'मैरी कॉम' प्रियंका चोपड़ा की 'मदर इंडिया'

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'मैरी कॉम' प्रियंका चोपड़ा की 'मदर इंडिया'
प्रकाशन तिथि : 06 सितम्बर 2014


'मैरी कॉम' प्रियंका चोपड़ा की 'मदर इंडिया' है आैर लगभग साठ वर्ष पूर्व बनी मेहबूब खान की 'मदर इंडिया' के दौर के भारत आैर आज के दौर के भारत के अंतर को बड़े मार्मिक रूप से रेखांकित करते हुए यह समाजशास्त्री आैर अर्थशास्त्री के सामने एक चुनौती की तरह प्रस्तुत होती है। 'मदर इंडिया' की कहानी सूदखोर महाजन के शिकंजे में जकड़े किसानों की व्यथा-कथा थी, साथ ही धरती से उनके प्यार की कहानी भी थी। इतने वर्ष बाद भी किसान कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहे हैं आैर केवल सूदखोर महाजन का चेहरा बदला है। आर्थिक उदारवाद के बाद खेतों की जगह कारखाने आैर 'स्मार्ट सिटी' बसाने वाली व्यवस्था इतनी निर्मम है कि मुर्दा किसान के अंगूठे की छाप कागजों पर लगाकर पेड़ों की जगह सीमेंट की इमारतें खड़ी कर रही है। अगर 'मदर इंडिया' या उसी दौर के किशन चोपड़ा की 'हीरा मोती' जो मुंशी प्रेमचंद की "दो बैलों की कथा' से प्रेरित थी, में किसान परिवार के मवेशी के मर जाने पर स्वयं इंसान के हल में जुतने या गिरवी बैलों को छुड़ाने के संघर्ष की बात थी तो मैरी कॉम 45 सेकंड तक पेशेवर पहलवान से पिटकर नौ सौ रुपए कमाती है आैर अपने परिवार के मवेशी को छुड़ाकर घर लाती है।

प्रियंका राष्ट्रीय पुरस्कार की हकदार है 'मदर इंडिया' में नायिका अपने बीमार बच्चे के लिए धरती का सीना फाड़कर अनाज खोजने का प्रयास करती है, भूखे बच्चों की मां का सीना तो ऐसे ही फट जाता है। मैरी कॉम फायनल पूर्व अपने नन्हें बच्चे की हृदय शल्य चिकित्सा की बात फोन पर सुनती है तो बंटे हुए ध्यान के कारण वह पिटती रहती है आैर उसके पिटने को निर्देशक इंटरकट करके शल्य चिकित्सा का दृश्य दिखाता है। वह धरती पर धराशायी पड़ी है आैर उधर ऑपरेशन टेबल पर बच्चे की सांस रुक जाती है। उसकी जर्मन प्रतिद्वंदी कुछ इस आशय की बात बुदबुदाती है कि मां होकर बॉक्सिंग करने चली आैर इस अस्पष्ट ध्वनि की डोर थामकर वह अचेत हो जाने से बचकर उठ खड़ी होती है तथा सारे जीवन संघर्ष की यातना आैर अपने मृत्यु से संघर्षरत नन्हें शिशु के लिए प्रार्थना को जोड़कर प्रतिद्वंदी पर कहर की तरह बरपा होती है। फिल्म के पिछले अंश मेंं कोच उसे अपनी चादर उठाकर कहता है कि अब दो बच्चों की मां हो आैर दोगुनी ताकत तुम्हारे भीतर गई है। यह सब मिथ्या धारणाएं हैं कि जन्म देने पर नारी की शक्ति घट जाती है, दरअसल मां होने के बाद नारी पहले से अधिक शक्तिशाली हो जाती है। बहरहाल अपने जर्मन प्रतिद्वंदी को वह पराजित करती है आैर उधर उसके मृत प्राय: शिशु में प्राण लौट आते हैं। इस क्लाइमैक्स के दृश्य का संपादन उतना ही कलात्मक है जितना ऋषिकेश मुखर्जी के 'आनंद' में मृत्यु के बाद टेप रिकॉर्डर पर उसकी ध्वनि गूंजती है, "बाबू मोशाय जीवन के रंगमंच पर हम सब कठपुतलियां अपने पार्ट अदाकर प्रक्षेप कर जाते हैं।' इस तरह की सारी बातें आैर आख्यानों में हजार बार दोहराई बातें कि मनुष्य मात्र कठपुतली है, ने हमारे सामूहिक अवचेतन में एक कमतरी का भाव भर दिया है आैर हमें जीवन की शतरंज का निष्प्राण मोहरा बना दिया है परंतु मदर इंडिया की नायिका, 'कहानी' की नायिका आैर 'मर्दानी' की नायिका अपने काम से स्वयं अपनी तकदीर बनाती हैं। कल्पना करे कि कोई हाथ मोहरे को नहीं चला रहा है आैर मोहरे खुद चलने लगे तो जीवन की शतरंज कैसी होगी।

बहरहाल इस फिल्म में स्पष्ट कहा गया है कि इंफाल आैर मणिपुर के साथ भेदभाव होता है। याद कीजिए दिल्ली में उत्तर पश्चिम से आए विद्यार्थियों के साथ अन्याय आैर उनकी हत्याएं। क्षेत्रवाद के जहर पर प्रकाश डालते हुए फिल्म, राष्ट्रीय एकता की बात करती है। इस फिल्म में खेल संगठन में बैठे नीच व्यक्तियों का भी पर्दाफाश किया गया है। सच तो यह है कि व्यवस्थाओं के अड़ंगों के बावजूद देश आगे बढ़ रहा है। उसकी स्वाभाविक ऊर्जा के खिलाफ सदियों से कितने षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। बहरहाल यह उसी तरह मात्र बॉक्सिंग की फिल्म नहीं है जैसे 'लगान' क्रिकेट की फिल्म नहीं है। यह मानवीय रिश्तों आैर गहन संवेदनाआें की फिल्म है। इसमें पिता-पुत्री, पति पत्नी, कोच-शार्गिद इत्यादि के रेशों से बुनावट की गई है। यहां तक कि बॉक्सिंग का पंच भी संचित यातना की अभिव्यक्ति है। आम आदमी प्राय: पंचिंग बैग पर ही प्रहार करता रहता है आैर यथार्थ के रिंग में नहीं जाना चाहता। कुछ चाटुखो सारा जीवन पंचिंग बैग बने रहते हैं। हर क्षेत्र में हमने आम आदमी को पंचिंग बैग बना दिया है। यह संभव है कि भविष्य में केवल मदर इंडिया में खेत आैर किसान देखना ही संभव रह जाए क्योंकि कृषि प्रधान भारत स्मार्ट सिटी की श्रृंखला में बदलने जा रहा है।