'यही तुम थे' : स्मृतिविन्यस्त प्रयोगधर्मी नायाब किताब / रवि रंजन
नहीं करने का मैं तक़रीर, अदब से बाहर
मैं भी हूँ वाक़िफ़-ए-अस्रार,कहूँ या न कहूँ।
-- मिर्ज़ा ग़ालिब
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ ...
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ...
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा।
--वीरेन डंगवाल
“उद्दंडता और अहंकार नहीं, आत्म-निर्ममता का साहस और शालीनता एक बड़े रचनाकार की पहचान है। ” -- पंकज चतुर्वेदी: ‘यही तुम थे’,पृष्ठ.112
वीरेन डंगवाल हिन्दी के उन कृती कवियों में एक हैं जिनके शब्द और कर्म के बीच कोई फाँक नहीं है ।उनका जीवन पारदर्शी था और कवि-कर्म जनपक्षधर। कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने उनको याद करते हुए लिखा है कि अज्ञेयता और रहस्यवाद के लिए न उनकी ज़िन्दगी में जगह थी, न कविता में।
वस्तुत: कवि वीरेन की जीवन-शैली और उनका शब्द-कर्म एक हद तक फणीश्वरनाथ रेणु की आभिजात्य जीवन-शैली के बावजूद सदियों से समाज के दबे-कुचले लोगों के पक्षधर रचनाकर्म की याद ताज़ा कर देता है। कई वर्षों तक ‘जनसंस्कृति मंच’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहने तथा अनेक परिवर्तनकामी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैये के बावजूद ‘इसी दुनिया में’, ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’, और ‘स्याही ताल’ सरीखे अनोखे कविता-संग्रहों के रचयिता वीरेन डंगवाल क्रान्ति के ढिंढ़ोरची कवि नहीं हैं। अपने समय में व्याप्त निराशापूर्ण माहौल में मायूस हो जाने के बजाय सतत रचनारत रहते हुए वे हिन्दी पाठकों में आशा, उत्साह और जुझारू चेतना का संचार करते रहने वाले अग्रणी कवि हैं:
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछी सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे
आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे
इन काव्यपंक्तियों में निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ कविता की अनुगूंज स्पष्ट सुनाई पड़ती है.यह इस बात का भी प्रमाण है कि कवि की रचनाशीलता के तार पूर्ववर्ती रचनाकारों से गहराई के साथ जुड़े रहे हैं ।
हिन्दी कविता के गहरे अध्येता और वीरेन-काव्य के मर्मज्ञ आलोचक प्रोफ़ेसर पंकज चतुर्वेदी ने ‘वीरेन डंगवाल : प्रतिनिधि कविताएँ’ की भूमिका में ब्रेष्ट समेत कई बड़े कवियों की अनेकानेक काव्यपंक्तियों को उद्धृत करते हुए लिखा है कि वे “निराला, नागार्जुन, शमशेर और रघुवीर सहाय जैसे पूर्वज कवियों के अलावा मुक्तिबोध की परम्परा से बहुत गहरे जुड़े हुए कवि हैं और अपने पहले संग्रह की दूसरी कविता में ही 'अँधेरे में' सरीखी क्लासिक कविता में आनेवाले 'पागल के आत्मोद्बोधमय गान' की याद दिलाते हैं :
'किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया ?'
