'हीरोपंती' साजिद फैक्टरी का सफल प्रोडक्ट / जयप्रकाश चौकसे

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'हीरोपंती' साजिद फैक्टरी का सफल प्रोडक्ट
प्रकाशन तिथि : 24 मई 2014


साजिद नाडियादवाला और साबिर खान की फिल्म 'हीरोपंती' नए कलाकार टाइगर श्राफ को एक जांबाज लार्जर दैन लाइफ सितारा छवि में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से बनाई गई है और इसमें उन्हें सफलता मिली है। मनोरंजन उद्योग के नामी परिवार की तीसरी पीढ़ी के साजिद नाडियादवाला यह बखूबी जानते हैं कि इस तरह की फिल्म के लिए धन और तकनीकी साधन विपुल मात्रा में उपलब्ध कराना आवश्यक है और उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। साजिद मार्केटिंग के सारे गुण जानते हैं और सितारे को प्रोडक्ट की तरह कैसे जनमानस के अवचेतन में दर्ज करना चाहिए इसके भी जानकार हैं। यह संभव है कि पहले उन्होंने युवा टाइगर श्राफ की शारीरिक चपलता, नृत्य एवं एक्शन कौशल को देखा हो और फिर अपनी टीम के साथ इस फिल्म को असेम्बल किया।

टाइगर के पिता जैकी श्राफ की पहली फिल्म सुभाष घई की 'हीरो' थी, अत: दर्शक की सामूहिक याद को कुरेदने के लिए फिल्म का नाम रखा 'हीरोपंती' तथा पाश्र्वसंगीत में सुभाष घई की 'हीरो' के लिए लक्ष्मी-प्यारे की अत्यंत मधुर 'थीम पीस' की सीटी बजाई जा रही है। इस आभास में बदला और पूरी फिल्म के सारे धमाल दृश्यों में यह माधुर्य अपने व्हिसलिंग स्वरूप में बजाया जाता है। धन्य हो लक्ष्मी-प्यारे जिनकी यह धुन तीन दशक बाद अपने कम्यूटर जनित ध्वनि युग में फिर दर्शक को बांध लेती है।दूसरी चतुराई यह है कि नए सितारे की एक्शन फिल्म का आधार एक प्रेमकथा होती है और साजिद तथा साबिर ने अपने पाश्र्व संगीत में विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म '1942 ए लव स्टोरी' के आरडी बर्मन और जावेद अख्तर की रचना 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' को भी पाश्र्व संगीत में शामिल किया है।

अत: पूरी फिल्म उस माधुर्य से ओतप्रोत है जो उसके संगीतकारों ने नहीं रचा है। इसे कहते हैं पूर्वजों द्वारा खाये घी का नई नस्ल की रगों में खून बनकर दौडऩा। यह मौलिक सृजन भले ही न हो परन्तु इसका सटीक प्रयोग अन्य किसी ने नहीं किया और साजिद-साबिर ने किया। यह फिल्म इस बात को रेखांकित करती है कि सटीक पाश्र्व संगीत किस तरह अविश्वसनीय दृश्यों को भी दर्शक के मन में उतार देते हैं और सिनेमा का यह आधारभूत सिद्धांत कि यह यकीन दिलाने की कला है, को पुन: साबित करते हैं।

युवा टाइगर श्राफ की शक्ल अपने पिता जैकी श्राफ से नहीं मिलती वरन् अपनी मां आयशा से मिलती है जैसे रनवीर कपूर में उनकी मां नीतू कपूर की झलक मिलती है। परन्तु टाइगर श्राफ को जैकी श्राफ की अकड़ और अलमस्ती से संवारा गया है जो हर व्यक्त को 'भीड्ृ' अर्थात मित्र कहकर संबोधित करते हैं और इस फिल्म का नायक भी अपने भीड्ृ अर्थात मित्र की खातिर शेर की मांद में घुसकर अपने मासूम मित्र की 'बकरी' को बचा लेता है। इस तरह दर्शक को यह विश्वास दिलाया गया है कि यह लड़का यूं ही टाइगर नहीं कहलाता। साजिद के गहरे मित्र सलमान खान रहे हैं और लार्जर दैन लाइफ पात्रों को उन्होंने बखूबी प्रस्तुत किया है अत: फिल्म का मूल संवाद सलमान खान नुमा है। दूसरों को हीरोपंती आती नहीं और मुझसे यह जाती नहीं। यह भी अजीब इत्तेफाक है कि जैकी श्राफ की 'हीरो' का नया संस्करण सलमान खान बना रहे हैं और उन्होंने आदित्य पंचोली के पुत्र को नायक लिया है तथा सुनील शेट्टी की बिटिया नायिका है।

अब आइये, कथा विचार पर जो उन्होंने उन समुदायों से लिया है जहां बेटी गैरजातीय युवा से प्रेम करें तो उसे पंचायत के आदेश से मार दिया जाता है। भारत में खाप पंचायतें संविधान के परे एक निर्मम व्यवस्था है, इतनी गंभीर समस्या को आधार बनाकर फिल्म को सामाजिक प्रतिबद्धता का मुखौटा दिया गया है क्योंकि मूल समस्या पर तो एक गंभीर त्रासदी ही बनाई जा सकती है परन्तु यहां तो एक सुपरहिट असेम्बल करना है अत: पूरा नजरिया व्यावसायिक प्रतिबद्धता का है। यह भारतीय सिनेमा का एक पक्ष है कि गंभीर बात को लेकर हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म रचे परन्तु इसमें एक आहत पिता जो रूढिय़ों और अपने स्नेह के द्वंद्व में छटपटा रहा है, अत्यंत गहराई से लिखा और फिल्माया गया है जैसे बॉक्स ऑफिस के घने काले बादलों में अद्भुत उजास की बिजली कभी-कभी कौंधे। इस 'उजास' का कंजूस की तरह प्रयोग करना ही फिल्मकार की 'सम्पदा' को बढ़ाता है।

बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने भाषा में गहरी तोडफ़ोड़ की है। हीरोगिरी हो सकता है परन्तु हीरोपंती इन शक्तियों की खोज है। जैसे 'दिल मांगे मोर' की सफलता फिल्म के गीत में इस तरह आई, 'पप्पू कांट डांस ाला'। अब तो भाषा का अपहरण कोई मुद्दा ही नहीं है।