'मेरी आवाज, मेरी पहचान' : राग भैरवी है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :28 मार्च 2016
एंड टीवी पर सीरियल 'मेरी आवाज, मेरी पहचान है,' दिखाया जा रहा है। स्पष्ट नज़र आता है कि इसकी प्रेरणा लता मंगेशकर और आशा भोसले के जीवन से ली गई है। खालिद मोहम्मद की एक फिल्म में भी यह प्रयास किया गया था परंतु वह सतही था। यह प्रयास गंभीर है और इसमें गुजरे दौर के महाराष्ट्र अंचल के एक कस्बे का वातावरण, मैट्स इत्यादि सभी कुछ विश्वसनीय है और यह छोटे परदे पर प्रस्तुत क्लासिक का दर्जा रखता है। इसके सारे कलाकारों ने इतना सजीव व जीवंत अभिनय किया है कि एपिसोड के प्रदर्शन के बाद आपको वर्तमान में आने में समय लगता है। मंुह से बरबस मराठी भाषा के शब्द निकलने लगते हैं। महिलाओं की वेशभूषा देखकर लगता है कि नौ गजी लुगड़े (साड़ी) से अधिक रोमांचक कोई वेशभूषा नहीं हो सकती, यह सबकुछ ढांककर भी भीतर के रहस्य को उजागर करता-सा महसूस होता है और आपको देखे और अनदेखे का सूक्ष्म अंतर भी समझ में आ जाता है। काश्ट वाली 9 गजी साड़ी विलक्षण है। हमारे कालखंड की यह विशेषता है कि अगर कोई फैशन विशेषज्ञ इसे खूब प्रचार के साथ प्रस्तुत करे तो ये नौ गजी साड़ी सारे महानगरों की आधुनिक महिलाएं पहनने लगेंगी। यह दुष्कर्म विरोधी भी साबित हो सकती है।
पूरा सीरियल उसी तन्मयता व लगन से प्रस्तुत किया गया है, जिससे महाकाव्य गढ़े जाते हैं। इसका पार्श्व संगीत दर्शक को सारी भौगोलिक सीमाएं तोड़कर बाहर और भीतर की खोज यात्रा पर ले जाता है। यह दर्शक के अवचेतन को मथकर रख देता है। पार्श्व संगीत में 'बोल' का प्रयोग सही समय पर किया गया है। गायिकाओं की कथा है, अत: संगीत पक्ष साधन नहीं रहकर साध्य बन जाता है। इस सीरियल के प्रस्तुतीकरण से जुड़े सभी लोग गुणवंत हैं परंतु कोई क्रेडिट टाइटल नहीं होने से हम उनके नाम नहीं जानते परंतु ये लोग 21 तोपों की सलामी के हकदार हैं। इसमें प्रस्तुत परिवार की एक बालिका स्कूल में नृत्य प्रस्तुत करती है और प्रशंसा के अहंकार के साथ अपनी मोटी और वृद्ध दादी को सुनाती है। दादी एक तोड़ा प्रस्तुत करके अपनी पोती को अहंकार से मुक्त करती है। इस तरह के छोटे मार्मिक दृश्यों से सजा सीरियल हमारी आंचलिक सांस्कृतिक परंपरा और समृद्धि से हमें चौंका देता है और वर्तमान का खोखलापन और अधिक गहरा हो जाता है। इतनी समृद्ध संस्कृति को हमने कहां खो दिया? गरिमामय भूतकाल और भयावह भविष्य के दो पाटों के बीच हमारा वर्तमान पिस रहा है परंतु इस सीरियल की तरह किसी तिनके को पकड़कर वैतरणी पार करने की संभावना अभी बाकी है।
परिवार का कर्ता एक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है, जिसकी सफलता उसके लिए अवसरों का स्वर्ण द्वार खोल देगा परंतु लोभी महाजन के चमचे तमाम दर्शकों को एक मसाला फिल्म के मुफ्त प्रदर्शन से मोह लेते हैं और खाली प्रदर्शन स्थल के कारण पूंजी निवेशक प्रतिभा को पहचान नहीं पाता। अप्रत्यक्ष संकेत यह है कि सिनेमा के प्रादुर्भाव ने अनेक पुरानी कलाओं को लील लिया। नाटक, तमाशा, कठपुतली, नौटंकी इत्यादि के पराभाव का कारण सिनेमा रहा है। इसी विषय पर 'किंग लियर' नामक फिल्म में अमिताभ बच्चन ने प्रभावोत्पादक भूमिका का निर्वाह किया था। सिनेमा 20वीं सदी के विज्ञान की कोख से जन्मा मनोरंजन का माध्यम है, जिसने अन्य माध्यमों को बहुत हानि पहुंचाई। कस्बे का युवा नाटक में अभिनय की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकता था, परंतु सिनेमा में प्रवेश लगभग असंभव-सा है और इस तथ्य ने अनेक कुंठाओं को जन्म दिया है। सिनेमा नामक बड़ी मछली सभी छोटी मछलियों को खा गई परंतु इसके साथ ही फूहड़पन का कला संसार में जबर्दस्त प्रवेश हुआ। आज भी कुछ अंचलों में नाटक को जिंदा रखने के लिए सिनेमाई फूहड़ता का सहारा लिया जाता है।
सीरियल 'मेरी आवाज मेरी पहचान ' इसलिए भी विशेष बन जाता है कि उसमें नाटक एवं लोक-कलाओं की मासूमियत जस की तस कायम है और चहुंओर छाई क्रूरता से हमें निजात दिलाने की क्षीण-सी आशा बंध जाती है और वह इस सांस्कृतिक मरुभूमि में एकमात्र मृगतृष्णा है। सीरियल में प्रस्तुत अबोध कन्याओं के पिता की भूमिका करने वाला व्यक्ति किसी भी सिनेमा सितारे से अधिक दिलकश है। गरीबी किस तरह अबोध बालिकाओं से उनका बचपन छीनकर उन्हें जल्दी वयस्क बनने की अोर ले जा रहा है, इसका प्रस्ततीकरण मनोविज्ञान के डॉक्टर की तरह सीरियल में किया गया है। रिश्तों में आई दरार आंसुओं से नहीं पाटी जा सकती और सामाजिक बिखराव व विरासत में मिली टिके रहने की क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन है, इस महान सीरियल में। केंद्रीय पात्र पल्लवी जोशी ने निभाया है, जिसने 'मृगनयनी' से अपनी अभिनय यात्रा प्रारंभ की थी और अब वह अभिनय में मंज गई है। यह सीरियल पल्लवी जोशी का मदर इंडिया सिद्ध हो सकता है।