'शोले'- आपातकाल और वर्तमान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 जनवरी 2014
यह एक इत्तेफाक की बात है कि रमेश सिप्पी की 'शोले' का प्रदर्शन 1975 में आपातकाल के दरमियान हुआ और उसका थ्रीडी संस्करण अघोषित आपात काल जैसी राजनीतिक उथल-पथल के समय हो रहा है। देश में परिवर्तन का दौर है। इस फिल्म की प्रेरणा सलीम-जावेद को दर्जनभर फिल्मों से मिली है। दरअसल कुरोसोवा की जापानी फिल्म 'सेवन समुराई' ने पूरे विश्व सिनेमा को एक नया विचार दिया और सभी ने उस पर फिल्में बनाई। मसलन सेवन मेगनीफीसेंट मैन इत्यादि। इन सभी प्रेरित फिल्मों ने मूल के निर्देशक कुरोसोवा का आधार विचार अनदेखा किया है। उनकी रचना के 'गांव' को वे स?य समाज का प्रतीक मानते हैं और बर्बर डाकू अस?यता का प्रतीक है तथा सात जांबाज समुराई स?यता के हाशिये पर खड़े वे लोग हैं जिन्होंने स?य संसार के नियम तोड़े हैं। स?य गांव पर जब वे अपनी लड़ाई लडऩे के लिए कानून तोडऩे वाले सात जांबाजों को आमंत्रण देते हैं परंतु युद्ध समाप्त होने पर और डाकुओं की पराजय के बाद वे हाशिये पर खड़े लोगों से कोई संबंध नहीं रखना चाहते हैं। उनकी अवहेलना भी करते हैं। डाकुओं से लंबी लड़ाई के दरमियान गांव की गोरी का एक जांबाज के साथ इश्क हो जाता है। परंतु अंतिम दृश्य में वह गोरी जांबाज से पल्ला छुड़ाते हुए अपने फसल बोने के काम में लग जाती है। यह दृश्य बरसात में फिल्माया गया है। पूरा गांव खेतों में चावल की बोनी कर रहा है। ज्ञातव्य है कि जापान की समुराई परंपरा अत्यंत प्राचीन है और समुराई को किसी सामंत या जमींदार समान व्यक्ति का प्राश्रय प्राप्त नहीं, वह समुराई में प्रस्तुत सातों समुराई ऐसे ही लोग हैं। उन्हें कोई सामाजिक वर्ग स्वीकार नहीं करता।
कुरोसोव मानव समाज की एक नाजुक और दुखती हुई रग पर हाथ रख रहे हैं कि ये तथाकथित स?य कमजोर लोग अपने संकट के समय अपनी रक्षा के लिए किसी को भी आमंत्रित कर सकते हैं और संकट के समय उनमें आपसी सहयोग की भावना प्रबल रहती है। परंतु संकट समाप्त होने पर ये आम आदमी अपने नैसर्गिक टुच्चेपन पर लौट आता है और उनका उदा?ा स्वरूप पुन: अपने मूल रूप में लौट आता है। हमने भी देखा है कि चीन के आक्रमण के समय लोगों ने अपने गहने तक रक्षा फंड के लिए दे दिए परंतु संकट के गुजर जाने पर यही गहने तक दान करने वाले लोग टैक्स की चोरी करते हैं और अपने लोभ के लिए कोई भी कानून तोड़ देते हैं। अपना घर बने न बने पड़ोसी की दीवार गिराने में लग जाते हैं।
कुरोसोवा की तरह ही अंग्रेजी कवि पीबी शैली की 'प्रोमेथियस अनबाऊंड' में भी इसी तरह का विचार है, जिससे प्रेरित होकर धर्मवीर भारती ने अपनी 'प्रमश्यु गाथा' की रचना की। कथा नायक आम आदमियों की प्रार्थना पर ईश्वर के घर से रोशनी चुरा कर लाता है क्योंकि आम आदमी अंधकार से जूझ रहा था। कथा नायक को ईश्वर यह दंड देता है कि जनता चौक में उसे जंजीरों से बांध दिया जाता है और एक गिद्ध उसके कंधे पर बैठकर उसका हृदय पिंड चबाता है। यह क्रम लंबे समय तक चलता है। रात में नायक को नया ह्रदय मिल जाता है और दिन में गिद्ध अपना काम करता है। एक दिन नायक से ईश्वर प्रश्न करते हैं कि किस बात से तु?हें अधिक कष्ट हो रहा है।
उसका उ?ार है कि जिस जनता के लिए उसने प्रकाश चुराया था, अब वही जनता चौराहे पर उसकी यातना को तमाशे की तरह देखती है और तालियां बजाती है। हम सब मूलत: तमाशवीन हैं। धर्मवीर भारती की रचना कुछ इस तरह प्रारंभ होती है- 'हम सब के माथे पर दाग, हम सबकी आत्मा में झूठ, हम सब सैनिक अपराजेय, हाथों में केवल तलवारों की मूठ'। इस कॉलम में बार-बार लिखा गया है कि समस्याओं का स्थायी हल नैतिक मूल्यों का स्थापना और सांस्कृतिक वातावरण के निर्माण में है। यहां उदा?ा स्वतंत्र संस्कृति की बात हो रही है, न कि एक राजनीतिक दल द्वारा परिभाषित संकीर्णता की।
बहरहाल 'शोले' में विविध मनोरंजक तत्वों की बिलेंडिग ही उसकी सफलता का मूल कारण है। यह हम तमाशबीन लोगों को हर रूप में मनोरंजन देती है। आपातकाल में प्रदर्शित फिल्म वर्तमान की राजनीति के थ्रीडी काल में पुन: प्रदर्शित हो रही है। आम आदमी भी अपने थ्रीडी स्वरूप में प्रस्तुत हो रहा है।