यह सवाल है, जो वह ज़िन्दगी भर करते रहे, अपने से और दूसरों से भी और यह भूल जाने की बात नहीं कि जवाब कमोबेश यही पाते रहे :
‘कुछ भी नहीं किया गया
थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा ’
इसलिए मुक्तिबोध की कविता के इस बेचैन आग्रह को भी यहाँ स्मरण कर लें, तो सार्थकता का एक चक्र पूरा होता है :
‘जितना भी किया गया
उससे ज़्यादा कर सकते थे।
ज़्यादा मर सकते थे।”
वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं के संकलन ‘कविता वीरेन’ की भूमिका में मंगलेश डबराल ने लिखा है कि “वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर नागार्जुन जैसे जनकवि का देसीपन और यथार्थवाद है तो दूसरे सिरे पर शमशेर जैसे ‘सौन्दर्य के कवि’ हैं और दोनों के बीच निराला की उपस्थिति है।...दरअसल पूर्वजों से लगातार संवाद करती वीरेन की कविता भाषा का भी एक नया देशकाल रचती है, जिसमें तत्सम-तद्भव आपस में घुले-मिले हैं और अक्सर तत्सम की जगह तद्भव है या इसका उलट है। उनके राजनीतिक-नैतिक सरोकार और ठेठ देशज अनुभव क्लासिक आयाम से जुड़कर एक संश्लिष्ट काव्य-व्यक्तित्व बनाते हैं।”
बहरहाल, यहाँ एक लम्बे समय तक कैंसर से पीड़ित कवि वीरेन डंगवाल के असामयिक निधन के पश्चात पंकज चतुर्वेदी द्वारा शिद्दत से उन्हें याद करते हुए रचित ‘यह तुम थे’ शीर्षक अनोखी कलाकृति विचारणीय है। मूलतः और मुख्यतः संस्मरणात्मक शिल्प में लिखे जाने के बावजूद यह केवल संस्मरण होने के बजाय दो कवियों के बीच एक विलक्षण संवाद है जो पाठक को आदि से अंत तक बांधे रखने में समर्थ है।
दूसरे शब्दों में, एक युवा कवि द्वारा अपने अग्रज कवि की अभ्यर्थना में रचित होने के बावजूद इस पुस्तक में कवि वीरेन और पंकज के बीच लोकतांत्रिक संवाद की लय मन मोह लेती है।
प्रलाप की हद तक एकालाप के हमारे विचित्र समय में यह रचना पाठक को भी संवाद में शामिल होने का आमंत्रण देती प्रतीत होती है।
इस ज्ञानवर्धक और रोचक कृति से गुजरते हुए कठोपनिषद का एक छंद याद आ रहा है जिस पर पड़े आधिभौतिक व आध्यात्मिक आवरण को अगर थोड़ी देर के लिए हटा दिया जाय तो मूल बात इसके वक्ता और श्रोता पर भी लागू होती प्रतीत होगी:
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥
('वह' (परतत्त्व) जिसका श्रवण भी बहुतों के लिए सुलभ नहीं है श्रवण करने वालों में से भी बहुत से लोग 'जिसे' जान नहीं पाते। 'उसका' ज्ञानपूर्वक कथन करने वाला व्यक्ति अथवा कुशलता से 'उसे' उपलब्ध करने वाला व्यक्ति होना एक आश्चर्यभरा चमत्कार है, तथा जब ऐसा कोई मिल जाये तो ऐसा श्रोता होना भी आश्चर्यपूर्ण है जो ज्ञानीजन से 'उसके' विषय में उपदेश ग्रहण करके भी 'ईश्वर' को जान सके।)
गरज़ कि ‘यही तुम थे’ में वक्ता कब श्रोता और श्रोता कब वक्ता बन जाता है,यह तन्मय होकर पुस्तक से गुज़रते हुए किसी पाठक द्वारा तत्काल बता पाना आसान नहीं है।वक्ता-श्रोता के साथ दुनिया के कई बड़े लेखकों की मार्मिक पँक्तियों के यथास्थान उल्लेख से रचना में जो 'अनेकस्वरता' पैदा हुई है उसे मिखाइल बख्तिन ने 'संवादधर्मी आलोचना' (डायलोगिक क्रिटिसिज़्म) के प्रसंग में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है।
