'रश्मिरथी' की लोकप्रियता का समाजशास्त्र / रवि रंजन

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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भारतीय स्वाधीनता संग्राम एवं हिन्दी नवजागरण की उपज होने के साथ ही इनसे जुड़े मूल्यों का विकास करनेवाले कवि-आलोचक हैं. वे अपने युगानुरूप नयी संस्कृति के निर्माता कवि तथा भारतीय संस्कृति की मीमांसा करने वाले विचारक भी हैं. उनकी अधिकांश कविताएं स्वाधीनता संग्राम के दौरान घटित व्यापक सामाजिक-राजनीतिक आलोड़न की उपज हैं. चूँकि अंग्रेज़ी राज से भारत की आज़ादी के लिए जो आन्दोलन चलाया जा रहा था उसका चरित्र साम्राज्यवाद-विरोधी होने के साथ ही सामंतवाद-विरोधी भी था, इसलिए 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के बावजूद सामंती-पुरोहिती गठजोड़ के तहत भारत में हज़ारों साल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था के नाम पर समाज के एक बड़े उत्पादक तबके को जन्म के आधार पर जीवन की न्यूनतम सुविधाओं एवं सामाजिक सम्मान से वंचित रखने की प्रतिगामी प्रवृत्ति के विरुद्ध जंग खत्म नहीं हुई.

कहने की ज़रूरत नहीं कि सामंतवाद की कोख से उत्पन्न धार्मिक-सामाजिक विकृतियों के खिलाफ भारतीय नवजागरण के अनेकानेक पुरोधाओं ने जो आवाज़ उठाई थी उनका स्वर विद्रोही और समतावादी था. समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े भारतीय स्त्री-पुरुष को आर्थिक एवं सामाजिक न्याय दिलाने, उसे शिक्षित और सुसंस्कृत करने के लिए विवेकानंद, राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, वीरेशलिंगम पंतलु, भारतेंदु, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु सरीखे समाज सुधारकों एवं लेखकों ने जो बिगुल फूँका था उसकी प्रतिध्वनि गाँधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद, पेरियार, लोहिया,आंबेडकर सरीखे बड़े राजनेताओं के व्याख्यानों और लेखन में सुनाई पड़ती रही. स्वातंत्र्यपूर्व तथा स्वातंत्र्योत्तर भारत में ऊँच-नीच की जड़ खोदने के इन महापुरुषों के भागीरथ प्रयास के साथ ही विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों और अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा चलाये जानेवाले सामाजिक समानता के आन्दोलन का जिन प्रमुख भारतीय साहित्यकारों ने अपनी कालजयी कलाकृतियों के माध्यम से मुखर समर्थन किया उनमें दिनकर और उनका कथाकाव्य ‘रश्मिरथी’(1952) उल्लेखनीय है.

‘रश्मिरथी’ के प्रथम पृष्ठ पर कवि ने महाभारत के एक सुप्रसिद्ध श्लोक का उल्लेख किया है, जिसमें मनुष्य को जन्मना श्रेष्ठ मानने के बजाय महाभारतकार ने कर्ण के माध्यम से पौरुष या गुण के आधार पर मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है:

सूतो वा सूतपुत्रो वा ये वा को वा भवाम्यहम
दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तं तु पौरुषम

(मैं चाहे सूत हूँ या सूतपुत्र अथवा कोई और किसी कुल-विशेष में जन्म लेना तो दैव के अधीन है, लेकिन मेरे पास जो पौरुष है उसे मैंने अर्जित किया है.)

दिनकर जी ने ‘रश्मिरथी’ की भूमिका इस कृति को रचने के कारणों का खुलासा करते हुए स्पष्ट लिखा है: “इस काव्य का आरम्भ मैंने 16 फरवरी 1950 को किया था. उस समय मुझे केवल इतना ही पता था कि प्रयाग के यशस्वी साहित्यकार पं. लक्ष्मीनारायण जी मिश्र कर्ण पर एक महाकाव्य की रचना कर रहे हैं. किन्तु, ‘रश्मिरथी’ के पूरा होते-होते कर्णचरित पर कई नूतन काव्य निकल गए. यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है. अतएव, यह बहुत स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान उस चरित की ओर जाय जो हज़ारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर सामने खड़ा है.... कर्ण-चरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है. कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है. आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता है, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है. इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है, वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे. कर्ण-चरित का उद्धार, एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है और मुझे संतोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं, अपने सुयोग्य सहधर्मियों के साथ हूँ.” ‘रश्मिरथी’ में भी कवि ने कर्ण के मुख से कहलवाया है:

मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे;
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिए उमंग जिन्हें चिरकाल कलपना होगा.

इस कृति की भूमिका में कवि ने मैथिलीशरण गुप्त को याद करते हुए कथा-काव्य के महत्त्व और उसकी रचना में आनेवाली दुश्वारियों को रेखांकित किया है. दिनकर का कहना है कि जिन देशों की रचनाशीलता से उनके जमाने के बहुत सारे हिन्दी कवि प्रेरित हैं वहाँ कथा-काव्य, प्रबंध-काव्य आदि की जगह उपन्यास ने ले ली है.

