'सामान जितना कम, सफर उतना आसान' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 जुलाई 2018
कवि सम्मेलनों के बादशाह और फिल्म गीतकार नीरज नहीं रहे। उम्रदराज गीतकार की आयु छह कम सौ थी गोयाकि यात्रा लंबी रही, संभवत: सामान कम था। कवि सम्मेलनों में मोटेतौर पर दो प्रकार के कवि आते हैं। पहला प्रकार है गलेबाज, सुरीले गायकों का। दूसरा है गंभीर और गहरी कविताओं की सपाट बयानी का। कवि सम्मेलन और मुशायरों में मुहावरा है कि मुशायरा लूट लिया अर्थात खूब तालियां बजाई गईं और रचनाओं की प्रशंसा हुई। गलेबाजी के क्षेत्र में हरिवंशराय बच्चन सरताज कवि हुए हैं। उनकी आवाज में बहुत दम था और अमिताभ बच्चन को भी आवाज की विरासत हासिल हुई है। अरसे पहले एक एल.पी. रिकॉर्ड भी जारी हुआ था 'बच्चन रीसाइट्स बच्चन' जिसमें अमिताभ बच्चन ने अपने पिता की कविताओं को अपनी आवाज में ध्वनिबद्ध किया था। नीरज भी बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से मंच पर कविता पाठ करते थे। अपनी रचना 'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे' को वे बड़े दिलकश अंदाज में प्रस्तुत करते थे। समय के साथ उन्होंने 'कारवां' में नए पद जोड़े और आंकड़ा आधा दर्जन कम सौ का हो गया और इत्तेफाक देखिए कि मृत्यु भी आधा दर्जन कम सौ पर घटी। हमारे राहत इंदौरी भी मंच पर ऐसे गरजते हैं कि पड़ोसी मुल्कों में भूकम्प आ जाता है।
नीरज ने फिल्म उद्योग में दो बार प्रवेश किया, बिल्कुल उसी तरह जैसे कार्यक्रमों में 'वन्स मोर' 'एक बार और' का हंगामा बरपा होता है। पहली बार उनका 'कारवां' फिल्म गीत की शक्ल में 'नई उमर की नई फसल' में आया परंतु फिल्म असफल रही। कुछ वर्ष पश्चात शैलेन्द्र की मृत्यु होने के बाद राज कपूर ने उन्हें 'जोकर' के कुछ गीत लिखने के लिए निमंत्रित किया। ज्ञातव्य है कि 'जीना यहां मरना यहां, उसके सिवा जाना कहां' और कुछ गीत शैलेन्द्र लिख चुके थे। नीरज ने अपनी एक लम्बी कविता राज कपूर को सुनाई और राज कपूर ने कहा कि इसी कविता को सर्कस में जोकर द्वारा गाये हुए गीत में बदल दो। राज कपूर ने नीरज से कहा कि बड़े अक्षरों में लिखकर वे संगीतकार शंकर (जयकिशन) से मिलें। शंकर ने बड़े अक्षरों में लिखा लंबा गीत देखा तो राज कपूर से कहा कि क्या 'रामायण' या 'महाभारत' बनाने जा रहे हैं। राज कपूर ने शंकर से कहा कि नीरज से इसे सुनों और उसी धुन का प्रयोग करें तथा इन्टरल्यूड बनाएं। नीरज से तरन्नुम में सुनकर शंकरजी ने 'ए भाई जरा देखकर चलो' को स्वरबद्ध किया। इस गीत के फिल्मांकन में एक शॉट यह प्रभाव देता है मानो 'आंसू के मध्य उभरती मुस्कान' देख रहे हैं और पूरी फिल्म का सार भी इस एक शॉट में आ गया। यह जादुगरी फिल्मकार और उनके कैमरामैन राधू करमाकर की है।
नीरज ने देव आनंद के लिए भी गीत लिखे जिनमें 'शोखियों में घोला जाये' लोकप्रिय हुआ। सचिन देव बर्मन ने फिल्म 'शर्मीली' के लिए नीरज के गीत लिए। यह महज इत्तेफाक है कि नीरज के लिखे गीतों वाली कई सारी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल हुईं और फिल्म उद्योग में अफवाह फैलाने वालों ने नीरज पर 'अभागा' का लेबल चस्पा कर दिया, जिससे खिन्न होकर उन्होंने फिल्म उद्योग छोड़ दिया गोयाकि एक बार इश्क किया और दो बार खोया। यह एक फ्रेन्च कथा से लिया गया मुहावरा है। कथा इस तरह है कि एक योद्धा अपने मित्र से प्रेम-पत्र लिखवाता था और उन काव्यमय पत्रों को पढ़कर प्रेमिका उस पर मोहित हो गई। उनका विवाह भी हो गया और पत्नी ने सत्य जान लिया कि वे प्रेम-पत्र एक कवि ने लिखे हैं। कुछ ही समय बाद युद्ध हुआ जिसमें योद्धा और पत्र लेखक दोनों ही मारे गए तब उस महिला ने कहा 'आई लव्ड वन्स बट लॉस्ट ट्वाइस'। एक बार प्रेम करके दो बार खोना इसी फ्रेन्च कथा से लिया गया है।
हवाई सफर में लगेज पंद्रह किलो से अधिक हो तो अतिरिक्त पैसे देने पड़ते हैं। वर्तमान सरकार ने यही नियम रेल यात्रा पर भी लगा दिया है परंतु स्टेशनों पर वजन की मशीनें नहीं हैं। हमारा देश अपनी भीतरी ताकत से संचालित है और तमाम सरकारें केवल उसकी गति को रोकने का प्रयास करती हैं परंतु भीतरी ताकत से देश प्रवाहमान बना रहता है। नीरज के पास जीने के लिए बड़ा जोश रहा और उन्हें शराब पीने का शौक था। वे बेहद पीते थे परंतु उन्हें कभी लड़खड़ाते या गिरते नहीं देखा। उनकी इस बात को हम काशिफ इन्दौरी के एक शेर से भी समझ सकते हैं - 'सरासर गलत है मुझ पे इल्ज़ाम-ए-बला नोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब'।
उनकी जीवन शैली की एक बानगी इस तरह है कि इन्दौर में अपनी फ्लाइट चूक जाने के कारण वे रात खाकसार के घर गुजारने आए। उन्होंने अमरूद खाने की इच्छा जाहिर की और इतवारिया बाजार से अमरूद लाए गए। उन्होंने लगभग तीन पाव अमरूद खाए और सो गए। चंद घंटों बाद जागे और अलसभोर तक शराबनोशी की तथा समय पर एयरपोर्ट भी पहुंचे। क्या अमरूद शराब का एन्टीडोट है? शरीर विज्ञान क्षेत्र में धारणाएं खारिज होती रहती हैं। कभी अंडे का पीला भाग खाना वर्जित कर दिया गया और आज उसकी सिफारिश की जा रही है। इस धुन्ध में यही बेहतर है कि व्यक्ति स्वयं निर्णय करे कि उसे क्या खाना है। कोई भी देश अपने पहाड़ों, नदियों और रेगिस्तान से नहीं जाना जाता वरन् अवाम के सोच-विचार से जाना जाता है क्योंकि पहाड़ों की ऊंचाई घटती-बढ़ती है और नदियां प्रदूषित होती रहती हैं। वैचारिक प्रदूषण के प्रयास जारी हैं परन्तु हमें अवाम पर भरोसा करना चाहिए।