इस रचना को पढ़ते हुए जहाँ एक ओर कवि वीरेन डंगवाल के व्यक्तित्व तथा उनके सर्जनात्मक मानस की संरचना का पता चलता है वहीं दूसरी ओर पंकज चतुर्वेदी द्वारा अध्यवसाय से अर्जित ज्ञान के साथ ही अनौपचारिक बातचीत में कवि-द्वय के अनुभवप्रसूत संवेदनात्मक ज्ञान-कोष की अनुभूति भी होती है।
लेखक का मानना है कि वीरेन डंगवाल से रोज़मर्रा की बातें करते हुए भी कला के कुछ सत्य जाने जा सकते थे।
उदाहरण के लिए मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र में बहुविध विवेचित अंतर्वस्तु और रूप (कंटेंट एंड फॉर्म) को लेकर दोनों कवियों में ‘सर’ सरीखे एक सामान्य शब्द-प्रयोग को लेकर सहमति नहीं बन पाती ।वीरेन जी के लिए पंकज ‘सर’ शब्द का इस्तेमाल केवल उसे फॉर्म समझकर करते थे, जबकि कवि वीरेन के अनुसार “ ‘सर’ अपने-आप में ‘कंटेंट’ है।”(पृष्ठ.27)
कहना यह है कि ‘सर’ सम्बोधन मानवीय संबंधों में बराबरी के भाव को अगर पूरी तरह नष्ट नहीं तो कुछ कम अवश्य कर देता है। लेखक के शब्दों में ‘रूप और अंतर्वस्तु ऐसे गुंथे हुए हैं कि इन्हें अलगाया नहीं जा सकता। रूप ही अंतर्वस्तु है और अंतर्वस्तु रूप।’ (पृष्ठ.27)
प्रसंगवश याद आ सकते है जार्ज लुकाच जिन्होंने ‘फॉर्म’ को ‘फ्रिज्ड कंटेंट’ कहा है।
इस सन्दर्भ को मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ते हुए पंकज लिखते हैं कि “पिछले पच्चीस बरसों में – पूँजीवाद की विश्व-विजय के चलते जैसे-जैसे बराबरी का सवाल पिछड़ता गया है, यह शब्द ‘सर’ अप्रत्याशित ढंग से लोकप्रिय हुआ है।” (यही तुम थे,पृ.27)
आम तौर पर उत्सवमूर्ति लेखकों के आसपास उनके अच्छे-बुरे प्रशंसकों और छोटे-मोटे विद्वानों की कमी नहीं रहती। किंतु, उनमें से बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जिनमें अनौपचारिक बातचीत को इस तरह पुनर्रचित कर सकने की सर्जनात्मक सलाहियत होती है।ज़्यादातर लोग लाभ-लोभ के व्याकरण से परिचालित होकर हँसी-ठिठोली करते हुए सामने वाले के अहं को सहलाकर छुट्टी पा लेते हैं।
विवेच्य पुस्तक में एक वरिष्ठ कवि के लिए ‘तुम’ सम्बोधन को लेकर टिप्पणी करते हुए पंकज चतुर्वेदी कहते हैं :
“कल एक दोस्त ने लिखा कि कवि वीरेन डंगवाल पर लिखी गई किताब 'यही तुम थे' में आपने उनके लिए 'तुम' क्यों लिखा, 'आप' क्यों नहीं और 'तुम' लिखकर ठीक नहीं किया।
मैं जवाब देने से बचना चाहता था, मगर यह केन्द्रीय प्रश्न है, इससे किनारा नहीं किया जा सकता।
दरअसल, 'आप' के बजाय 'तुम' ही उस साहित्यिक लोकतंत्र का वाहक है, जिसके आदर्श और प्रयोक्ता वीरेन डंगवाल थे। मैंने अपनी माँ को ज़िन्दगी में कभी 'आप' नहीं कहा, हमेशा 'तुम' ही कहा। एक बार कोशिश करके 'आप' कहा, तो बहुत अटपटा लगा। फिर दोबारा नहीं कहा।
पिताजी को कभी 'तुम' नहीं कहा, 'आप' ही संबोधित किया ; मगर पिताजी से दूरी है, माँ से क़तई नहीं।