याद आते हैं जार्ज लुकाच, जिनका कहना है कि सामंती समाज की सामूहिकता के नष्ट हो जाने के बाद जो समाज अस्तित्व में आया है वह व्यक्ति-चेतना सम्पन्न है और उसके सामूहिक अवचेतन की अभिव्यक्ति प्रबंध-काव्य के बजाय उपन्यास के माध्यम से बेहतर ढंग से हो सकती है. एक साहित्य-विधा के तौर पर महाकाव्य के स्वभाव को बच्चे की तरह सरल और उपन्यास को जटिल बताते हुए लुकाच ने ‘उपन्यास का सिद्धांत’ पुस्तक में ‘रूपों के इतिहास दर्शन की समस्याएँ’ अध्याय के अंतर्गत विस्तार से बतलाया है कि कैसे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के फलस्वरूप मानवीय सम्बन्ध में बदलाव की वजह से उपन्यास कालान्तर में महाकाव्य का स्थानापन्न हो गया.

दिनकर की साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं सामाजिक आलोचना इस बात का गवाह है कि ‘रश्मिरथी’ के कवि की नज़र पूरी दुनिया सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश पर थी, पर वे अपने देश की साहित्य-परम्परा और भारतीय समाज में साहित्य के अभिग्रहण की प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ करके केवल पश्चिम की नकल पर कथा-काव्य के सृजन को बिलकुल स्थगित करने के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने लिखा है: “परम्परा केवल मुख्य वही नहीं है जिसकी रचना बाहर हो रही है, कुछ वह भी प्रधान है जो हमें अपने पुरखों से विरासत के रूप में मिली है,जो निखिल भूमंडल के साहित्य के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है और जिसके भीतर से हम अपने ह्रदय को अपनी जाति के ह्रदय के साथ आसानी से मिला सकते हैं.”

इसके बाद अपने समय के रचनाकारों द्वारा कथा-काव्य न लिखने के कारणों का खुलासा और उसके परिणाम का उल्लेख करते हुए उनका कहना है कि “कलाकारों की रूचि जो कथा-काव्य की ओर नहीं जा रही है, उसका भी कारण है और वह यह कि विशिष्टीकरण की प्रक्रिया में महीन होते-होते कविता केवल चित्र-चिंतन और विरल संगीत के धरातल पर जा अटकी है और जहाँ भी स्थूलता एवं वर्णन के संकट में फँसने का भय है,उस ओर कवि-कल्पना जाना नहीं चाहती. लेकिन, स्थूलता और वर्णन के संकट का मुकाबिला किये बिना कथा-काव्य लिखने वाले का काम नहीं चल सकता. कथा कहने में, अक्सर, ऐसी परिस्थितियाँ आकर मौजूद हो जाती हैं जिनका वर्णन करना तो ज़रूरी होता है, मगर, वर्णन काव्यात्माकता में व्याघात डाले बिना निभ नहीं सकता.रामचरितमानस, साकेत और कामायनी के कमज़ोर स्थल इस बात के प्रमाण हैं.”

दिलचस्प है दिनकर जी ने कवित्व का उत्कर्ष रचने को दायें हाथ का और आख्यान के निर्वाह के लिए वर्णन-चित्रण आदि करने को बाएं हाथ का काम बताते हुए लिखा है कि ‘रश्मिरथी’ की रचना का आरंभ बाए हाथ से हुआ है और आवश्यकतानुसार अनेक बार कलम बाएँ से दाहिने और दाहिने से बाएँ हाथ में आती-जाती रही है. इस क्रम में रचनाकार की मुश्किलों की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि “कथा-काव्य की रचना,आदि से अंत तक, केवल दाहिने हाथ के भरोसे नहीं की जा सकती. जब मन ऊबने लगता है और प्रतिभा आगे बढ़ने से इनकार कर देती है तो हमारा उपेक्षित बायाँ हाथ हमारी सहायता को आगे बढ़ता है.” उन्होंने स्वीकार किया है कि इस क्रम में रचनाकार बेपर्द होने लगता है जिसे ढँकने के लिए उसे अनेक प्रकार के कौशलों से काम लेना पड़ता है.

