'सुपर 30' और शिक्षा में आनंद ही आनंद / जयप्रकाश चौकसे

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'सुपर 30' और शिक्षा में आनंद ही आनंद
प्रकाशन तिथि : 02 अगस्त 2019


फिल्मकार विकास बहल की ऋतिक रोशन अभिनीत फिल्म 'सुपर 30' टिकट खिड़की पर 150 करोड़ से अधिक रकम अर्जित कर चुकी है। विदेशों में भी सफलता अर्जित कर रही है। यह फिल्म बिहार के महान शिक्षक आनंद कुमार के संघर्ष से प्रेरित है। आनंद ने साधनहीन परिवारों के 30 छात्रों को पढ़ाया और आईआईटी परीक्षा में तीसों छात्र उत्तीर्ण हुए। शिक्षक आनंद की राह में नकारात्मक शक्तियों ने रोड़े अटकाए, हिंसा का प्रयोग भी किया परंतु एकता, इच्छाशक्ति और परिश्रम ने यह सिद्ध किया कि प्रतिभा जन्मजात नहीं होती। पटकथा, निर्देशन के साथ ऋतिक रोशन के अभिनय ने भी योगदान दिया। ऋतिक रोशन ने शिक्षक आनंद की चाल, लहजा इत्यादि को इस तरह अपने अभिनय में शामिल किया कि वे बिहार के स्कूल जाएं तो छात्र उन्हें आनंद सर ही समझेंगे। स्वयंभू फिल्म पंडित हैरान हैं कि फिल्म में प्रेम कथा नहीं है, हास्य के नाम पर कोई भोंडापन और अश्लीलता नहीं परोसी गई है। विदेश में शूटिंग भी नहीं की गई है, गोयाकि तथाकथित मसाले फिल्म में नहीं है। हमारे यहां यह भ्रम रचा गया है कि मसाला फिल्में कामयाब होती हैं और लीक से हटकर अछूते विषयों पर बनी फिल्में सफल नहीं होती परंतु तथ्य यह है कि अधिकांश सफल फिल्में लीक से हटकर बनी हैं। 'मदर इंडिया' के अंतिम दर्शन में मां अपने लाड़ले पुत्र को गोली मार देती है, क्योंकि वह गांव की कन्या को उसके विवाह मंडप से जबरन उठा लाया था। 'आवारा' में पिता-पुत्र संघर्ष के नाटकीय दृश्य हैं। 'मुगल-ए-आजम' भी पिता-पुत्र टकराव की फिल्म है। चौथी सफल फिल्म 'गंगा जमुना' के गीत-संगीत सभी अवधी भाषा में हैं। इसी तरह 'सुपर 30' भी लीक से हटकर बनी फिल्म है और अवाम उसे पसंद कर रहा है। हमारे फिल्मकार अवाम की पसंद के अपने आकल्पन से फिल्म बनाते हैं। उनकी अवाम की पसंद का अंदाज कुछ वैसा ही है जैसे पांच दृष्टिहीन व्यक्ति हाथी का वर्णन कर रहे हों। इसी कारण 85 फीसदी फिल्में असफल होती हैं, परंतु फिल्म उद्योग को सदा सुहागन उद्देश्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें पूंजी निवेश के लिए नए लोग निरंतर आते रहते हैं। एक व्यक्ति लखनऊ में लजीज कवाब बेचकर अमीर हो जाता है तो मुंबई जाकर फिल्म बनाने की हूक में तबाह हो जाता है। विविध शहरों से लोग इसी मकसद से मुंबई आते हैं। अजीब बात यह है कि पान की दुकान चलाने के लिए कत्था बनाना सीखना जरूरी है। यह भी जानना जरूरी है कि कितनी मलाई में उसे फेंटा जाए परंतु फिल्म बनाने की कोई जानकारी नहीं होने पर भी फिल्म बनाने की तीव्र इच्छा उसे मुंबई ले आती है। मुंबई फिल्म उद्योग से अपनी असफलता के कारण निकाले गए कुछ लोग मुंबई सेंट्रल और वीटी रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं और ट्रेन से उतरने वालों में फिल्म बनाने की महत्वाकांक्षा रखने वाले एक नज़र में भांप लेते हैं और सब्जबाग दिखाकर उसे लूट लेते हैं। बिहार के शिक्षक आनंद की तरह ही फिल्म निर्माण को भी कोई सुपर 30 कक्षा में पढ़ाए तो बात बन सकती है। स्कूली पाठ्यक्रम में कम से कम फिल्म आस्वाद को ऐच्छिक विषय तो बनाया ही जा सकता है परंतु शिक्षक खोजना कठिन होगा। जब अन्य पारंपरिक विषयों के आनंद जैसे शिक्षक ही नहीं मिल पा रहे हैं। गुरु द्रोणाचार्य के देश में शिक्षक प्रजाति विलोप होती गई, क्योंकि हमारे समाज में व्यक्ति के वेतन के आधार पर उसे सम्मान दिया जाता रहा है। गांवों में पटवारी तक के आने पर महिलाएं खड़ी हो जाती हैं परंतु शिक्षक के आने पर वे खड़ी नहीं होतीं और कहती है कि मास्टर आ रहा है।

अमेरिका में 1935 में सिनेमा विधा सिखाने वाली संस्थाएं खुल गईं। प्रवेश-पत्र पर लिखना होता था कि फिल्मकार बनना चाहते हो या फिल्म विधा के शिक्षक बनना चाहते हो। इसी नीति के कारण अमेरिका में प्रशिक्षित लोग अन्य देशों में फिल्म विधा सिखा रहे हैं। प्राइवेट ट्यूशन उद्योग पर प्रकाश झा ने 'आरक्षण' नामक फिल्म बनाई थी। शांताराम ने जितेंद्र अभिनीत 'बूंद जो बन गई मोती' जैसी सार्थक फिल्म रची थी, जिसमें शिक्षक अभिनव ढंग से पढ़ाता है। वह छात्रों को घुटन भरी कक्षाओं से निकालकर प्रकृति की गोद में ले जाकर शिक्षा देता है।

यह भी एक इत्तेफाक है कि बिहार में शिक्षक आनंद की तरह ही बुरहानपुर में भी शिक्षक आनंद मैक्रोविजन संस्था और अस्पताल 'ऑल इज वेल का' संचालन कर रहे हैं। भारतीय समाज में तो ऑल इज नॉट वेल है परंतु कुछ संस्थाएं सार्थक कार्य कर रही हैं, यह कम तसल्ली की बात नहीं है। 'नीम हकीम' शीर्षक का लेख सरकारी अधिनियम के दोष पर प्रकाश डालता है। आयुष डॉक्टर को एलोपैथिक नुस्खा नहीं लिखना चाहिए। जैसे एलोपैथी के डॉक्टर कभी आयुर्वेद की दवा का नुस्खा नहीं लिखते। आजकल अनावश्यक विवाद जन्म लेते हैं। संभवत: आक्रोश व्यवस्था ठप होने पर होता है और गुस्सा कहीं और जाहिर किया जाता है। आयुष के प्रति असम्मान की भावना नहीं है। दवा बेचने वाला भी नुस्खा लिखने का अधिकार रखने लगा है। सभी आहत लोगों से क्षमा-याचना।