'लुटेरा', 'द लास्ट लीफ' और बाबा नागार्जुन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 जुलाई 2013
छोटे बजट की फिल्म 'उड़ान' से चर्चित निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने की ताजा फिल्म रणवीर सिंह और सोनाक्षी अभिनीत 'लुटेरा' 5 जुलाई को प्रदर्शित होने जा रही है। थोड़ा आश्चर्य है कि मोटवाने ने अपनी फिल्म का नाम 'लुटेरा' रखा, क्योंकि इस तरह के नाम से बनी पुरानी फिल्मों में कामरान, महिपाल और दारा सिंह जैसे कलाकर काम करते थे और आज राउडी राठौर अक्षय करते हैं। अभी उनके नायक की कोई विशेष छवि नहीं है, उन्हें उद्योग में आए जुमा-जुमा आठ दिन हुए हैं।
बहरहाल, मोटवाने ने बंगाल में जमींदारी उन्मूलन के दौर की पृष्ठभूमि पर एक बहुरूपिये चोर की कथा रची है, जो स्वयं को पुरातन इमारतों का विशेषज्ञ बताकर हवेली के एक हिस्से में खुदाई कराकर मंदिर से जवाहरात चुराता है, परंतु घटनाक्रम के बीच उसे जमींदार की बेटी सोनाक्षी से प्रेम हो जाता है और अब चरित्र में परिवर्तन का अवसर है।
इस फिल्म में मोटवाने ने अमेरिकन लेखक ओ हेनरी की कथा 'द लास्ट लीफ' को एक दृश्य की तरह प्रस्तुत किया है। मूल कथा में एक वृद्ध असफल पेंटर है और युवा बीमार नायिका को भ्रम हो चुका है कि उसकी खिड़की से दिखने वाले वृक्ष के सारे पत्तों के झडऩे पर उसकी मृत्यु हो जाएगी। पतझड़ का मौसम है। धीरे-धीरे पत्ते झड़ रहे हैं और एक शाम वह देखती है कि शाख पर एक ही पत्ता रह गया है। वह सुबह से अधिक मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही है। रात में तीव्र हवा चलती है और वर्षा भी होती है। वह समझ जाती है कि पत्ता अवश्य गिरेगा।
जब वह सुबह खिड़की खोलती है तो पत्ते को शाख पर पाकर उसके मन से नैराश्य दूर हो जाता है। उसके हृदय में आशा का संचार होता है और महीनों बाद उसका बुखार उतर जाता है। उसी सुबह बस्ती का बूढ़ा असफल पेंटर मर जाता है, क्योंकि बरसते पानी में उसने एक प्लास्टिक का पत्ता रंगा और सारी रात वृक्ष पर उसे थामे रखा। यह कथा न केवल बीमार नायिका के नैराश्य और बाद में जागी आशा के जादू से स्वस्थ होने की बात करती है वरन् हमें अवसर देती है कि हम सफलता और असफलता को पुन: परिभाषित करें।
आज के युग में तो सफलता के लिए आग्रह इतना तीव्र है कि उसे स्वर्ग या मोक्ष की तरह पवित्र मान लिया गया है। जिस पेंटर ने एक युवा कन्या की जान बचाई और जिससे उसका रिश्ता मात्र एक बस्ती में रहने भर का था, उसे संभवत: विश्व के महान पेंटरों में गिना जाना चाहिए। कितने ही निकृष्ट और घटिया लोग जोड़-तोड़ करके सफल हो गए हैं और होने की उम्मीद भी लगाए बैठे हैं, उनके जीवन के व्यर्थ होने को रेखांकित करता है यह बूढ़ा असफल पेंटर। निर्देशक ओ हेनरी की एक और कथा से संभवत: यह प्रेरित है, जिसमें पेशेवर तिजोरी तोड़ का पीछा एक इंस्पेक्टर वर्षों से कर रहा है और देखता है कि उसने एक कठिन तिजोरी में दुर्घटनावश फंसे एक मासूम बालक की रक्षा की, वह भी इंस्पेक्टर के सामने। वह इंस्पेक्टर के पास जाकर कहता है कि लगाइए हथकड़ी और सहृदय इंस्पेक्टर जिसकी दंड और दया की अपनी परिभाषा है, कहता है कि आप कौन हैं, मैं आपको जानता भी नहीं।
मुझे लगता है कि ओ हेनरी की मानवीय करुणा से ओतप्रोत कथाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए, जहां आजकल सफलता का मंत्र घुटवाकर जीवन मूल्य नष्ट किए जा रहे हैं। चोर इंस्पेक्टर की यह कथा शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत फिल्म में इस्तेमाल की जा चुकी है।
बहरहाल, यह जानकर साहित्य प्रेमियों को खुशी होगी कि मोटवाने का एक पात्र 'लुटेरा' फिल्म में बाबा नागार्जुन की कविता सुनाता है। कविता है 'कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास, कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त, कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त। दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद, धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद, चमक उठी घर भर की आंखें, कई दिनों के बाद, कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद।' इस कविता का शीर्षक है 'अकाल और उसके बाद'। यह १२.१२.७९ की रचना है। महान कवि बाबा नागार्जुन का सत्य जीने की कोशिश है, मरने का जश्न नहीं। क्या पाठ्यक्रम में बाबा नागार्जुन की कविताएं हैं? पित्जा और पॉपकोर्न खाने ाले क्या जानें भूख किसे कहते हैं? वे क्या जानें बाबा नागार्जुन को?
बहरहाल, मैं इस कविता को उद्धृत किए जाने के कारण 'लुटेरा' अवश्य देखूंगा। मैं निर्देशक का अपमान नहीं कर रहा हूं, केवल अपनी प्राथमिकता जता रहा हूं, आप चाहें तो सोनाक्षी सिन्हा के लिए देख लें।