‘रश्मिरथी’ की भूमिका में सहज ढंग से कवि ने जिन बातों का ज़िक्र किया है उनका सम्बन्ध कविता के सृजन से लेकर उसके अभिग्रहण तक की प्रक्रिया में पैदा होने वाली उन दुश्वारियों से भी है जिनकी चर्चा लोकप्रिय साहित्य के समाजशास्त्र के सन्दर्भ में की जाती है. विषयांतर का ख़तरा मोल लेते हुए कहना बहुत ज़रूरी है कि हमारे समय में हिन्दी कविता के अभिग्रहण और उसकी लोकप्रियता में आई भारी कमी के अनेक कारणों में एक महत्त्वपूर्ण कारण हिन्दी कवियों द्वारा पश्चिम की नकल और फैशन के तहत अपनी रचनात्मक ज़मीन से खुद बेदखल हो जाना है. याद रहे कि पन्त ने ‘पल्लव’ की भूमिका में कविता को ‘प्राणों का संगीत’ और छंद को ‘हृत्कम्पन’ कहा था. जिन निराला ने हिन्दी में मुक्त छंद का जमकर इस्तेमाल किया उनका छंदों पर पूरा अधिकार था और वे मुक्त छंद लिखने के पूर्व छंद में काफी-कुछ रच चुके थे. इसलिए उनके मुक्तछंद में भी काव्य की लय है जो पाठक से वाचन की कला की अपेक्षा रखती है. साहित्य जगत में अत्याधुनिक कहलाने की कवियों की महत्त्वाकांक्षा के तहत आख्यान-मुक्त और छंद-मुक्त कविता रचने की ज़िद के कारण हिन्दी कविता का दायरा लगातार सिमटता गया है और कुछेक अपवादों को छोड़कर लगातार ऐसी अनेक कविताएँ लिखी जा रही हैं जिनमें काव्य तो काव्य, गद्य की लय तक गायब है. नतीजतन, अब कवियों, कविता के चुनिन्दा आलोचकों और कुछ विद्याव्यसनी अध्यापकों एवं विद्यार्थियों को छोड़कर कविता संग्रह ज़्यादातर पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं. यदि हिन्दी कविता की मौजूदा स्थिति की तुलना हिन्दी की सगोतिया उर्दू कविता से की जाय तो स्थिति बिलकुल भिन्न नज़र आती है. अव्वल से उर्दू के कवियों ने ग़ज़ल और नज़्म की अपनी ज़मीन आज तक नहीं छोड़ी और जब वे आज़ाद नज्म भी लिखते हैं तो बोलचाल की भाषा की रवानी आज़ाद नज्म को जीवंत बनाए रखती है. हिन्दी कविता में ऐसे उदाहरण कम हैं. कुछ साहित्येतर कारणों को छोड़कर हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर आदि राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा के रचनाकारों को मिली अपार लोकप्रियता का एक बड़ा कारण अपनी साहित्य-परम्परा में गहरे धँसकर युगानुरूप कुछ नया रचने का उपक्रम है.

मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि “कविता सचमुच समाजशास्त्रीय आलोचना के लिए एक टेढ़ी खीर है.बड़ा से बड़ा साहित्यिक समाजशास्त्री भी कविता से मुठभेड़ से बचता है,क्योंकि ऐसी मुठभेड़ के दौरान कविता और समाजशास्त्रीय आलोचना में से कभी एक और कभी-कभी दोनों की दुर्गति होती दिखाई देती है.(‘साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि,पृ.240).

कहने की आवश्यकता नहीं कि मैथिलीशरण गुप्त या दिनकर सरीखे रचनाकारों और ख़ास तौर से ‘रश्मिरथी’ के समाजशास्त्रीय अध्ययन-विश्लेषण के बजाय कुछेक अपवादों को छोड़कर यह बात छायावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि के कवियों की अनेक कविताओं साथ ही प्रगतिशील कहे जाने वाले शमशेर और कलावादियों की कविता के सन्दर्भ में ज़्यादा सही है. वजह यह कि ‘रश्मिरथी’ जैसे कथा-काव्य में भाषा अपने सर्जनात्मक उत्कर्ष पर जहाँ पहुँचती है वहाँ भी अमूर्तन से काम नहीं लिया गया है. यह सही है कि मोटे तौर पर ओज एवं प्रसाद गुण वाली इस कृति के सृजन में प्रसंगोचित एवं पात्रोचित काव्यभाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है,पर इससे ज़्यादा वहाँ वाग्मिता (रेटोरिक) से भरपूर छंदों के संयोजन का सौन्दर्य है जिसे अरस्तू एवं लान्जायानस ने कविता की एक बड़ी खूबी माना है. कविता में वाग्मिता की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए अमेरिकी आलोचक जोनाथन कूलर ने लिखा है कि “Poetry is closely allied to rhetoric — the study of the persuasive and expressive resources of language. Poetry is language that makes abundant use of figures of speech and language. In literary theory, a poem is both a structure made of words (a text) and an event (an act of the poet, an ( भाषा के प्रेरक और अभिव्यंजक संसाधनों के अध्ययन के क्रम में हम कविता को वाग्मिता से आत्यन्तिक रूप से जुड़ा पाते हैं। कविता वह भाषा है जो भाषण और भाषा के आंकड़ों का प्रचुर उपयोग करती है। साहित्यिक सिद्धांत में, कविता एक ऐसी संरचना है जो शब्दों (पाठ) और एक घटना (कवि-कर्म, पाठक का एक अनुभव और साहित्येतिहास की एक घटना) दोनों का संयोजन होती है.)

