'बेरोजगारी एक लत है?' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 15 मार्च 2014
आदित्य चोपड़ा, नूपुर अस्थाना और लेखक हबीब फैजल की ऋषि कपूर, सोनम, आयुष्मान अभिनीत 'बेवकूफियां' अत्यंत मनोरंजक और बुद्धिमानी से बनाई गई फिल्म है। स्पष्ट है कि हबीब फैजल आर्थिक उदारवाद से जन्मे नौकरीपेशा मध्यम वर्ग को बखूबी समझते हैं। इस युवा वर्ग की सोच पर उनकी गहरी पकड़ है। ऋषि कपूर - नीतू सिंह अभिनीत 'दो दूनी चार' से उन्होंने जो आशाएं जगाई थीं, वे उन्होंने 'बैंड बाजा बारात', 'इश्कजादे' और 'बेवकूफियां' में निभाई हैं। अब उनकी 'दावते-इश्क' से और उम्मीद बढ़ गई है। बहरहाल इस फिल्म के युवा नायक और नायिका शिक्षित तथा नौकरीपेशा लोग हैं और ये बाजार उनके सोच का केंद्र है। दोनों ही खूब कमाते हैं और एक-दूसरे से मोहब्बत करते हैं। नायिका के पिता आई.ए.एस अफसर है और ताउम्र ईमानदारी से काम किया है, अब उनकी सेवानिवृति मात्र तीस दिन रह गए हैं। उन्हें अपनी बेटी की पसंद पर यह ऐतराज है कि वह उनकी बेटी से सात हजार कम कमाता है। उनका ख्याल है कि महज प्यार से जीवन नहीं चलता, पैसा बहुत महत्वपूर्ण है।
दरअसल हबीब फैजल अपने पात्रों का मनोविज्ञान बहुत गहराई से गढ़ते हैं। इस ईमानदार आला अफसर ने अपने समकालीन भ्रष्ट अफसरों को करोड़ों कमाते देखा है और उसे अपनी काबिलियत और ईमानदारी की कद्र नहीं की गई है इसकी भी खुन्नस है। अत: वह अपनी बेटी जिसे उन्होंने मां और पिता दोनों की तरह पाला है, के भविष्य के बारे में मुतमुइन होना चाहते है।
इस प्रेम-कथा में खलनायक है आर्थिक मंदी जिसके कारण नायक की नौकरी चली जाती है और प्रेमिका के इकरार करने पर वह अपनी बेरोजगार हो जाने की बात छुपाता है। उसकी बेरोजगारी के दिनों में नायिका उसकी आर्थिक मदद करती है परंतु यह बेरोजगारी सिर्फ पैसे नहीं होने तक सीमित नहीं रहती वरन् एक अजीब किस्म का नैराश्य उसे घेर लेता है। दरअसल बेरोजगारी एक कड़वाहट है, अहंकार पर चोट है और इसी दवाब में रिश्ते में दरार आ जाती है परंतु इस प्रक्रिया में सेवानिवृत अफसर महोदय को नायक के अच्छा इंसान होने का ज्ञान हो जाता है और उनके मध्यम वर्गीय नैतिकता जोर मारती हैं और वे रूठे हुए प्रेमियों के बुझे हुए प्रेम की राख के नीचे की दबी चिंगारी को हवा देते हैं, तथा प्रेम विजयी होता है।
हबीब फैजल के लिखे संवाद मनोरंजक होते हुए गहरी बात भी प्रकट करते है, मसलन एक मित्र दूसरे से कहता है कि तुम्हें बेरोजगारी की लत पड़ गई है। संकट के समय काबिल आदमी को कमतर नौकरी भी स्वीकार करना चाहिए। पूरी फिल्म ही मनोरंजक है और सभी ने अच्छा अभिनय किया है परंतु ऋषि कपूर ने फिर साबित किया है कि उनका जवाब नहीं है। इस फिल्म में उनका चरित्र ही कमाल का गढ़ा गया है और उन्होंने अपने सहज स्वाभाविक ढंग से इस पात्र को इतना सजीव कर दिया है कि लगता है, वह आपके साथ थियेटर से आपके घर भी आ गया है। दरअसल ऋषि कपूर भी एक लत है जिससे आप निजात नहीं पाना चाहते। खुराना 'विकी डोनर' के बाद राह भूल गए थे और इसमें वापस आ गए हैं। 'रांझणा' से आत्म विश्वास प्राप्त करके सोनम भी निखर गई है।
आर्थिक उदारवाद ने ऐसा बाजार बनाया है जिसने अपने इतिहास में पहली बार अपने ग्राहक को भी जन्म दिया है। रोशनियों और आमोद -प्रमोद का नया संसार उभरा है और इसमें रमे हुए लोग यथार्थ से कर जाते हैं। यह सारी समृद्धि जिन चीजों पर टिकी है, वे चलायमान हैं और खेल बदलते देर नहीं लगती। दरअसल इस विकास और समृद्धि को असलियत उजागर होने में बहुत समय लगेगा और इसमें रमे लोग वहां पहुंच जाते हैं जहां उन तक उनकी आवाज भी नहीं पहुंच पाती। कुछ समय पूर्व ही वूडी एलन ने एक फिल्म बनाई है जिसमें आर्थिक मंदी से टूटे हुए लोगों के जीवन का वर्णन है। 'बेवकूफियां' केवल संकेत करती है परंतु सच तो यह है कि बाजार के उठने गिरने के साथ आम आदमी के सपनों का ग्राफ भी ऊपर नीचे जाता है जिसके साथ ह्रदय की धड़कन भी बेकाबू होती है। दरअसल इस विकास ने कुछ अपनी व्याधियां भी गढ़ी हैं, इस नई जीवन शैली में जिम तो है परंतु फिर भी अजीब सी कमजोरी मन को घेरे रहती है। हर सिस्टम की अपने किस्म की व्याधियां होती है। बहरहाल यह फिल्म विशुद्ध मनोरंजन है और किसी किस्म का फलसफा नहीं झाड़ती। आवम को गुदगुदाने वाली फिल्म है।