'शुभ मंगल सावधान' और स्टेनले क्यूब्रिक / जयप्रकाश चौकसे

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'शुभ मंगल सावधान' और स्टेनले क्यूब्रिक
प्रकाशन तिथि : 04 जून 2019


आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर अभिनीत फिल्म 'शुभ मंगल सावधान' में एक गंभीर बात को सहज हास्य के अंदाज में प्रस्तुत किया गया था। दरअसल हास्य के परदे के पीछे गहन समस्याओं पर विचार प्रकट करना सिनेमा की ताकत रहा है और इस विधा के जनक महान चार्ली चैप्लिन रहे हैं। सरकारें गंभीर समस्या को हास्यापद बना देती हैं और उनके इस अंदाज पर अवाम तालियां भी बजाता है। बहरहाल फिल्म एक प्रेम कथा है। नायक युवा और सेहतमंद है परंतु अपने ही द्वारा बनाए एक मनोवैज्ञानिक हव्वे के कारण स्वाभाविक सरल से काम भी वह नहीं कर पाएगा। जिसकी चिंता उसे सताती है। इस अनावश्यक चिंता से उत्पन्न समस्या और उससे मुक्ति दिलाने के नाम पर एक बड़ा व्यापार तंत्र खड़ा है। जिसमें टोटके, मंत्र-तंत्र सभी कुछ शामिल है। एलोपैथिक, होम्योपैथी, आयुर्वेद एवं यूनानी सभी इसके उपचार के नाम पर मुनाफा कमा रहे हैं। शिलाजीत नाम की अप्राप्य जड़ी भी इसमें शामिल की गई है। यह सारा प्रकरण फैंटम ऑफ फियर से जुड़ा है। डर लक्षण नहीं बीमारी है। डर का हव्वा, असल डर से अधिक विकराल होता है। वर्तमान भी डर के उत्पाद का ही बाय प्रोडक्ट है।

अमेरिकन फिल्मकार स्टेनले क्यूब्रिक की मृत्यु को दो दशक हो चुके हैं परंतु उसकी बनाई फिल्में आज भी चर्चित हैं और सतहों में लिपटे अर्थ को परत दर परत उतारे जाने के प्रयास जारी है। स्टेनले क्यूब्रिक की फिल्म 'अ क्लॉक वर्क ऑरेंज' में एक धनवान परिवार का युवा अदालत में बलात्कार का दोषी पाया गया है। पूरे मुकदमे के दौरान एक मनोचिकित्सक अदालत में मौजूद रहता है। वह न्यायाधीश से निवेदन करता है इस किशोर से अपराध उसकी बीमारी के कारण हुआ है। उसके अवचेतन में यौन संबंध और हिंसा भरी हुई है और वे इस बीमारी से उसे मुक्त कर सकते हैं। अपराधी की किशोर वय के कारण ही उसे दूसरा अवसर मिलना चाहिए। जज महोदय भी कुछ माह के लिए अपराधी को डॉक्टर के हवाले करते हैं। ज्ञातव्य है कि महान शांताराम की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' में भी जेल के एक अफसर आधा दर्जन अपराधियों को उनके चरित्र में आमूल परिवर्तन का भरोसा दिलाकर कैदियों को एक सुनसान जगह पर ले जाते हैं। जेलर की प्रेरणा से अपराधी उस बंजर जमीन को उपजाऊ बनाते हैं। जब कैदी मंडी में अपनी सब्जियां बेचने जाते हैं तो उनके सस्ते दाम और गुणवत्ता के कारण सभी फल एवं सब्जियां हाथों-हाथ बिक जाती हैं। बाजार में मुनाफा कमाने बैठे दलाल चिंता में पड़ जाते हैं। समाज में एक तबका जो कुछ भी नहीं उपजाता, वही सबसे अधिक धन कमाता है।

बहरहाल डॉक्टर अपने मरीज को कुर्सी पर बैठाता है। उसके हाथ-पांव रस्सी से बांध देता है। उसके सामने परदे पर लगातार यौन संबंध और हिंसा की फिल्में दिखाई जाती हैं। वह सोना चाहता है तो उसे जगाए रखते हैं। कई दिनों तक रात दिन उसे इसी तरह की फिल्में दिखाई जाती हैं। उपचार के बाद उसे अदालत में प्रस्तुत किया जाता है। जहां किसी स्त्री को देखते ही वह कांपने लगता है। उसके अवचेतन में यौन संबंध और हिंसा को लेकर डर और जुगुप्सा ठूंस दी गई है। अदालत भी यह मान जाती है कि उसका उपचार हो गया है और उसे निरअपराध घोषित किया जाता है। इस तरह से आजाद हुए किशोर का यह हाल हो जाता है कि वह प्राय: भय के कारण कांपता रहता है। उससे कम उम्र के बच्चे भी उसे घूंसा मार देते हैं। वह कोई प्रतिकार ही नहीं करता। अब उसका यह 'पवित्र' जीवन भय से थरथराता है। स्टैनले क्यूब्रिक यह कहते हैं कि इस तरह वासानाहीन, इच्छाओं से मुक्त 'निरापद' व्यक्ति अब मनुष्य नहीं वरन परछाई मात्र बन गया है। यौन संबंध समाज की अनिवार्य हकीकत है और संयम एक अनुशासन है परंतु इससे पूरी तरह मुक्त होने वाला व्यक्ति उस सब्जी की तरह है जिसे पकाया भी नहीं जा सकता और खाया नहीं जा सकता। दरअसल, जीवन में संतुलन आवश्यक है। लंदन में शराब पीने के शौकीन व्यक्ति को ज्ञात हुआ कि गाजर का जूस पीने से लीवर मजबूत होता है। उसने प्रतिदिन खूब गाजर का जूस पिया। परिणाम यह हुआ कि उसके यकृत ने काम ही करना बंद कर दिया क्योंकि जो काम यकृत करता है उसे अनावश्यक बना दिया गया। व्यक्ति की मृत्यु हो गई।

वर्तमान में स्टैनले क्यूब्रिक के सिनेमा का पुनरावलोकन किया जा रहा है। वे अपनी एक अन्य फिल्म में यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या मनुष्य को समाज के लिए उपयोगी ही बना रहना आवश्यक है। समाज मनुष्य की सुविधा व सुख के लिए बना है परन्तु समाज के लिए मनुष्य और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बलि नहीं दी जा सकती। सारा खेल संतुलन बनाए रखने का है।