कवि दिनकर और उनकी ‘रश्मिरथी’ के प्रसंग में यह बात बहुत दूर तक सही है.इस कृति से गुजरते हुए एक-एक करके जो चरित्र उभरते हैं वे महाभारत से भिन्न प्रकारांतर से केन्द्रीय पात्र कर्ण के शील को संवलित करते हैं और जो सुसम्बद्ध कथा प्राप्त होती है या परिवेश का जो प्रभावकारी चित्र मूर्तिमान होता है, वह सब संवाद बोलने वाले पात्र की वाग्मिता के बल पर संभव हो पाया है. इस काव्य-कृति के तमाम प्रमुख मार्मिक प्रसंगों का भाषिक विश्लेषण करने पर कथ्य का जो सौष्ठव उजागर होता है उसका भी वाग्मिता से गहरा रिश्ता है. यह बात दिनकर की ‘उर्वशी’ समेत तमाम रचनाओं में देखी जा सकती है. एक अर्थ में दिनकर एक संवादधर्मी कवि हैं.उनकी कविता में संवाद की लय है.

हिन्दी में आधुनिकतावाद के शलाका पुरुष अज्ञेय को दिनकर के कवि में नयी रचना-स्थिति की पहचान का अभाव खटकता रहा है, जो कि उनके अनुसार एक सफल कवि होने की बुनियादी शर्त है. अज्ञेय का यह भी कहना है कि दिनकर न केवल एक असफल कवि है,बल्कि पारिभाषिक अर्थ में एक अनाधुनिक कवि भी हैं. उनके अनुसार चूंकि कविता और उसके श्रोता के बीच पारम्परिक सम्बन्ध सूत्र विच्छिन्न हो चुका है और श्रोता का स्थान पाठक ने ले लिया है, इसलिए सुनने या सुनाने योग्य रचित कविता बदले हुए समय में उतनी प्रासंगिक नहीं रह गई है जितनी कि वह एक जमाने में हुआ करती थी. इसके अलावा चूँकि कविता अब केवल आस्वादन के बजाय आलोचनात्मक मूल्यांकन की दरकार रखती है और कविता रचने वाला कवि और कविता पढ़ने वाला पाठक, दोनों ही अकेला इस सांस्कृतिक प्रक्रिया में भागीदारी करता है, इसलिए इस परिवर्तित सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में दिनकर की कविता का अभिग्रहण पहले की तरह असंभव है.अज्ञेय का यह भी मानना है कि कविता में अंतर्पाठीयता (इंटरटेक्स्चुअलिटी) होती है, क्योंकि वह पहले की किसी अन्य कविता से निकलती है.

कहने की ज़रूरत नहीं कि दिनकर सरीखे कवियों की कविता समाजशास्त्रीय अर्थ में एक संस्था के रूप में ‘कवि-सम्मेलन’ का पतन या खात्मे के बावजूद एक बड़े पाठक समुदाय से प्रशंसित रही है. हिन्दी में आज भी ऐसे हजारों लोग मिल जाएंगे जिन्हें दिनकर की बहुत सारी कविताएँ याद हैं और यह कविता को सुनकर नहीं,पढ़कर संभव हुआ है. इसलिए अज्ञेय का यह कहना मुनासिब नहीं है कि आधुनिक युग में काव्य के प्रसंग में श्रोता की जगह पाठक के केन्द्रीय स्थान प्राप्त कर लेने की वजह से दिनकर की कविता अब प्रासंगिक नहीं रह गई है.

अज्ञेय की ‘कविता से कविता निकलने’ की बात भी अयुक्तियुक्त है. हिन्दी कविता के इतिहास में यह रीतिकाव्य को छोडकर और कहीं शायद ही लागू हो. सार्त्र ने लिखा है कि ‘लेखक को सृजन-क्षमता केवल ज्ञान या प्रतिभा नहीं,बल्कि उसके समाज से मिलती है.’ दुनिया की प्राय: वे ही कविताएँ मनुष्य के ह्रदय को स्पन्दित कर पाने में समर्थ देखी गई हैं जो जीवन-जगत के घात-प्रतिघात को प्रतिध्वनित करती हैं. इनमें भी वे कविताएँ ज़्यादा प्रभावकारी होती हैं जिनके रचनाकार खुद किसी परिवर्तनकामी आन्दोलन में भागीदार होते हैं.यह सच है कि अच्छे कवि के लिए केवल सिर्फ ‘एक्टिविस्ट’ होने के बजाय साहित्य परम्परा का सम्यक ज्ञान अत्यावश्यक होता है,पर इतिहास-बोध से विच्छिन्न और अपने समय-समाज की हलचलों से बेखबर केवल सुपठित कवि अच्छी कविता का सृजन करे,यह हरदम संभव नहीं हैं. अज्ञेय ने दिनकर के काव्य-गुणों की तारीफ़ करते हुए उन्हें एक सफल आधुनिक कवि के बजाय लोकप्रिय कवि माना है.

सवाल उठता है कि क्या लोकप्रियता आधुनिक कला को ऊँचे आसन से च्युत करने वाला तत्त्व है.सचाई यह है कि लोकप्रियता श्रेष्ठ कला का विरोधी नहीं,बल्कि एक अनिवार्य गुण है. हिन्दी में संत-भक्त कवियों की रचनाएँ इसका प्रमाण हैं. उनमें मनुष्य की मध्ययुगीन जन्मना श्रेष्ठता या द्विज श्रेठत्व जैसी मान्यता की जगह गुण के आधार पर मनुष्य के अच्छे-बुरे होने की जो पुरजोर वकालत की गई है वह प्रकारांतर से आधुनिकता का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है. इसके अलावा गहन अनुभूति और गंभीर चिंतन को लोक में प्रचलित सहज भाषा, अभिव्यक्ति-पद्धति एवं गायन-वादन की शैली में रच देने के कारण वह लोकप्रिय कला का भी बेहतर उदाहरण है.

