'लुटेरा' का प्रचार और 'मिल्स एंड बून' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 27 जून 2013
भारतीय सिनेमा में नई कहानियों या पहाड़ों-सी पुरानी कहानियों को प्रस्तुत करने के नवीन प्रयास हमेशा होते रहे हैं, परंतु इस दशक में 'रंग दे बसंती', 'लगान', 'वेडनसडे', 'कहानी', 'विकी डोनर', 'पानसिंह तोमर', 'रांझणा' इत्यादि ने विलक्षण सफलता पाई है। 'रांझणा' की गंगोत्री रोमियो-जूलियट तक जा सकती है, परंतु पटकथा और संवाद में गजब की ताजगी है। निर्माण क्षेत्र से अधिक प्रचार क्षेत्र में अभिनव प्रयोग किए जाते हैं और जो सितारे बमुश्किल पचास दिन की शूटिंग औसतन करते हैं, वे इतने ही दिन प्रचार के लिए भी लगाते हैं। शहर दर शहर मॉल में या लोकप्रिय ठीये पर अनजान भीड़ को संबोधित करना, टेलीविजन के हर शो में पहुंचने की कसरत बड़ी निष्ठा से की जाती है। हाल ही में खबर आई है कि रनवीर सिंह और सोनाक्षी अभिनीत 'लुटेरा' के प्रचार के लिए यह अनुबंध किया गया है कि पूरे विश्व में पांच हजार ठिकानों से बेचे जाने वाली अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास शृंखला 'मिल्स एंड बून' के तीन नए उपन्यासों के कवर पर रनवीर सिंह एवं सोनाक्षी की फोटो 'लुटेरा' नाम सहित प्रकाशित की जाएगी और इन उपन्यासों का कोई संबंध फिल्म 'लुटेरा' की कहानी से नहीं है। वे तीनों उपन्यास 'मिल्स एंड बून' की परंपरा के कमसिन वय की प्रेम-कथाएं होंगी। ज्ञातव्य है कि लोकप्रिय ब्रांड 'मिल्स एंड बून' विगत अनेक दशकों से सक्रिय और कमसिन वर्ग में यह अत्यंत लोकप्रिय है।
इस विदेशी कंपनी से किए गए अनुबंध के बारे में कोई जानकारी नहीं है, परंतु यह तय है कि उन बेचारों को क्या मालूम कि मुंबई में प्रेम-कथा 'लुटेरे' के नाम से बनाई जाती है और 'इश्कजादे' नामक रोमियो-जूलियट प्रेरित कथा में दूसरे विश्वयुद्ध में चलाई गई गोलियों से थोड़ी-सी कम गोलियां चली हैं। बेचारे प्रकाशक संभवत: अपने पात्रों से भी ज्यादा मासूम हैं या यह उनकी अपनी प्रचार नीतियों का कोई हिस्सा है। यह भी संभव है कि भारत में बाजार और प्रचार युग का स्वर्णकाल है और अनावश्यक चीजों की बिक्री धूम से हो रही है। चावल खरीदने गया ग्राहक नया मोबाइल खरीदकर लौट रहा है। इस बाजार में अपनी पहले से ही लोकप्रिय संख्या को और अधिक प्रचारित करने के लिए यह अनुबंध किया गया हो, क्योंकि उनकी यह धारणा सही है कि भारत में सितारे सिनेमा से ज्यादा लोकप्रिय हैं और इतनी ही लोकप्रियता क्रिकेट की है, जिसके सितारे इतने लोकप्रिय हैं कि उन पर लगे आरोपों की जांच भी उनकी एक विजय से धुल जाएगी। उन्हें यह भी ज्ञात होगा कि सिनेमा, क्रिकेट की तरह ही वहां राजनीति भी अत्यंत लोकप्रिय है और अवाम में भले ही न हो, परंतु मीडिया में वे छाए हुए हैं और एक महत्वाकांक्षी तथा विवादास्पद नेता ने अमेरिका की प्रमुख प्रचार कंपनी से अनुबंध किया है तथा प्रचार कंपनी की फीस प्रांतीय सरकार दे रही है या उनका दल दे रहा है या अमेरिका में बसे उनके प्रांत के आप्रवासी भारतीय दे रहे हैं। विशुद्ध भारतीयता की सौगंध खाने वालों को किसी भारतीय प्रचार कंपनी पर यकीन नहीं है।
यह भी गौरतलब है कि भारतीय सिनेमा पर हॉलीवुड का प्रभाव है और प्रचार-तंत्र भी उसी की नकल है। प्रचार कंपनियां जहां सैलाब बताती हैं, वहां रेगिस्तान निकल आता है। यह भी प्रचारित है कि दुनिया में सबसे बड़ा तेल भंडार एक प्रांत विशेष में पाया गया है, परंतु यह दावा दस प्रतिशत ही सही है और इतनी विरल जगह में है कि निकालने का खर्च बेचने से ज्यादा होगा।
बहरहाल, वर्तमान कालखंड में सत्य वही है, जो प्रचारित किया जा रहा है। प्रचार का मुर्गा जहां बांग दे वहां सवेरा हो चुका है, यह अटल सत्य बनाया जा चुका है। फिल्म में प्रचार हमेशा अजीबोगरीब ढंग से होता है। हाल ही में टेलीविजन में ऐसे डिसक्लेमर से शुरू होने वाले एक सीरियल के नायक को प्रतिदिन बीस किलो वजन का जिरहबख्तर पहनकर शूटिंग करनी पड़ती है। उस कलाकार का अपना वजन शायद पचास किलो है। यह प्रचार प्रेरित है। दूसरी तरफ के. आसिफ की 'मुगले आजम' का जिरहबख्तर है, जिसे 6 फीट लंबा और पांच सौ दंड-बैठक करने वाला पेशावरी पठान कलाकार पृथ्वीराज कपूर पहनता था।
बहरहाल, हमारा कालखंड एक विराट स्वप्न है और मेट्रिक्स फिल्म के मायाजाल की तरह बन चुका है। हमारा अवाम सदियों से कथा, कहानियां और किंवदंतियां जी रहा है, अत: एक और कपोल-कल्पना से उसकी तंदुरुस्ती पर फर्क नहीं पड़ता। 'लटेरा' दिल लूटेगा या जेब काटेगा - यह तो समय ही बताएगा।