म की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका शिल्पा शुक्ला ने निभाई है, जिन्हें हम 'चक दे इंडिया' में अनुभवी हॉकी खिलाड़ी की भूमिका में देख चुके हैं, परंतु इस फिल्म में तो उसने विलक्षण अभिनय किया है। आयटम सॉन्ग करने वाली सुपर सितारा अभिनेत्रियां शिल्पा शुक्ला से सीख सकती हैं कि सैक्सुएलिटी किस तरह परदे पर बिना अंग प्रदर्शन के प्रस्तुत की जाती है।
इस फिल्म में दीप्ति नवल ने केवल दो छोटे दृश्य किए हैं, परंतु उसकी आंखों में सूनेपन का भाव दर्शक के हृदय में प्रवेश कर जाता है। लंबे समय तक कोमा में पड़े पति की तीमारदारी ने उसे ऐसा बीमार बना दिया है कि वह शारीरिक रूप से स्वस्थ होते हुए भी भीतर से खोखली हो गई है और एकरसता तोडऩे के एक छोटे-से दृश्य में निर्देशक ने सतह के भीतर यह भी कहा है कि किस तरह अनेक स्तर पर किया गया उपवास एक स्त्री को सूखी नदी की तरह तपस्विनी बना देता है और उपवास तोडऩे के असफल प्रयास का एक क्षण क्या अर्थ रखता है। मध्यम वर्ग और भ्रष्टाचार से अमीर बे वर्ग की लालसाओं के नृत्य की यह फिल्म मोहन सिक्का की लघु कथा 'रेलवे आंटी' से प्रेरित है, जो हार्पर कॉलिन्स की 'देल्ही नोएर' नामक संकलन में प्रकाशित हुई थी। इसके नए संस्करण के कवर पर 'बी.ए. पास' का चित्र है। कूपमंडूक सेंसर ने अनावश्यक रूप से इसे 'वयस्क' प्रमाण-पत्र दिया है और आज वयस्क फिल्म के टेलीविजन पर प्रसारण अधिकार नहीं बिकते, इसलिए इसे सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिए नहीं खरीदा जा रहा है। यह सिनेमा के नए आर्थिक समीकरण की त्रासदी है। फिल्म तो अत्यंत अल्प बजट में प्रतिभाशाली अजय बहल ने बनाई है, परंतु आजकल प्रमोशन का खर्च फिल्म की लागत से अधिक है। इस तरह की सार्थक फिल्म के लिए चंद भागीदार आगे आ सकते हैं।