दिनकर की भी तमन्ना थी कि वे रिल्के की संवेदना और चिंतन को तुलसीदास की शैली में रच सकें. छायावादियों की लिंग वक्रता, वचन वक्रता तथा प्रयोगवादियों की उहापोह उत्पन्न करने वाली अभिव्यक्ति से भिन्न ‘सच्चाई की पहचान की पानी साफ़ रहे’ को आदर्श मानने और भाषा की सफ़ाई पर बल देने के कारण उनकी कविता सामान्य पढ़ेलिखे लोगों तक भी आसानी से संप्रेषित हो जाती है. इसके अलावा वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, कालिदास, तुलसीदास,रवीन्द्रनाथ एवं इक़बाल की कविता तथा ख़ास तौर पर ‘रामचरितमानस’ से उनका गहरा लगाव था. इसीलिए उनकी कविता में मिथकीय चरित्रों की भरमार है, पर वे अपनी कविता में इन चरित्रों से जुड़े आख्यानों को दुहराने के बजाय इनको अपने समय की ज्वलंत समस्याओं से मुठभेड़ करते हुए दिखाते हैं. उदाहरण के लिए भारत में और खास तौर से हिन्दी क्षेत्र में जातिवाद एक बहुत बड़ी सामाजिक विकृति है और चुनावी राजनीति के कारण यह आज भी फल फूल रही है. ‘रश्मिरथी’ में जब कर्ण से उसकी जाति पूछी जाती है तो कवि ने कर्ण का उत्तर इन शब्दों में रचा है:

‘अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?'

'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछनेवाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।

एक सामाजिक विकृति के रूप में जातिवाद की समस्या की तह में जाकर ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में दिनकर ने डॉ.भीमराव आंबेडकर को उद्धृत करते हुए लिखा है: “धर्मशास्त्रों में जाति और वर्ण का प्रयोग समानार्थक है और उसका आधार बीज-क्षेत्र-विचार ही ठहरता है. डॉ.आंबेडकर ने शोधपूर्वक यह मत प्रतिपादित किया है कि वेदों से यह प्रमाणित नहीं होता कि आर्यों का रंग दासों के रंग से भिन्न था. वर्ण का निर्धारण पहले व्यवसाय, स्वभाव, संस्कृति आदि के आधार पर ही था. पीछे जातिवाद के प्रकट होने पर वर्ण का आधार भी बीज-क्षेत्र-विचार हो गया. ...शायद, डॉ. आंबेडकर की यह स्थापना गलत नहीं है कि शूद्र उसी भांडार के हैं, जिसकी मुख्य शाखा क्षत्रिय जाति के रूप में विकसित हुई....प्रत्येक जाति को,सदा के लिए,किन्हीं ख़ास धंधों से बाँध देने का रिवाज वैदिक युग के बाद प्रचलित हुआ, जिसका स्पष्टतम उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है:

वरं स्वधर्मों विगुणों,न पारक्य: स्वनुष्ठित:
परधर्मेण जीवन हि सद्य: पतति जातित:।

...कृष्ण-द्वैपायन व्यास की माता सत्यवती धीवर-जाति की थीं,किन्तु,व्यास क्षत्रिय और ब्राह्मण, सबके पूजनीय थे. इसी प्रकार, जाबाला का पुत्र सत्यकाम ब्रह्मविद्या का अधिकारी ब्राह्मण समझा गया,यद्यपि, जाबाला इतना भी नहीं जानती थी कि सत्यकाम किस पुरुष के संसर्ग से जनमा था.” (‘संस्कृति के चार अध्याय’,पृ.44)

कहना न होगा कि आर्ष ग्रंथों में रामायण और महाभारत सर्वप्रमुख हैं. श्रीअरविंद भारत में रामायण से नैतिक सभ्यता और महाभारत से बौद्धिक सभ्यता का उद्भव मानते हैं. इन दोनों महाग्रंथों में ‘महाभारत’ की संरचना रामायण के बजाय कहीं ज़्यादा जटिल है,जो कुरुक्षेत्र में हुए भीषण युद्ध के वर्णन के बावजूद अहिंसा को परम धर्म घोषित करता है. इसीलिए भारत में हर युग के विचारक, रचनाकार और व्याख्याकार अपने-अपने युग की आवश्यकताओं के तहत किसी ख़ास नज़रिए से इसके विविध प्रसंगों में से कुछ को चुनकर पुनरर्चित करने या उनकी व्याख्या करने की कोशिश करते रहे हैं.

