'साइकिल युद्ध और 'बायसिकल थीव्स' / जयप्रकाश चौकसे

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'साइकिल युद्ध और 'बायसिकल थीव्स'
प्रकाशन तिथि :05 जनवरी 2017


मुलायम सिंह यादव और उनके सुपुत्र अखिलेश के बीच युद्ध जारी है और उनके दल का प्रतीक चिह्न 'साइकिल' किसको मिलेगा, इसका फैसला चुनाव आयोग करेगा। इस समाचार से वितोरियो डि सिका की महान फिल्म 'बायसिकल थीव्स' याद आना तो लाजमी था। इटली में नवयथार्थवादी आंदोलन शुरू हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात साधनों की कमी के कारण फिल्मकारों ने महंगे सेट्स का निर्माण न करके आम सड़कों और रेस्तरां में शूटिंग करने की प्रथा का प्रारंभ किया। इस तरह सिनेमा स्टूडियो की सीमा से बाहर सड़क पर आ गया। यही काम बीआर इशारा ने भारत में शुरू किया था, अपनी फिल्म 'चेतना' द्वारा। 'बायसिकल थीव्स' लुइजी बर्तोलीनी के उपन्यास से प्रेरित है। इस फिल्म का नायक रोजगार दफ्तर के सामने जमा बेरोजगारों की भीड़ का हिस्सा है। उसे दीवारों पर रोम के विकास के पोस्टर चिपकाने का काम मिल जाता है, परंतु शर्त यह है कि उसके पास साइकिल होना जरूरी है। उसकी पत्नी और सात वर्षीय पुत्र घर के गद्‌दों से चादरें निकाल लेते हैं। तमाम खिड़कियों के परदे भी निकालकर सारा सामान बेचकर साइकिल खरीदते हैं। साइकिल के आधार पर उन्हें विकास के पोस्टर चिपकाने का काम मिल जाता है। शहर के सारे गोदाम चादरों से पट गए हैं। काम की तलाश में अवाम यही काम कर रहा है। इस गरीब परिवार का गुजारा पोस्टर चिपकाने के काम से होने लगता है, परंतु एक दिन साइकिल चोरी चली जाती है। पिता और पुत्र अपनी साइकिल की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं। एक दिन अपने बचाए पैसों से वे एक होटल में भोजन करने जाते हैं, क्योंकि तमाम भागम-भाग में वे कई दिनों से भरपूर भोजन ही नहीं कर पाए थे। यह प्रसंग हमें महान मुंशी प्रेमचंद की कथा 'कफन' का स्मरण कराता है, जिसमें पत्नी के दाह कर्म के लिए गांव के लोगों से लिए चंदे में प्राप्त धन से भूखे पिता-पुत्र कफन खरीदने के बदले आलू-पूरी खरीद लेते हैं। यह मार्मिक कथा संसार की महानतम कथाओं में शामिल की गई है।

इस फिल्म में एक आदमी रोजी-रोटी कमाने के लिए साइकिल खरीदता है, दूसरा मजबूर व्यक्ति भी रोटी के लिए साइकिल चुराता है। एक तीसरा व्यक्ति साइकिल का व्यापार करता है। यह प्रसंग हमें याद दिलाता है धूमिल की पंक्तियां 'एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक आदमी है जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है, वह केवल रोटी से खेलता है, वह तीसरा आदमी कौन है, देश की संसद मौन है'।

पूरी फिल्म में असली चोर तो व्यवस्था ही है, जो अवाम को मजबूर करती है। तथाकथित विकास के पोस्टर भी बहुत सटीक प्रतीक हैं। मेरी फिल्म 'शायद' के एक गीत के छायांकन में एक शॉट था कि ठंड से ठिठुरता व्यक्ति शराबबंदी के पोस्टर से अपना ठिठुरता बदन ढांकने का प्रयास करता है। बिहार के नीतीश कुमार ने अपनी पूरी ऊर्जा शराबबंदी में लगा दी है, जबकि वे आशा के प्रतीक के रूप में उभरे थे। शराबबंदी से या नोटबंदी से ये सभी काम केवल अवाम का ध्यान बांटने का ही काम कर रहे हैं और मूलभूत समस्याएं जैसे रोटी, कपड़ा और मकान आज भी जस की तस मुंह बाएं खड़ी हैं।

ज्ञातव्य है कि वितोरियो डी सिका की फिल्म 'बायसिकल थीव्ज' ने बिमल रॉय को नवयथार्थवादी फिल्म 'दो बीघा जमीन' बनाने को प्रेरित किया और राजकपूर ने इसी प्रभाव स्वरूप 'बूट पॉलिश' बनाई। अत: इस एक फिल्म ने एक आंदोलन का स्वरूप ले लिया। इस महान फिल्मकार ने अपनी फिल्मों में हमेशा नए कलाकारों को अवसर दिया और इस तरह यह स्टार सिस्टम पर भी चोट करने का प्रयास है।

यादव परिवार का आपसी युद्ध महाभारत में वर्णित यादव परिवार के नाश की याद दिलाता है। यह भी संभव है कि यह गृहयुद्ध प्रायोजित हो। स्वयं यादव परिवार ने रचा हो या किसी अन्य दल ने रचा हो। क्या इसी तर्ज पर राहुल गांधी व सोनिया गांधी के बीच भी एक युद्ध प्रायोजित किया जाए? गांधी परिवार के पास एक ट्रम्प कार्ड यह भी है कि वे प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी को समाप्त घोषित करके अपने दल के युवा सांसदों के हाथ सारी कमान दे दे और स्वयं को केवल दल संचालन तक सीमित कर दें। सोनिया गांधी की लोकप्रियता का शिखर वह था, जब उन्होंने चुनाव जीतकर मनमोहन सिंह कोप्रधानमंत्री बनाया। सत्ता के त्याग का तमाशा हमेशा कारगर सिद्ध होता है।