'शिंदे' लिखें या 'बाल्की'कोई फर्क नहीं पड़ता/ जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 दिसम्बर 2016
गौरी शिंदे ने फिल्मकार आर. बाल्की से विवाह के बाद भी माता-पिता के दिए नाम का ही प्रयोग किया, जबकि वे गौरी बाल्की लिख सकती थीं। पति-पत्नी के विचारों का खुलापन और निजता की रक्षा के प्रति उनका अाग्रह प्रशंसनीय है। आर. बाल्की ने भी गौरी पर कोई दबाव नहीं बनाया। गौरी शिंदे की श्रीदेवी अभिनीत 'इंग्लिश विंग्लिश' एक यादगार फिल्म सिद्ध हुई है और इसी कारण उनकी दूसरी फिल्म 'डियर जिंदगी' देखी परंतु फिल्म को समझने में परेशानी हो रही है। फिल्म समाप्त होने पर केवल आलिया भट्ट को अत्यंत सुंदर दिखाने की प्रशंसा की जा सकती है। शाहरुख खान को यह पटकथा इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने उसके निर्माण का दायित्व भी लिया। भारत में अनेक महिलाओं ने फिल्म निर्देशित की हैं, जिनमें अरुणा राजे की 'रिहाई' एक महान फिल्म है।
'इंग्लिश विंग्लिश' में कोख-जनी बेटी अपनी मां के दर्द को नहीं समझती परंतु हजार कोस दूर अमेरिका में बसी उसकी बहन की बेटी एक नज़र में ही अपनी मौसी के दर्द को पढ़ लेती है। पारिवारिक रिश्तों की शल्य क्रिया प्रस्तुत करने का गौरी शिंदे का अपना विचार इस फिल्म में भी मुखर है परंतु 'इंग्लिश विंग्लिश' वाला समग्र प्रभाव वे पैदा नहीं कर पाई हैं।
इस फिल्म में माता-पिता नए रोजगार की तलाश में अपनी बेटी को नानी के हवाले कर गए हैं और उसके नन्हे दिल ने इसे अपने अस्तित्व के नकारे जाने की तरह ग्रहण किया और उसके मनोचिकित्सक शाहरुख खान उसको इसी ग्रंथि से मुक्त करने का प्रयास करते हैं। दरअसल, गौरी शिंदे ने अपनी नायिका को एक सिनेमेटोग्राफर बनाकर कमाल किया है। सिनेमा विधा के जन्म के कुछ समय बाद ही जर्मन दार्शनिक बर्गसन ने कहा था कि फिल्म कैमरा मानव दिमाग की तरह काम करता है। मनुष्य की आंखें सिने कैमरे के लेंस की तरह चित्र अपनी याद में जमा करती हंै और एक विचार उन स्थिर चित्रों को चलायमान कर देता है। महत्वपूर्ण है विचार। दिमागरूपी कैमरा किसी सिलसिले में चित्र नहीं लेता और विचार ही इन चित्रों को अर्थ देते हैं। जीवन असंपादित रीलों की तरह होता है परंतु एक विचार उन्हें समझ में आ सकने वाला रूप देता है।
नायिका के मन में अस्वीकृत होने का भय इस कदर समाया है कि हर बनते हुए से रिश्ते को पूरी तरह पनपने का अवसर नहीं देते हुए उसे स्वयं ही अस्वीकार कर देती है। उसका मनोचिकित्सक उसे अपने इस भय से ही परिचित कराता है, क्योंकि भयमुक्त होने का यही एकमात्र रास्ता है। सिनेमेटोग्राफर नायिका अपनी फिल्म गोवा की एक किवदंती पर बनाती है, जिसकी पुर्तगाली नायिका पुरुष बनकर युद्ध करती है और एक बार उसके नारी होने की बात के उजागर होने के बाद वह नारी स्वरूप में दुगने जोश से युद्ध करती है गोयाकि वह अपने मनोवैज्ञानिक कवच को उतार फेंकती है। अपने व्यक्तिगत डर पर विजय पाते ही वह बेहतर योद्धा सिद्ध होती है। फिल्म कथा के भीतर की यह कथा ही गौरी शिंदे की फिल्म का केंद्रीय विचार है कि अपने तमाम आवरणों से मुक्त होकर हम वैसे ही अभिव्यक्त हों, जैसे भीतर हैं। जाहिर हो बाहर, भीतर तू है जैसा।
मनुष्य की शक्ति का सबसे अधिक अपव्यय होता ही इसलिए है कि वह स्वयं को अपने असल स्वरूप में उजागर नहीं होने देता गोयाकि असल युद्ध मनुष्य बनाम मनुष्य ही है। हम जितना स्वयं को धोखा देते हैं, उतना कभी किसी अन्य को नहीं दे पाते। फिल्म की नायिका भी स्वयं को धोखा दे रही है और अपने द्वारा बनाए गए भय की ही शिकार है परंतु गोवा की महिला योद्धा की कथा को बनाते ही वह अपने भय से मुक्त हो जाती है। ठीक उसी तरह जिस तरह गोवा की पुरुष रूप धारण करने वाली स्त्री बाद में अपने स्त्री स्वरूप को स्वयं स्वीकार करके उसी रूप में लड़ते हुए विजय प्राप्त कर लेती है। हर पुरुष में एक स्त्री छुपी होती है और हर स्त्री में एक पुरुष छिपा होता है। हम अपने इस भीतरी युद्ध से ही अपनी जीवन ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। अपने को ही नकारने में हम ऊर्जा का कितना अपव्यय करते हैं। इस फिल्म में कथा के भीतर की कथा अत्यंत महत्वपूर्ण है और वही फिल्म के आखिरी भाग में आती है, इसीलिए इस फिल्म को समझ पाने में कठिनाई होती है।
यह जाल स्वयं गौरी शिंदे ने ही फैलाया है, िसमें वे स्वयं ही उलझती नज़र आती हैं। सीधी-सी बात यह है कि स्वयं को गौरी बाल्की लिखें या गौरी शिंदे लिखें, वे गौरी ही रहेंगी और जैसे 'इंग्लिश विंग्लिश' मंे हजार कोस दूर रहने वाली बहन की लड़की उन्हें समझ लेती है, वैसे ही उनके दर्शक समझ लेंगे। बस वे अपने फैलाए जाल से बचकर सरल सहज बनी रहें।