सुप्रसिद्ध समाजवैज्ञानिक सुदीप्त कविराज का कहना है कि महाभारत एक ऐसा महाख्यान है जिसका मर्म-स्थल द्रौपदी है. वही इस आख्यान की अग्नि प्रज्वलित रखती है. प्रोफ़ेसर कविराज के शब्दों में “वह एक दीपशिखा की तरह जलती रहती है, और जब कथा में वह अविश्वसनीय मोड़ आता है कि युधिष्ठिर उसे द्यूत-क्रीडा में दाँव पर लगा देते हैं तो वह फिर उसी रौद्र ज्वाला में परिणत हो जाती है. जुआ लगभग नरबलि की तरह होता है- अगर पासा गलत पड़ जाए तो मनुष्य विनिमय की वस्तु में बदल जाता है. अंततोगत्वा यह द्रौपदी की अग्नि है जो वन को जलाकर राख कर देती है.”(समालोचन)

महाभारत के एक श्लोक में कहा गया है कि ‘अनीति के मार्ग पर चलने वाला एक समय तक समृद्धि का जीवन व्यतीत कर सकता है, वह अपने शत्रुओं पर भारी पड़ सकता है, लेकिन अंतत: वह समूल नष्ट हो जाता है.’ इस हवाले से ‘महाभारत’ को सही मायने में एक ‘धर्मग्रंथ’ बताते हुए सुदीप्त कविराज लिखते हैं कि “यह महाकाव्य इस सूत्र में विश्वास करता है कि न्याय की लघुतर सेनाओं को अच्छाई से भले ही कोई ठोस रसद न मिलती हो, परंतु उसमें एक शब्‍दातीत शक्ति होती है जो संघर्ष की तमाम भयावहता के बाद भी इस उम्मीद को जि़ंदा रखती है कि अंतत: सत्य ही विजयी होगा. इस अर्थ में कुरुक्षेत्र का युद्ध गहरे संकट-काल के समय अच्छाई के लिए लड़े जा रहे युद्ध का रूपक बनकर उभरता है. अच्छाई की शक्तियों हाशिये पर ठेल दी गयी हैं, लेकिन उन्हें अपने भीतर यह विश्वास जागृत करना होगा कि जब भी वास्तविक युद्ध लड़ा जाएगा तो विजय का मानपत्र उन्हीं के नाम लिखा जाएगा. पर्याप्त और अपर्याप्त की इस शब्द-क्रीड़ा को, जिसमें नैतिक परीक्षण के समय असीमित भी आवश्यक से कम पड़ जाता है, अन्याय की शक्ति पर गूढ़ कटाक्ष करने वाले इस पद के बिना नहीं समझा जा सकता.” (वही)

विदित है कि हमारे समय की महाश्वेता देवी और प्रतिभा राय समेत अनेक स्त्रीवादी रचनाकारों ने भी द्रौपदी को अपनी रचनाओं में पुनर्जीवित किया है जो स्वतंत्र विश्लेषण की मांग करता है.

इनसे भिन्न जब रवीन्द्रनाथ और दिनकर की महाभारत से रचनात्मक मुठभेड़ हुई तो इन रचनाकारों ने द्रौपदी के बजाय कर्ण को केन्द्रीय महत्त्व देते हुए पुराने प्रसंग को पुनर्रचित किया. टैगोर के यहाँ ‘महाभारत’ के ‘उद्योग पर्व’ की सामग्री को ‘कर्ण-कुंती संवाद’ के रूप में पुनर्रचित करने के दौरान एक अबोध बालिका की व्यथा और अनजाने में उससे हुई गलती का आजीवन दुष्परिणाम भुगतने को अभिशप्त कर्ण की मनोदशा को अभिव्यक्ति मिली है. किशोरावस्था में कुंती को मालूम नहीं था कि जिस बिन मांगे वरदान से उसे नवाज़ा गया है, वह उसके लिए अभिशाप बन सकता है. इसी प्रकार वर्णाश्रम धर्म में पगी सामंती व्यवस्था में कर्ण आजीवन अज्ञातकुलशील जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहा और राजपुत्रों के बीच वह सम्मान उसे नहीं मिला जिसका वह अधिकारी था. कुरुक्षेत्र में युद्ध के औपचारिक आरम्भ के पहले संध्या समय जाह्नवी नदी के तट पर अस्ताचलगामी सूर्य के ध्यान में मग्न रवीन्द्रनाथ का कर्ण जब कुंती से अपनी पहचान और उससे मिलने आने का उद्देश्य बताने को कहता है तो यह प्रश्न सुनकर कुंती अत्यंत भावुक हो जाती है और तमाम तरह की शर्म-हया त्यागकर उसे अपनी पहचान बताती हुई कर्ण के वजूद का राज़ खोलने के बाद उससे युद्ध में कौरवों का साथ छोड़कर पांडवो से मिल जाने की याचना करती है.

जन्म के बाद माता द्वारा परित्याग को लेकर शिकायती लहजे में विनम्रतापूर्वक कुछ कहने के बाद रवीन्द्रनाथ का कर्ण माता कुंती से दृढ़ स्वर में निवेदन करता है कि युद्ध में पांडवों की विजय अवश्यंभावी है,बावजूद इसके उसे कौरव-शिविर में ही रहना चाहिए. साथ ही, रवीन्द्रनाथ की कविता में कर्ण माता कुंती से युद्ध के दौरान ‘विजय की लालसा, यश अथवा राज्य-प्राप्ति की इच्छा के तहत वीरता की मार्ग से ख़ुद के विचलित न होने’ के लिए आशीर्वाद मांगता है.