वीरेन जी का मैं बहुत आत्मीय था, उनसे कोई दूरी नहीं थी। उनके न रहने पर दूरी रखता, तो उनसे न्याय न होता और उन पर लिखे गए गद्य में वह बात न पैदा होती, जो सुधी समालोचकों के अनुसार हुई है।
'आप' एक ख़ास अर्थ में बंधुत्व की राह में रोड़ा है। बग़ैर 'तुम' के, मानवीय मूल्यों के उस सौंदर्य का साक्षात्कार संभव नहीं, जिसके प्रतिनिधि वीरेन डंगवाल थे : अपनी कविता में और ज़िन्दगी में भी।
यह औपचारिकता नहीं, आत्मीयता की भाषा है। वीरेन डंगवाल जी को मैंने कभी 'तुम' नहीं, 'आप' ही कहा ; मगर शायद यह प्यार का तक़ाज़ा था, जिसने मुझसे 'तुम' लिखवा लिया। और कोई रास्ता न था। बक़ौल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ :
'दिल से तो हर मुआ'मला करके चले थे साफ़ हम
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई।'”
निराला की एक सुप्रसिद्ध कविता 'तुम और मैं' का शीर्षक उधार लेकर कहें तो ‘तुम’ में जो अपनत्व है,वह ‘आप’ में नहीं। हालांकि इस पुस्तक में लेखक ने अपने 'मैं' को बहुत गौण रखा है ताकि 'तुम' (कवि वीरेन डंगवाल) का व्यक्तित्व ज़्यादा से ज़्यादा उभर सके। अहमन्यता भरे इस युग में ऐसी विनम्रता काम्य है।
वस्तुत: विनम्रता एक मानवीय मूल्य है.बड़बोलापन के बजाय विनम्रता और लोगों को अपनी उपस्थिति का कम से कम एह्साह कराना रचनाकार होने के लिए मूलभूत अर्हता है।
मुक्तिबोध-काव्य के प्रेमी पंकज चतुर्वेदी के अवचेतन में 'दिमागी गुहान्धकार में ओरांग उटाँग' कविता की वह पंक्ति संभवत: रही होगी जिसमें कहा गया है कि ‘संस्कृति प्रभामय कक्ष’ में लोग जब भाषण देने के लिए खड़े होते हैं तो ‘सत्य के बहाने स्वयं को स्थापित करना’ चाहते हैं:
'स्वप्न के भीतर स्वप्न,
विचारधारा के भीतर और
एक अन्य...
क़रीने से सजे हुए संस्कृत...प्रभामय
अध्ययन-गृह में
बहस उठ खड़ी जब होती है--
विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
सुनता हूँ ध्यान से...
संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में
अदृश्य रूप से प्रवेश कर
चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!!
सोचता हूँ--विवाद में ग्रस्त कईं लोग
कईं तल
सत्य के बहाने
स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना।
अहं को, तथ्य के बहाने।'
‘यही तुम थे’ में स्थिति भिन्न ही नहीं,बल्कि विपरीत है। वजह यह कि इस पुस्तक के लेखक का मक़सद खुद के बजाय अपने वरिष्ठ कवि-मित्र के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनदेखे-अनजाने पहलुओं की बारीकियों से हिन्दी पाठकों को अवगत कराना है। एक उदाहरण मानीखेज़ है :
“तुमसे बहुत कुछ अर्जित किया जा सकता था,मगर तुममें गुरुडम नहीं था.तुम अपने बेलौस अंदाज से उसकी धज्जियाँ उड़ाते थे। मैं जब कभी रेलवे स्टेशन या कहीं और तुम्हें विदा करने जाता और तुम्हारा बैग पकड़ने की कोशिश करता,तुम कहते: ‘घटिया काम मत किया करो।’” (यही तुम थे,पृ.23)
