'सभ्य' पोशाक में / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
अन्नाहार पर मेरी श्रद्धा दिन पर दिन बढडती गयी। सॉल्ट की पुस्तक मे आहार के विषय में अधिक पुस्तकें पढ़ने की मेरी जिज्ञासा को तीव्र बना दिया। जितनी पुस्तकें पढ़ने मुझे मिलीं, मैने खरीद ली और पढ़ डाली। उनमें हावर्ड विलियम्स की 'आहार-नीति' नामक पुस्तक में अलग-अलग युगों के ज्ञानियों, अवतारों और पैगम्बरो के आहार का और आहार-विषयक उनके विचारों का वर्णन किया गया हैं। पाइथागोरस, ईसा मसीह इत्यादि को उसनें केवल अन्नाहारी सिद्ध करने का प्रयत्न किया हैं। डॉक्टर मिसेस एना किंग्सफर्ड की 'उत्तम आहार की रीति' नामक पुस्तक भी आकर्षक थी। साथ ही, डॉ. एलिन्सन के आरोग्य-विषयक लेखों ने भी इसमें अच्छी मदद की। वे दवा के बदले आहार के हेरफर से ही रोगी को नीरोग करने की पद्धति का समर्थन करते थे। डॉ. एलिन्सन स्वयं अन्नाहारी थे और बीमारों केवल अन्नाहार की सलाह देते थे। इन पुस्तकों के अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि मेरे जीवन में आहार-विषयक प्रयोगों ने महत्त्व का स्थान प्राप्त कर लिया। आरम्भ में इन प्रयोगों में आरोग्य की दृष्टि मुख्य थी। बाद में धार्मिक दृष्टि सर्वोपरी बनी।
इस बीच मेरे मित्र को तो मेरी चिन्ता बनी ही रही। उन्होंने प्रेमवश यह माना कि अगर मैं माँस नहीं खाऊँगा तो कमजोर हो जाऊँगा। यही नही, बल्कि मैं बेवकूफ बना रहूँगा क्योकि अंग्रेजों के समाज में घुलमिल ही न सकूँगा। वे जानते थे कि मैं अन्नाहार-विषयक पुस्तकें पढ़ता रहता हूँ। उन्हें डर था कि इन पुस्तकों के पढ़ने से में भ्रमित चित्त बन जाऊँगा, प्रयोगों में मेरा जीवन व्यर्थ चला जायेगा। मुझे जो करना हैं, उसे मैं भूल जाऊँगा और 'पोथी-पंडित' बन बैठूँगा। इस विचार से उन्होंने मुझे सुधारने का एक आखिरी प्रयत्न किया। उन्होंने मुझे नाटक दिखाने के लिए न्योता। वहाँ जाने से पहले मुझे उनके साथ हॉबर्न भोजन-गृह में भोजन करना था। मेरी दृष्टि में यह गृह एक महल था। विक्टोरिया होटल छोड़ने के बाद ऐसे गृह में जाने का मेरा यह पहला अनुभव था। विक्टोरिया होटल का अनुभव तो निकम्मा था , क्योंकि ऐसा मानना होगा कि वहाँ मैं बेहोशी की हालत में था। सैकड़ों के बीच हम दो मित्र एक मेज के सामने बैठे। मित्र ने पहली प्लेट मंगाई। वह 'सूप' की थी। मैं परेशान हुआ। मित्र से क्या पूछता? मैंने परोसने वाले को अपने पास बुलाया।
मित्र समझ गये। चिढ़ कर पूछा, 'क्या हैं?'
मैंने धीरे से संकोचपूर्वक कहा, 'मैं जानना चाहता हूँ कि इसमे माँस हैं या नहीँ।'
'ऐसे गृह में यह जंगलीपन नहीं चल सकता। अगर तुम्हें अब भी किच-किच करनी हो तो तुम बाहर जाकर किसी छोटे से भोजन-गृह में खा लो और बाहर मेरी राह देखो।'
मैं इस प्रस्ताव से खुश होकर उठा और दूसरे भोजनलय की खोज में निकला। पास ही एक अन्नाहारवाला भोजन-गृह था। पर वह तो बन्द हो चुका था। मुझे समझ न पड़ा कि अब क्या करना चाहियें। मैं भूखा रहा। हम नाटक देखने गये। मित्र ने उक्त घटना के बारे में एक शब्द भी मुँह से न निकाला। मेरे पास तो कहने को था ही क्या ?
