'भाभीवाद' और लम्पटता का पारिवारिक कारण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :22 फरवरी 2018
छोटे परदे पर 'भाभीजी घर पर हैं' लंबे समय से दिखाया जा रहा है और इसमें प्रस्तुत पात्र अब दर्शक की सोच का हिस्सा बन गए हैं। इसकी सबसे बड़ी सफलता यह है कि लम्पटता केन्द्रित यह कार्यक्रम परिवार के साथ बैठकर देखा जा रहा है और शालीनता का निर्वाह इस कदर हुआ है कि कहीं किसी को कुछ भी अनुचित नहीं लगता। इसकी लोकप्रियता का आधार लेखन है और सारे कलाकार अपनी भूमिकाओं में रम गए हैं। इन कलाकारों को अन्य भूमिकाओं में सराहा जाना कठिन है। फिल्मों में टाइप कास्टिंग होती है, मसलन इफ्तिखार साहब ने इतनी अधिक फिल्मों में पुलिस इन्सपेक्टर की भूमिका अभिनीत की थीं कि जब वे कार में बैठकर कहीं जा रहे होते तब ट्रैफिक हवलदार उन्हें सैल्यूट करते थे। टाइप कास्टिंग के कारण चरित्र भूमिकाएं अभिनीत करने वाले कलाकारों को नियमित काम मिलता रहा है। फिल्मकार मेहबूब खान ने 1940 में 'औरत' नामक फिल्म बनाई और सन् 1956 में इसी को दूसरी बार 'मदर इंडिया' के नाम से बनाई। दोनों संस्करणों में कन्हैयालाल ने लोभी लम्पट महाजन की भूमिका का निर्वाह किया था।
इसी तरह नाना पलसीकर नामक कलाकार ने अनगिनत फिल्मों में गरीब आदमी का पात्र अभिनीत किया और जब 'प्रेम परबत' में उन्होंने अमीर व्यक्ति की भूमिका की तो दर्शकों ने इसे पसंद नहीं किया। रेहाना सुल्तान को बाबूराम इशारा की 'चेतना' में बहुत सराहा गया, वे राजिंदर सिंह बेदी की 'दस्तक' में भी सराही गईं परन्तु लंबे समय तक नहीं टिक पाईं। सितारा छवि कलाकार की रोजी सोटी बन जाती है और उसे सीमित भी कर देती है। यह संजीव कुमार और जया बच्चन का कमाल है कि उन्होंने पति-पत्नी की भूमिकाएं भी कीं और 'शोले' में जया बच्चन ने उनकी विधवा बहू का पात्र जिया तथा गुलज़ार की 'परिचय' में वह उनकी पुत्री की भूमिका में भी सराही गईं।
राजकपूर को 'बॉबी' के अंतिम हिस्से में एक खलनायक पात्र की आवश्यकता पड़ गई और उसे पटकथा में स्थापित करने से अनावश्यक दृश्यों की रचना करना पड़ती। उन्होंने समस्या का निदान इस तरह किया कि अपने पहले ही दृश्य में पात्र कहता है 'प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा'। फिल्म प्रदर्शन के दशकों बाद भी जब प्रेम चोपड़ा सार्वजनिक कार्यक्रम में जाते हैं तब दर्शक उनसे वही संवाद बोलने का आग्रह करते हैं।
'भाभीजी घर पर हैं' के एक एपिसोड में पात्र तांत्रिक से मिलने जाते हैं। तांत्रिक की सहयोगी का नाम 'उत्तेजना' रखा गया है। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि पात्र पराई स्त्री से प्रेम में सफलता पाने के गुर जानने आए हैं। एक पात्र सक्सेना है जिसे पिटने में आनंद आता है। यह पात्र भारत के अवाम का प्रतीक है जो उस व्यवस्था को धन्यवाद देता है जिसके द्वारा पीटा जाता है। सक्सेना के घर में एक प्रयोगशाला है जहां वह भांति भांति के आविष्कार करता है। अवाम भी हर चुनाव में अपने कष्ट निवारण के प्रयोग करता है। बेचारे को विकल्प ही नहीं मिलते। फिल्म की पात्र अनीता से सभी पात्र मन ही मन इश्क करते हैं परन्तु उसके पति की निगाह पड़ोसन पर है। अनीता अपनी निगाह से हर पात्र को 'फ्रीज' कर देती है अर्थात वह हिल्ता-डुलता नहीं।
विरोधाभास और विसंगति द्वारा पात्रों की रचना की गई है। स्मार्ट बिजनेसमैन की पत्नी इतनी सीधी है कि सभी उसे 'बौडम' कहते हैं। बेरोजगार पात्र को 'नल्ला' कहकर संबोधित किया जाता है। दरअसल वह काम करना ही नहीं चाहता। 'बौडम' की तरह 'नल्ला' का प्रयोग निढल्ले व्यक्ति के लिए किया गया है। प्रस्तुतीकरण में घर के किचन की खिड़की को भी पात्र की तरह प्रस्तुत किया गया है। हप्पू हवलदार आलसी और भ्रष्ट है परन्तु उसे प्रिय पात्र बना दिया गया है। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार है। पुलिस कमिश्नर देव आनंद की पैरोडी की तरह रचे गए हैं और वे अपनी पत्नी से भयभीत रहते हैं गोयाकि जिस पर शहर को सुरक्षा देने का उत्तरदायित्व है, वह अपनी पत्नी से भयभीत है। यह पत्नी कभी परदे पर नहीं आती। इसी कारण अनीता की सहेली मीनल का भी हम नाम सुनते हैं परन्तु वह पात्र अदृश्य ही रहता है।
मोहल्ले में दो बेरोजगार मित्र रहते हैं और वे अपनी बेरोजगारी का भी आनंद उठाते हैं। एक पारम्परिक सीधा व्यक्ति हमेशा संस्कार की बात करता है। आज के समाज में संस्कृति और संस्कार को कोड़ा बना दिया गया है जिसे कभी भी लहराया जा सकता है। मौजूदा अप-संस्कृति का मखौल इस तरह उड़ाया गया है। एक पात्र विदेश से आने वाले चाचा का है। उसे उतना ही कुरूप दिखाया गया है जितने उसके मन में दबे हुए इरादे हैं। इस तरह अप्रवासी भारतीय पात्र के खोखलेपन को उजागर किया गया है।
सीरियल का अबोला नारा है 'बुरा न मानो होली है'। दरअसल हास्य की होली 'स्वच्छता' के नारे के साथ रची गई है। एक अभिनव तरीका यह है कि पात्र मन में दबी बात कह देता है परन्तु पूछा जाता है कि 'होंठ फड़फड़ा रहे हैं, कुछ कहा आपने'। इस तरह अनकहे को कहा भी जाता है और सुनकर भी सुना नहीं जाता। यह 'भाभीवाद' विशुद्ध निर्मल हास्य है और लम्पटता का पारिवारिकरण करता है।