मेरे ख्याल से यह हाल के वर्षों में किसी रचनाकार को याद करते हुए रचित बेहतरीन किताबों में एक है जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर कोई न कोई ऐसा अनुच्छेद या कम से कम एक वाक्य ज़रूर मिल जाता है जो न केवल पाठक के ज्ञान में इज़ाफ़ा करता है, बल्कि उसकी संवेदना को भी समृद्ध बनाता है।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए कभी-कभी यह जानकर ताज्जुब होता है कि कोई कवि इतना प्यारा दोस्त भी हो सकता है। वजह यह कि अक्सर लोगों का व्यक्तित्व प्याज के अनेकानेक छिलके की तरह बहुस्तरीय होता है. हमारे समय में यह जटिलता बढ़ी है क्योंकि आज का मनुष्य कई बार वह होता नहीं है जो वह दिखाई दे रहा होता है।
कवि वीरेन को याद करते हुए पंकज चतुर्वेदी ने लिखा है: “तुम प्रगाढ़ मैत्रियों के क़ायल थे और उनमें कोई बंधन नहीं मानते थे।”(यही तुम थे,पृ.22)
अपनी एक कविता में इस गहरी दोस्ती को कवि पंकज ‘अद्वितीय साथ’ कहते हैं:
तुम विलक्षण थे
मगर विलक्षण कहे जाने से
नाराज़ होते थे
एक बार तुमने कहा:
जैसे सब लिखते हैं
वैसे मत लिखो
शायद तुम्हारा मंतव्य था:
प्रेम का मतलब
विशिष्टता से अपसरण नहीं है
अद्वितीय होना है
पर होना सबके साथ है (यही तुम थे, पृ.14)
इस अनोखी कविता के मुख्य स्वर ‘अद्वितीय होना है/पर होना सबके साथ है’ को कवि वीरेन डंगवाल का एक वक्तव्य भी पुष्ट करता है जिसका सन्दर्भ यह है कि वीरेन जी को इस बात का बोध था कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिए उन्हें लेखक संगठन के महत्त्व का अहसास था और वे ‘जनसंस्कृति मंच’ से गहराई के साथ जुड़े हुए भी थे । बावजूद इसके कवि के रूप में केवल किसी संगठन-विशेष तक महदूद रहना उनकी फ़ितरत नहीं थी। इस सन्दर्भ में पंकज ने लिखा है: “एक बार किसी साहित्यिक ने मुझसे तुम्हारी बाबत कहा कि तुम अपने लेखक संगठन के सबसे बड़े कवि हो।
मैंने—जाँचने के लिए कि देखें, तुम्हें तारीफ़ कैसी लगती है –यह बात तुमसे कही. तुम पर्याप्त नाराज़ हुए। तुमने कहा कि मैं संगठन में हूँ, संगठन का कवि नहीं हूँ।” (यही तुम थे,पृ.26)
इस स्मृति-शृंखला से गुज़रते हुए आरंभिक पृष्ठ पर ही इसकी रचना-प्रक्रिया का पता चल जाता है। कवि पंकज को जब ख़बर हुई कि हिन्दी के एक बड़े समाचार पत्र में बतौर सम्पादक कार्यरत वीरेन जी कानपुर छोड़कर जा रहे हैं,तो, उन्हें इतना गहरा धक्का लगा कि वीरेन जी के आवास पर वे फूट-फूट कर रो पड़े।लेखक के शब्दों में:
“मैं उस शहर में अकेला था. तुम्हारे जाने के बाद यह अकेलापन बढ़ना ही था। पता नहीं तुम यह जानते थे या नहीं,पर तुमने मुझसे यही कहा: ‘क्यों दुखी होते हो ? जीवन में एक –से-एक अच्छे लोग मिलेंगें।’ ऐसे लोग तो नहीं मिले, पर एक दिन सुबह-सुबह मुझे यह ख़बर मिली कि तुम इस दुनिया से चले गए। इस बार का दुःख इतना बड़ा था कि मैं रोया नहीं। एक बेचैनी मुझे मथती रही.अंतत: मैंने फ़ैसला किया कि मैं तुम्हारी स्मृतियों को लिखूँगा. तुमसे जो रौशनी मुझे मिली है,उसे आंसुओं में बह नहीं जाने दूंगा।” (यही तुम थे,पृष्ठ.17)
भवभूति के उत्तररामचरित में धीर-गंभीर राम के अन्दर छिपी वेदना को मुरला नदी ‘पुटपाक’ (एक सुदृढ़ पात्र) में रखी औषधि के सामान बताती हुई तमसा से कहती है कि उनकी व्यथा आवेग के ताप से मर्म को पिघलाती भीतर ही भीतर उबलती-फैलती है,पर बाहर नहीं आती:
अनिर्भिन्नो गभीरत्वादन्तर्गूढघनव्यथः।
पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रसः।।
याद रहे कि आयुर्वेद में कुछ ख़ास तरह की औषधियों को बनाने के क्रम में जब सुदृढ़ पात्र में औषधि की सामग्री रखकर ज़मीन में गाड़कर उसे गर्म किया जाता है तो सुदृढ़ता की वजह से वह बंद पात्र (‘पुटपाक’) नहीं टूटता,पर भीतर के ताप से औषधि की सामग्री पिघलकर द्रवीभूत हो जाती है।
गोस्वामी तुलसीदास की ‘लोचन जल रह लोचन कोना’ का स्मरण कराती हुई कवि पंकज की रचना-प्रक्रिया से अवगत होने पर मीर तक़ी मीर के एक शे’र की याद न आए,यह नामुमकिन है:
ज़िगर में ही यक क़तरा खूँ है सरिश्क
पलक तक गया तो तलातुम किया.
सच तो यह है कि ‘यही तुम थे’ पुस्तक अपने वरिष्ठ कवि-मित्र के असामयिक निधन के बाद लेखक के भीतर के इसी ‘तलातुम’ (बेचैनी या भावनात्मक तूफ़ान) की सर्जात्मक परिणति है।
आकस्मिक नहीं कि खुद कवि पंकज चतुर्वेदी के यहाँ ऐसी अनेक कविताएँ मिलती हैं जो आँसू के सर्जनात्मक उपयोग का साक्ष्य हैं:
आँसू में इनसान की
जो छवि नज़र आती है
सबसे पवित्र छवि है
वही न्याय है
अपनी एक अन्य कविता में वे कहते हैं:
‘दुख लिखा जाना चाहिए
समय बीतने पर वह
ढाढ़स में बदल जाता है’
हमारे समय के संभवत: सबसे बड़े पूर्णकालिक कवि और किंवदंती-पुरुष आलोकधन्वा से हुई लम्बी बातचीत के बाद उनको याद करते हुए कवि पंकज ने लिखा है :
‘जब मेरी बातें हुईं तुमसे
मैंने पाया
तुम दो ही चीज़ों से बने हो :
आँसू और रौशनी’
विवेच्य पुस्तक को पढ़ते हुए एक प्रसंग का ज़िक्र मिलता है जिससे लेखक और उनके वीरेन डंगवाल की अनुभूति की संरचना में कई मायने में समानता का पता चलता है।लेखक के शब्दों में “जब रघुवीर सहाय का निधन हुआ, तो उसी दौरान कुछ लोग एक कवि से मिलने उसके घर गए। उनमें एक आलोचक भी थे। उन्होंने यह प्रसंग मुझे कवि का उपहास करते हुए सुनाया कि वह अचानक यह कहकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे कि रघुवीर सहाय नहीं रहे।
मैंने यह बात तुम्हें बताई। तुमने कुछ अमर्ष से भरकर कहा: ‘इसका मज़ाक़ क्यों उड़ाना चाहिए? यह तो अच्छी बात है कि वह रोया।’(यही तुम थे,पृष्ठ.29)
प्रसंगवश रघुवीर सहाय की एक कविता का स्मरण स्वाभाविक है:
‘जो पढ़ता हूँ उस पर मैं नहीं रोता हूँ
बाहर किताब के जीवन से पाता हूँ
रोने का कारण मैं
पर किताब रोना संभव बनाती है।’
लेखक ने जिस तरह दिल की गहराई से कवि वीरेन डंगवाल को याद किया है, वह किसी भी संवेदनशील पाठक की आँखें नम कर देने के लिए काफ़ी है। साथ ही, इतनी संवेदनशील स्मृति साहित्यकारों के बीच परस्पर सम्बन्ध को लेकर प्रचलित 'किंवदंतियों' के मद्देनज़र कम अचरज का विषय नहीं है। कहने की ज़रूरत नहीं कि सिर्फ़ लेखक ही नहीं,बल्कि आम लोगों और ख़ास तौर से पढे-लिखे लोगों के बीच भी कमोबेश ऐसी ही आत्मीयता काम्य है:
अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं
इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख !
--इक़बाल
वैदिक साहित्य में चंद्रमा को मन से उत्पन्न माना गया है: 'चंद्रमा मनसो जात:।' उसे मनोभव का अभिन्न मित्र और अंतर्जगत के समस्त सौंदर्य तथा जीवन के नि:शेष अमृतत्व का प्रतीक भी माना जाता है।चंद्रमा को ‘क्षयी’ भी कहा गया है, जो संभवतः मानव मन की क्षीणता को ही प्रतिबिंबित करता है।
‘यही तुम थे’ पुस्तक में लम्बे समय से रुग्ण वीरेन डंगवाल के सन्दर्भ में एक सौंदर्यबोधात्मक मार्मिक बिम्ब मिलता है जो पाठक का सीना चाक कर देने में समर्थ है:
“कैंसर के लगातार इलाज और दोहरे-तिहरे ऑपरेशन के चलते अंत में तुम्हारा चेहरा ग्रहण-लगे, कटे-फटे, झुलसे, क्षयुष्णु चन्द्रमा जैसा रह गया था।
एक दिन मैं सहम गया, जब तुमने मुझे पान खाने से रोकते हुए कहा: ‘बहुत इच्छा हुआ करे, तो मेरे चेहरे को देख लिया करो !’ ” (यही तुम थे,पृष्ठ.174)
ऊपर उधृत पंक्तियों से गुजरते हुए अम्बर्तो इको के एक मंतव्य की याद आती है। उन्होंने लिखा है कि “अरस्तू के बाद से यह सभी कालखंडों में स्वीकार किया गया है कि जीवन में कुरूपता को भी खूबसूरती से चित्रित किया जा सकता है, और यह वास्तव में सुंदरता को खड़ा करने या एक निश्चित नैतिक सिद्धांत का समर्थन करने का काम करता है।”
कवि पंकज ने वीरेन डंगवाल के मुखमंडल का जो चित्र उकेरा है उसकी पृष्ठभूमि में वह नैतिक दृष्टि मौजूद है जो क्षीण हो गए सौन्दर्य को देखते हुए किसी जुनून से परिचालित होने के बजाय उसे वैराग्य- भाव से देखती है। कहना न होगा कि राग के चरम उत्कर्ष पर पहुँचने के बाद ही किसी संवेदनशील मनुष्य के भीतर ऐसा वैराग्य पैदा होता है।
स्वयं पंकज चतुर्वेदी के रचना-कर्म में चन्द्रमा अनेक सन्दर्भों में रूपायित हुआ है। ‘आकाश में अर्द्धचन्द्र’ उनका हाल में प्रकाशित कविता-संग्रह है.