‘रश्मिरथी’ में कर्ण से मिलने जाने के पूर्व कुंती का असमंजस विस्तार से वर्णित हुआ है. जाहिर है कि महाभारत की कथा के मद्देनज़र कुंती को किसी भी तर्क से आत्यन्तिक वासना से परिचालित होकर गर्भ धारण करने का दोषी ठहराना असंभव है.कितु, अपने समय-समाज में प्रचलित एक विशेष प्रकार की नैतिकता से अनुकूलित स्त्री के मन में इस मुद्दे को लेकर उहापोह स्वाभाविक है:

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,
गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी।
तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं
सामने उसी के अंतर खोल धरूँ मैं।

लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?
किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?
माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है
बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है ।

क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?
उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?
किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,
इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

दिनकर की कविता में कर्ण और कुंती के बीच संवाद बहुत लम्बा है जिसमें आक्रोश और करुणा के बीच तनाव के तहत जगह-जगह कवित्व का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है.जाहिर है कि अपराध न तो कुंती ने किया था और न ही कर्ण ने,पर दोनों को आजीवन जो यातना भोगनी पड़ी उसे शब्दों में बाँधना असंभव है. वस्तुत: माता-पुत्र की विडम्बना की जड़ें उस युग की नैतिक मान्यताओं की विसंगतियों में गड़ी पड़ी हैं जिनसे आधुनिक मनुष्य भी पूरी तरह निजात नहीं पा सका है. आज भी पूरी दुनिया और ख़ासकर भारत में अविवाहित स्त्री यदि संतान को जन्म देती है तो उसका अपना जीवन और संतान का लालन-पालन या आगे का जीवन हरदम सवालों के घेरे में रहता है.कर्ण के जन्म के प्रसंग में ‘महाभारत’ को कर्ण की दीर्घ मृत्यु की कथा’ बताते हुए रवीन्द्रनाथ इसे उसकी ‘सामाजिक मृत्यु’ कहते हैं.

‘रश्मिरथी’ में कुंती से बातचीत के दौरान कर्ण युद्ध में पहले केवल अर्जुन का वध करने और शेष चारों भाइयों को न मारने की बात करता है,पर कुंती की दशा देखकर उसका ह्रदय विदीर्ण हो जाता है और वह पाँचों पांडवों में से किसी को नहीं मारने का वचन देने के साथ ही दुर्योधन की विजयी होने पर अन्त्तत: सबकुछ छोडकर कुंती के पास लौट आने के लिए राजी हो जाता है. वह बार-बार कहता है कि किसी व्यक्ति या समूह की विजय-पराजय के बजाय वह पददलितों के अधिकार के लिए युद्ध का हामी है:

जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,
जो भी विहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,
यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं
विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।

आम तौर पर माना जाता है कि इतिहास प्रसंग पैदा करता है और बड़ा से बड़ा कवि इतिहास-प्रक्रिया से बाहर जाकर सृजन नहीं कर सकता.बावजूद इसके,बकौल अक्तोविया पाज, ‘कविता एक ऐसी विधा है जो इतिहास-प्रक्रिया से होती हुई प्राय: उसका अतिक्रमण करती है.’ ‘रश्मिरथी’ में कर्ण का यह कथन वस्तुत: कवि के सामाजिक सरोकार को अभिव्यक्त करता है.जिस प्रकार महाभारतकार व्यास महाख्यान रचने के दौरान यथासमय आख्यान के भीतर-बाहर आवाजाही करते हुए कथा का सूत्र किसी एक पात्र को नहीं सौंपते उसी प्रकार दिनकर के यहाँ भी विभिन्न प्रसंगों के धारा-प्रवाह वर्णन के क्रम में सृजनात्मकता की डोर प्राय: एक से दूसरे हाथ में आती-जाती रहती है.

कुल मिलाकर सुविख्यात आख्यानों पर आधारित काव्य-सृजन में नवाचार, कथ्य के अनुरूप उपयुक्त मात्रिक छंदों का ज़रूरत के मुताबिक़ इस्तेमाल, भाषा की सफ़ाई, अद्भुत सम्प्रेषण-कला, संवाद की लय तथा अपने समय-समाज के ज्वलंत प्रश्नों से दो-चार होकर व्यापक जन समुदाय की आत्मा की प्रतिध्वनि को पुनर्रचित करने के कारण केवल ‘रश्मिरथी’ ही नहीं, बल्कि दिनकर-काव्य का बहुलांश आज भी हिन्दी जानने-समझने वालों के कंठ में संभवत: सबसे ज्यादा बसता है. वे आज भी एक ज़िंदा कवि हैं और उनकी कविता आनेवाली नस्लों के दिल-ओ-दिमाग़ को भी झकझोड़ती रहेगी.

आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने दिनकर की कविता को ‘विचारों का संगीत’ कहा है. इस स्थापना में वजन है, क्योंकि दिनकर की काव्यकृतियों के साथ ही वैचारिक ग्रंथों में भी अनेकानेक सूक्तियाँ मिलती हैं: ‘मित्रता बड़ा अनमोल रतन,क्या इसे तौल सकता है धन’, ‘पापी कौन मनुज से उसका न्याय चुराने वाला’, ‘शान्ति नहीं तब तक जब तक सुख भाग न नर का सम हो’,‘उंच नीच का भेद न माने वही श्रेष्ठ ज्ञानी है’, ‘तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतालाके’, ‘मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का’, ‘सच है, विपत्ति जब आती है,कायर को ही दहलाती है’, ‘जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर’, ‘परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते शृंगार’, ‘जब नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर जाता है’, ‘सरस्वती की जवानी कविता है और बुढ़ापा दर्शन’, ‘उगती सभ्यता के कवि भावनाशील और बुझती सभ्यता के कवि बुद्धि पीड़ित होते हैं', ‘जातियाँ जब थकती हैं, तब उनका ध्यान रचना से हटकर आलोचना पर चला जाता है', ‘आदर्श मनुष्य शरीर से दैत्य और मन से महात्मा होता है', ‘बिना आत्मखंडन किए सत्य का सेवन चल नहीं सकता', ‘प्रेम स्वतःस्फूर्त भावना है और विवाह एक कठोर कर्तव्य', ‘युद्ध राजनीति की उस अवस्था को कहते हैं, जब वह लोहू से लाल हो उठती है और शांति राजनीति का वह रूप है, जब वह कंठी माला और चंदन से विभूषित रहती है.' ऐसी हजारों सूक्तियाँ उनकी कृतियों में भरी पड़ी हैं, जो उनकी रचनाओं के लोकप्रिय होने की एक बड़ी वजह है. अपनी कविता और गद्य में अंग्रेज़ी मुहावरे का हिन्दी में उल्था करके कलाकारी से जगह-जगह पिरो देनेवाले रचनाकारों की सिद्धांत बघारने वाली रचनाएँ आम पाठक के बीच क़तई लोकप्रिय नहीं हो सकतीं.

अंतोनियो ग्राम्शी ने साहित्य की जिन तीन श्रेणियों का उल्लेख किया है उसके तहत दिनकर की ‘उर्वशी’ यदि अभिजन-काव्य (एलिट पोएट्री) है, तो, ‘रश्मिरथी’ समेत उनकी अधिकतर कविता पुस्तकें ‘राष्ट्रीय लोकप्रिय’(नेशनल पोपुलर) कविता का श्रेष्ठ उदाहरण हैं.ग्राम्शी का कहना है कि जब किसी देश के साहित्य में ‘राष्ट्रीय लोकप्रिय साहित्य’ की कमी होने लगती है तब उस शून्य को सस्ता लोकप्रिय साहित्य (पॉपुलर लिटरेचर) आकर भरने लग जाता है.

हमारे समय की विडम्बना है कि कुछेक अपवादों को छोडकर जनपक्षधर काव्य-वस्तु भी अभिजन कविता के शिल्प में रची जा रही है और अरुण कमल, अष्टभुजा शुक्ल सरीखे गिनेचुने कुछ कवियों की चंद कविताओं को छोड़कर ‘राष्ट्रीय लोकप्रिय कविता’ का सृजन न के बराबर हो रहा है. यह आकस्मिक नहीं है कि इस शून्य को विचारधारात्मक कट्टरता के तहत सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के नाम पर कविता में अग्निवृष्टि करने वाले कवि भर रहे हैं. प्रसंगवश याद आते हैं ग्राम्शी, जिनका कहना है कि “कलाकार के समक्ष एक निर्दिष्ट परिदृश्य अवश्य होता है,पर वह किसी राजनीतिकर्मी की तुलना में कम नपातुला होता है.इसलिए वह कम कट्टर होता है.” यह सही है कि आज गुप्त जी, माखनलाल चतुर्वेदी,बालकृष्ण शर्मा नवीन,सुभद्रा कुमारी चौहान, दिनकर,गोपाल सिंह नेपाली की तरह काव्य-सृजन न तो संभव है, न ही ज़रूरी. पर हिन्दी कविता और उसके संभावित पाठकों के हित में हमारे कवियों को यथासंभव कोई न कोई बीच का रास्ता ढूंढ़ने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए. जिस प्रकार गणितीय समस्याएँ हल करने के कुछ निर्धारित शर्तें हुआ हुआ करती हैं उसी प्रकार कविता की लोकप्रियता के लिए बुनियादी शर्त संप्रेषणीयता है,जो तभी संभव है जब जनता की भाषा का आवश्यकतानुसार परिष्कार करके उसमें जनता के बीच प्रचलित मुहावरे के माध्यम से आम आदमी की आशा-आकांक्षा का सार्थक मूर्तन संभव हो सके. दिनकर की कविता इस कसौटी पर खरी उतरती है, इसलिए लोकप्रिय है.