लेकिन यह हमारे बीच का अन्तिम मित्र-युद्ध था। न हमारा सम्बन्ध टूटा, न उसमें कटुता आयी। उनके सारे प्रयत्नों के मूल मे रहें प्रेम को मैं पहचान सका था। इस कारण विचार और आचार की भिन्नता रहते हुए भी उनके प्रति मेरा आदर बढ़ गया। पर मैने सोचा कि मुझे उनका डर दूर करना चाहियें। मैंने निश्चय किया कि मैं जंगली नहीं रहूँगा। सभ्यता के लक्षण ग्रहण करूँगा और दुसरे प्रकार के समाज में समरस होने योग्य बनकर अपनी अन्नाहार की अपनी विचित्रता को छिपा लूँगा।
इस 'सभ्यता' को सीखने के लिए अपनी सामर्थ्य से परे का और छिछला रास्ता पकड़ा।
विलायती होने पर भी बम्बई के कटे-सिले कपड़े अच्छे अंग्रेज समाज मे शोभा नहीं देगे , इस विचार से मैंने 'आर्मी और नेवी' के स्टोर में कपड़े सिलवाये। उन्नीस शिलिंग की (उस जमाने के लिहाज से तो यह कीमत बहुत ही कही जायेगी ) 'चिमनी' टोपी सिर पर पहनी। इतने से संतोष न हुआ तो बॉँण्ड स्ट्रीट , जहाँ शौकिन लोगों के कपड़े सिलते थे , दस पौण्ड पर बती रख कर शाम की पोशाक सिलवायी। भोले और बादशाही दिलवाले बड़े भाई से मैने दोनो जेबों में लटकने लायक सोने की एक बढिया चेन मँगवायी और वह मिल भी गयी। बँधी-बँधाई टाई पहनना शिष्टाचार में शुमार न था, इसलिए टाई बाँधने की कला हस्तगत की। देश में आइना हजामत के दिन ही देखने को मिलता था , पर यहाँ तो बड़े आइने के सामने खड़े रहकर ठीक से टाई बाँधने में और बालो मे सीधी माँग निकालने में रोज लगभग दस मिनट तो बरबाद होते ही थे। बाल मुलायम नहीं थे, इसलिए उन्हें अच्छी तरह मुडें हुए रखने के लिए ब्रश (झाडू ही समझिये! ) के साथ रोज लड़ाई चलती थी। और टोपी पहनते तथा निकालने समय हाथ तो मानो माँग को सहेजने के लिए सिर पर पहुँच ही जाता था। और बीच-बीच में, समाज में बैठे-बैठे , माँग पर हाथ फिराकर बालों को व्यवस्थित रखने की एक और सभ्य क्रिया बराबर ही रहती थी।
पर इतनी टीमटाप ही काफी न थी। अकेली सभ्य पोशाक से सभ्य थोड़े ही बना जा सकता था ? मैने सभ्यता के दूसरे कई बाहरी गुण भी जान लिये थे और मैं उन्हें सीखना चाहता था। सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये। उसे फ्रेच अच्छी तरह जान लेनी चाहिये , क्योंकि फ्रेंच इंग्लैंड के पड़ोसी फ्रांस की भाषा थी, और यूरोप की राष्ट्रभाषा भी थी। और, मुझे यूरोप में घुमने की इच्छा थी। इसके अलावा, सभ्य पुरुष को लच्छेदार भाषण करना भी आना चाहिये। मैने नृत्य सिखने का निश्चय किया। एक सत्र में भरती हुआ। एक सत्र के करीब तीन पौण्ड जमा किये। कोई तीन हफ्तों में करीब छह सबक सीखे होगे। पैर ठीक से तालबद्ध पड़ते न थे। पियानो बजता था, पर क्या कह रहा हैं, कुछ समझ में न आता था। 'एक, दो, एक' चलता , पर उनके बीच का अन्तर तो बाजा ही बताता था , जो मेरे लिए अगम्य था। तो अब क्या किया जाये ? अब तो बाबाजी की बिल्ली वाला किस्सा हुआ। चुहों को भगाने के लिए बिल्ली, बिल्ली के लिए गाय, यों बाबाजी का परिवार बढ़ा, उसी तरह मेरे लोभ का परिवार बढ़ा। वायोलिन बजाना सीख लूँ तो सुर और ताल का ख्याल हो जाय। तीन पौण्ड वायोलिन खरीदने मे गंवाये और कुछ उसकी शिक्षा के लिए भी दिये। भाषण करना सीखने के लिए एक तीसरे शिक्षक का घर खोजा। उन्हें भी एक गिन्नी तो भेट की ही। बेल 'स्टैण्डर्ड एलोक्युशनिस्ट' पुस्तक खरीदी। पिट का एक भाषण शुरु किया।
इन बेल साहब ने मेरे कान ने बेल (घंटी) बजायी। मैं जागा।
मुझे कौन इंग्लैण्ड में जीवन बिताना हैं? लच्छेदार भाषण करना सीखकर मैं क्या करुँगा ? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूँगा? वायोलिन तो देश में भी सीखा जा सकता हैं। मै तो विद्यार्थी हूँ। मुझें विद्या-धन बढ़ाना चाहिये। मुझे अपने पेशे से सम्बन्ध रखने वाली तैयारी करनी चाहिये। मै अपने सदाचार से सभ्य समझा जाऊँ तो ठीक हैं, नही तो मुझे यह लोभ छोड़ना चाहिये।
इन विचारो की घुन में मैंने उपर्युक्त आशय के उद्गारोवाला पत्र भाषण-शिक्षक को भेज दिया। उनसे मैने दो या तीन पाठ ही पढे थे। नृत्य-शिक्षिका को भी ऐसा ही पत्र लिखा। वायोलिन शिक्षिका के घर वायोलिन लेकर पहुँचा। उन्हें जिस दाम भी बिके, बेच डालने की इजाजत दे दी। उनके साथ कुछ मित्रता का सा सम्बन्ध हो गया था। इस कारण मैने उनसे अपने मोह की चर्चा की। नाच आदि के जंजाल में से निकल जाने की मेरी बात उन्होंने पसन्द की।
सभ्य बनने की मेरी यह सनक लगभग तीन महीने तक चली होगी। पोशाक की टीपटाप तो बरसों चली। पर अब मैं विद्धार्थी बना।