अँग्रेज़ी पत्रकार व साहित्यकार खुशवंत सिंह / कुँवर दिनेश
हिमाचल प्रदेश के सोलन ज़िला के कसौली नगर में निवास करने वाले अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक, पत्रकार, स्तम्भकार एवं उपन्यासकार, पद्मविभूषण खुशवंत सिंह स्वयं को 'आधा हिमाचली' बताते थे। चण्डीगढ़ से प्रकाशित प्रतिष्ठित समाचारपत्र 'दि ट्रिब्यून' में साप्ताहिक स्तम्भ 'दिस अबव ऑल' के शनिवार, 26 जुलाई 2003 के अंक में खुशवंत सिंह ने लिखा था― "हिमाचल बचपन से ही मेरा ग्रीष्मकालीन आवास रहा-रहा है। कुछ औचित्य के साथ मैं ख़ुद को आधा हिमाचली, आधा दिल्लीवाला-पंजाबी बताता हूँ।" हिमाचल में अपने निवास एवं पदयात्राओं के विषय में उन्होंने लिखा― "हिमाचल में मेरा ठिकाना शिमला, मशोबरा और पिछले 30 सालों से कसौली तक ही सीमित था। आसपास की पहाड़ियों और घाटियों को मैंने यथासम्भव पैदल चलकर ही देखा। मैं सतलुज के किनारे तत्तापानी (36 मील) के गर्म पानी के झरनों तक पैदल चला गया था। मैं शिमला से नारकंडा चला गया और वापस हिंदुस्तान-तिब्बत रोड (72 मील) पर दो चाँदनी रातों और एक दिन में लगभग बिना रुके चलता रहा। कुछ साल पहले तक मैं कसौली से कालका तक पैदल ही दिल्ली जाने के लिए ट्रेन पकड़ने जाता था।" अपनी पदयात्रा के दौरान उन्होंने प्रकृति के सुरम्य दृश्यों के साथ-साथ कई वन्यजीवों को भी देखा, जिनके विषय में वे विशेष रूप से उल्लेख करते हैं―"मैंने बहुत सारे जंगली जानवर देखे: तेंदुए, जंगली बिल्लियाँ, माउस-हिरण, साही, सियार, लोमड़ी, साँप और पक्षियों की एक विपुल विविधता। मैं वनस्पतियों और जीवों के बारे में, गाँव के लोगों और उनके रीति-रिवाजों के बारे में और अधिक जानना चाहता था।" हिमाचल के विषय में अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वे हिमाचल-सम्बन्धी साहित्य को अक्सर पढ़ा करते थे।
दबंग पत्रकार और मुक्तकण्ठ साहित्यकार खुशवंत सिंह अक्सर विवादों में घिरे रहते थे। वे एक राजनयिक और वकील भी थे, किन्तु उन्हें उनकी पत्रकारिता एवं साहित्यिक कृतियों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। उन्हें पद्म विभूषण और साहित्य अकादमी फैलोशिप से अलंकृत किया गया था। उनके द्वारा भारत के विभाजन के समय के अपने अनुभवों को याद करते हुए लिखा उपन्यास 'ट्रेन टू पाकिस्तान' ―उनकी सबसे उल्लेखनीय कृति है। खुशवंत सिंह कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं जैसे 'द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया' , 'द नेशनल हेराल्ड' और 'हिंदुस्तान टाइम्स' के संपादक रहे और पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने ख़ूब नाम बनाया। पंजाब के खुशाब जिले (अब पाकिस्तान में) के हदाली में एक प्रमुख बिल्डर शोभा सिंह और वीरन बाई के घर पैदा हुए। उस समय में जन्म और मृत्यु की अधिकांश घटनाएँ दर्ज नहीं की गई थीं, इसलिए उनके पिता ने खुशवंत सिंह को दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में भर्ती कराते समय उनकी जन्मतिथि 2 फरवरी, 1915 लिखा दी। हालाँकि उनकी दादी लक्ष्मी बाई के अनुसार उनका जन्म अगस्त में हुआ था; बाद में उन्होंने सिंह को अपना जन्मदिन 15 अगस्त के दिन मनाने के लिए प्रेरित भी किया। उनकी दादी ने उन्हें खुशाल सिंह नाम दिया था और उन्हें 'शाली' कह कर पुकारती थीं।
सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए, उन्होंने लाहौर में गवर्नमेंट कॉलेज, दिल्ली में सेंट स्टीफेंस कॉलेज और लंदन में किंग्स कॉलेज में पढ़ाई की। उन्होंने कई वर्षों तक एक वकील के रूप में काम किया, लेकिन इस काम में उन्हें आत्मसंतुष्टि नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने भारतीय विदेश सेवा में टोरंटो, कनाडा में भारत सरकार के एक सूचना अधिकारी के रूप में कार्य किया। उसके बाद, उन्होंने लंदन और ओटावा में भारतीय उच्चायोग के लिए प्रेस अताशे और लोक-पदाधिकारी के रूप में भी काम किया था। 'द इलस्ट्रेटेड वीकली' के संपादक के रूप में उनके नौ साल के कार्यकाल के दौरान, पत्रिका की पाठक-संख्या 65, 000 से बढ़कर 400, 000 हो गई थी। वे भारत सरकार की एक मासिक पत्रिका 'योजना' के संस्थापक और संपादक भी रहे। 1980 से 1983 तक वे 'हिंदुस्तान टाइम्स' के संपादक रहे। संपादक के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद वे निरन्तर स्तम्भ लिखते रहे ― 'दिस अबव ऑल' और 'विद मैलिस टुवार्ड्ज़ वन एण्ड ऑल'। उनके ये स्तम्भ व्यापक रूप से पढ़े गए और चर्चा में बने रहे। खुशवंत सिंह ने उपन्यास एवं कथा-साहित्य के साथ-साथ कई नॉन-फिक्शन रचनाएँ लिखीं जो बहुत लोकप्रिय हुईं। उनकी रचनाएँ आकर्षक व दिलचस्प थीं और अधिकांश बेस्टसेलर बन गईं। उनकी कुछ लोकप्रिय रचनाएँ थीं ― उपन्यास 'ट्रेन टू पाकिस्तान' व 'दिल्ली: ए नॉवेल' और उनकी आत्मकथा 'ट्रुथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस'। उनकी 1953 की पुस्तक, 'ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिक्ख' को सिक्ख इतिहास के विषय पर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति माना जाता है।
लेखक के रूप में खुशवंत सिंह की छवि एक स्पष्टवादी, आलोचक एवं विद्रोही के रूप में रही है। उनका व्यक्तित्व विवादास्पद बना रहा― मद्यप, कामुक, कामलोलुप, महिलाओं के प्रति आसक्त और भद्दे-द्वयार्थक चुटकुलों में आनन्द लेने वाला। समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में उनके स्तम्भ में उनके लोगों में उन्हें एक बल्ब में पेन और स्कॉच की एक बोतल के साथ चित्रित किया जाता था। अपने एक साक्षात्कर में उन्हें जब पूछा गया कि क्या इस प्रकार का चित्रण उनके चरित्र के लिए बुरा नहीं, तो उन्होंने हंसकर कटाक्ष किया कि एक औरत भी साथ में दिखा देते तो लोगों की अपेक्षाओं के अनुसार सब सही परिभाषित हो जाता। स्वयं पर हास्य-विनोद करने वाले और निन्दा-आलोचना से असम्पृप्क्त एवं अप्रभावित खुशवंत सिंह बेबाक और बेपरवाह ढंग से निरन्तर लिखते रहे। अक्सर उनके कामुकतापूर्ण लेखन को व्यावसायिकता व बाज़ार की माँग के रूप में भी देखा जाता था और नि: सन्देह लोगों की मानसिकता के अनुरूप लेखन करने में वे दक्ष थे। अपने स्वयं के लिए खुशवंत सिंह ने एक समाधी-लेख अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व ही लिख डाला था, जिसके विषय में कहते थे: "मैं किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाना पसंद करूँगा जिसने लोगों को मुस्कुराने का पाठ सिखाया। कुछ साल पहले, मैंने अपना खुद का 'एपिटाफ़' (स्मरण-लेख अथवा समाधी-लेख) लिखा था:" यहाँ सो रहा है वह शख़्स जिसने न तो इन्सान को बख़्शा और न ही भगवान को। "