‘ईद के चाँद’ कविता में वे लिखते हैं:
इक तुम्हारे दीदार पर
मुनहसिर है मेरा जश्न
तुम जो इस क़ायनात का
नूर हो
आसमाँ में भी
ज़मीं पर भी
उनका मानना है कि “नाखुश बने रहना गम्भीरता की निशानी नहीं और जो प्रसन्न नहीं हो सकता, वह संघर्ष जारी रख नहीं सकता.” विवेच्य पुस्तक में सहज हास्य और विनोदवृत्ति के कुछ जबरदस्त उदाहरण मौजूद हैं जिनसे गुज़रते हुए प्रेमचन्द याद आते हैं, जिन्होंने साहित्य-सृजन को केवल जीवन-संग्राम तक महदूद कर देने वालों की बखिया उधेड़ते हुए लिखा है कि ‘इस जीवन संग्राम का सबसे बुरा असर यह हुआ है कि हमारा अदब अब मर्सिया हुआ जाता है।‘
वीरेन डंगवाल भी इस पुस्तक में रचनाकारों को ‘टुकड़खोरों की जमात में कभी शामिल न होने’ के साथ ही एक और नसीहत देते हुए उद्धृत किए गए हैं कि ‘आक्रोश को अपना यू.एस.पी. नहीं बनाना चाहिए.’(यही तुम थे, पृष्ठ.50)
कवि पंकज ने कभी वीरेन डंगवाल के घर पर ठहरे त्रिलोचन के हवाले से एक दिलचस्प वाक़िया बयान किया है:
“एक बार मशहूर कवि त्रिलोचन तुम्हारे यहाँ ठहरे हुए थे. मैंने उनसे केदारनाथ सिंह की कविता में सौन्दर्य के ‘ऑब्सेशन’ – यानी हर चीज़ को सुन्दर बना देने के उनके रुझान की बाबत कुछ कहा।
वह बोले: ‘उन्हें दोबारा पढ़ो !’
तुमने उनसे कहा : ‘दोबारा भी वह पढ़ लेगा,मगर अभी जो कह रहा है,उस पर आपकी राय क्या है ?’
त्रिलोचन थोड़ी देर चुप रहे. फिर मुस्कुराकर बोले : ‘वैसे एक बात मैं बताऊँ !
केदार के यहाँ टमाटर बेचनेवाली जो बुढ़िया है, उसके भी गाल लाल हैं !’ (यही तुम थे, पृष्ठ.100)
पंकज स्वयं भी कृती कवि हैं और अब तक उनके चार कविता संग्रह (‘एक सम्पूर्णता के लिए’, ‘एक ही चेहरा’, ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’ तथा ‘आकाश में अर्द्धचन्द्र’) के साथ ही ‘आत्मकथा की संस्कृति’, ‘निराशा में भी सामर्थ्य’, ‘जीने का उदात्त आशय’ प्रभृति महत्त्वपूर्ण आलोचना ग्रन्थ प्रकाशित हैं। ‘यही तुम थे’ के साथ ‘वीरेन डंगवाल: प्रतिनिधि कविताएँ’ की भूमिका के तौर पर लिखित ‘वीरेनियत का मतलब’ शीर्षक सम्पादकीय आलेख से गुजरने पर पाठकीय अभिग्रहण का वृत्त पूरा हो जाता है ।
केदारनाथ सिंह कहा करते थे कि रचना में रचनाकार के प्रयास का पसीना नहीं दिखाई देना चाहिए। वे सायास रची गयी कृतियों के मुकाबले सहज लेखन को महत्त्वपूर्ण मानते थे। कीट्स ने तो स्पष्ट कहा है कि ‘यदि कविता पेड़ में उगने वाले पत्ते की तरह स्वाभाविक रूप में नहीं रची जाती तो उसका बिल्कुल न लिखा जाना ही बेहतर है।’ (‘If poetry comes not as naturally as the leaves to a tree it had better not come at all.’)
संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, डायरी आदि में कई बार कथित तौर पर झूठ को सच में मिलाकर घुलावटी रसायन तैयार किए जाने वाले हमारे समय में ‘यही तुम थे’ पुस्तक सहज एवं स्वाभाविक सृजन के साथ ही सुलिखित, रोचक और पठनीय गद्य का एक बेहतर नमूना है। आदि से अंत तक गद्यकविता की तरलता लिए इस स्मृतिविन्यस्त प्रयोगधर्मी नायाब क़िताब के लिए हिन्दी साहित्य के पाठकों की ओर से कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी को साधुवाद एवं उनकी भावी सृजन-यात्रा के लिए शुभकामनाएँ।
(पंकज चतुर्वेदी: ‘यही तुम थे’, 2022, राजकमल पेपरबैक्स, पृष्ठ.191, मूल्य:250 रूपये)