'मुल्क' कैसे परिभाषित करें / जयप्रकाश चौकसे

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'मुल्क' कैसे परिभाषित करें
प्रकाशन तिथि : 19 दिसम्बर 2019

ऋषि कपूर और तापसी पन्नू अभिनीत 'मुल्क' के बाद फिल्मकार अनुभव सिन्हा ने फिल्म 'आर्टिकल-15' बनाई। इन दोनों सफल व सार्थक फिल्मों के फिल्मकार को ट्रोल किया गया, धमकियां दी गईं। इनसे बचने के लिए वे कश्मीर चले गए, जहां सभी संचार माध्यम निरस्त कर दिए गए थे। कभी-कभी मनुष्य को ऐसा स्थान सुविधाजनक लग सकता है। कोई चिट्ठी पत्री नहीं, कोई बात करने वाला न हो, ऐसा स्थान मनुष्य को स्वयं को जानने का अवसर दे सकता है। सबसे दूर जाकर अपने निकट आया जा सकता है। इन सबसे छोटी दूरी पार करने में एक उम्र लग जाती है, परंतु कुछ विरले लोग ही यह फासला दूर कर पाते हैं। 'मुल्क' में एक मुस्लिम परिवार का युवक आतंकवादी बन जाता है। प्रशासन उसके पूरे परिवार से ही पूछताछ करता है और मुखिया को गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसी परिवार के एक युवा ने एक हिंदू स्त्री से प्रेम विवाह किया था और वे लंदन में बस गए थे। पति की यह जिद है कि उनकी होने वाली संतान का धर्म जन्म से पूर्व तय किया जाए और पत्नी का कहना है कि जब प्रेम और विवाह के रास्ते में धर्म आड़े नहीं आया तो अब उसको मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है। वह पति से खिन्न होकर अपनी ससुराल लौटती है। वह अपने ससुराल पक्ष की पैरवी करने का निर्णय लेती है और अदालत में मुकदमा जीतती है।

मुकदमे के दौरान विचारोत्तेजक बातें कही जाती हैं। मसलन कश्मीर के किसी मुसलमान की मदद करने वाले को पाकिस्तानी मान लिया जाता है। बचाव पक्ष की वकील कहती है कि पूरे मुल्क को 'हम' और 'वो' के खांचों में बांट दिया गया है। 'हम' और 'वो' के चश्मे से देखने की आदत डाली जा रही है। आतंकवाद का धर्म से कोई संबंध नहीं है। इस मुकदमे का जज आरोपी को बरी करते हुए कहता है कि 800 साल पहले जन्मा बिलाल कौन था, यही सोचते रहेंगे तो 5000 साल पीछे चले जाएंगे।

अनुभव सिन्हा का कहना है कि वे 'मुल्क' जैसी फिल्में ही बनाना चाहते हैं, क्योंकि वर्तमान में यही मुद्दा है कि पूरे मुल्क को 'हम' और 'वो' के खांचों में बांट दिया गया है। इस बंटवारे की कोख में एक दर्जन बंटवारे गर्भस्थ हैं। अनुभव सिन्हा को प्रसन्नता है कि उनके प्रिय कलाकार ऋषि कपूर कैंसरमुक्त होकर भारत आ चुके हैं। तापसी पन्नू की सितारा हैसियत में इजाफा हुआ है। सितारों के साथ मिलते ही पूंजी निवेश भी आसान होगा, परंतु प्राचीनता की अफीम के नशे में गाफिल आम दर्शक संभवत: सिनेमाघर ही नहीं आए। आज मुद्दा हुक्मरान नहीं है, वरन प्राचीन अफीम चाटता हुआ आम आदमी है। यह मानव इतिहास का कठिनतम संघर्ष है। 60 विश्वविद्यालयों के छात्र मैदान में आ गए हैं। छात्र आशा जगाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि टेलीविजन पर इस फिल्म का प्रदर्शन लंबे समय से नहीं हुआ है। लौहपाश में जकड़े हुए हैं सारे संचार माध्यम। अभिव्यक्त होना कभी इतना कठिन नहीं था। नागरिकता के रजिस्टर की सुर्खियों में होने के कारण ऑरसन वेल्स की फिल्म 'सिटीजन केन' की याद आ गई जो असफलता को आदरांजलि की तरह बनाई गई है। सफलता के लिए प्रयास किए जाने में ही उसका इनाम भी छिपा हुआ है। आज भी कुछ लोग उन छोटे द्वीपों की तरह हैं जिन पर लोकप्रियता की लहरों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ लोग स्वतंत्र विचार शैली को आज भी छाती से लगाए बैठे हैं। व्यवस्था मुतमईन है कि उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। अनजान कोने से कोई चिंगारी निकलती है और सारे जंगल में आग लग जाती है।

यह इत्तेफाक की बात है कि छोटे परदे पर बाबा साहेब आंबेडकर के जीवन से प्रेरित कार्यक्रम दिखाया जा रहा है। उस महान व्यक्ति द्वारा गढ़े गए संविधान को आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझना पड़ रहा है। कार्टून बना है कि संविधान की उसी किताब पर आरी चलाई जा रही है। वह महज एक किताब नहीं है, उसमें उदात्त विचारों का संकलन है। वह हजारों वर्ष पुराने ज्ञान का संकलन है जो आधुनिकता से गलबहियां करता नजर आता है। संविधान ही हमारा कल आज और कल है। मुल्क कोई भौगोलिक लकीरों से परिभाषित नहीं होता। अवाम का चरित्र और विचार प्रक्रिया ही देश को परिभाषित करती है। चरित्र किसी पाठशाला में नहीं गढ़ा जाता। परिवार ही मनुष्य की पहली पाठशाला होता है। परिवार के सदस्य भीड़ सा आचरण करने लगे तो सामने आती है एक ध्वस्त पाठशाला। भीड़तंत्र का हिस्सा बने आम आदमी से अधिक आशा नहीं की जा सकती। चार्ली चैपलिन से लेकर राज कपूर, ऋषिकेश मुखर्जी और राजकुमार हिरानी तक यह धारा सतत बहती रही है, परंतु आज का सिनेमा स्पेशल इफेक्ट का प्रयोग करते हुए आम आदमी से दूर चला गया है। हम उसकी वापसी की आशा करते हैं।