खुशवंत सिंह अपने अतिथियों को एक चिट्ठी दिखाया करते थे। मैंने भी टेलीविज़न पर उनके एक साक्षात्कार में उन्हें इसका उल्लेख करते हुए देखा था। यह एक कैनेडियन सिक्ख द्वारा गुरुमुखी में भेजी गई चिट्ठी थी, जिसके लिफ़ाफ़े पर पता लिखा था ― "खुशवंत सिंह, बास्टर्ड, इंडिया" और हैरानी की बात थी कि वह चिट्ठी एक हफ़्ते के अन्दर ही दिल्ली में उनके घर पर पहुँचा दी गई और यह पत्र उन्हीं के लिए लिखा गया था। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने एक स्तम्भ में भारतीय डाक विभाग की तुरन्त सेवा पर कुछ-कुछ व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी भी की थी: "मैं दुनिया में अन्य किसी देश के बारे में नहीं सोच सकता, जहाँ डाक सेवा वालों ने किसी ऐसे व्यक्ति को खोजने की ज़हमत उठाई होगी, जिसकी पहचान इतनी ख़राब हो ।"
खुशवंत सिंह का हिमाचल प्रेम
अपने एक संस्मरणात्मक लेख 'दि हॉन्टेड शिमला रोड़' में खुशवंत सिंह ने शिमला, मशोबरा, कोटी और कोटगढ़ की पृष्ठभूमि दिखाई है। एक प्रसंग में वे लिखते हैं: "कई साल पहले सेंट क्रिस्पिन की घंटियाँ मशोबरा के लोगों को रविवार की सुबह जगा दिया करती थीं। हमने अपनी खिड़कियाँ खोल दीं और झंकार को धूप के साथ कमरे में आने दिया। हमने चर्च में प्रार्थना के लिए होटल और घरों से आते अँग्रेज़ लोगों को देखा। यह सप्ताह का एकमात्र दिन था जब वे स्थानीय निवासियों से पहले उठे थे। पूरी सुबह शिमला से रिक्शा पर या घोड़े पर सवार और पैदल आने वालों का तांता लगा रहा। शाम के समय जब वे एक बार फिर प्रार्थना कर रहे थे, शिमला की सड़क शहर में लौटते लोगों के गीतों और हँसी से गूँज उठी।" कथानक की कालावधि में मशोबरा स्थित हैरिटेज होटल 'वाइल्ड-फ़्लावर हॉल' (जो अब ओबरॉय के होटल 'दि ओबरॉय रिट्रीट' में परिवर्तित हो चुका है) तथा एक अन्य होटल 'दि गेबल्ज़' (जो अब महेन्द्रा ग्रुप के पास है) का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। साथ ही शाली की चोटी के पीछे 'एक फ़्रेम में जड़े हिमरेखा की छवि' और 'सन्तरी धुँध में रजत-सर्प की गति' से प्रवहमान सतलुज नदी का जीवन्त वर्णन दिया है। साथ ही मशोबरा-शिमला मार्ग पर नैसर्गिक सौन्दर्य का भी सुंदर और चित्तरंजक विवरण दिया गया है। शिमला और इसके आसपास के प्राकृतिक दृश्य और वातावरण के साथ-साथ तत्कालीन समाज, जनजीवन और संस्कृति का चित्रण प्रभावी ढंग से किया गया है। एक अन्य लेख 'दि गोस्ट्स ऑफ़ कसौली' में खुशवंत सिंह ने अँग्रेज़ों के बसाए कसौली नगर के कई रूमानी दृश्यों को प्रस्तुत किया है। कसौली का मॉल रोड़ और कसौली क्लब आदि सहित कसौली की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन उनके इस लेख में बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है।
स्वतन्त्रता-पूर्व ब्रिटिश राज के समय पर आधारित अपने एक उपन्यास 'आई शैल नॉट हियर द नाइटिंगेल' में खुशवंत सिंह ने शिमला का उल्लेख किया है, जहाँ कहानी का एक अजीब प्रसंग घटित होता है। कहानी बूटा सिंह के परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जो ब्रिटिश के प्रति वफ़ादार रहता है, लेकिन उसका युवा विद्रोही बेटा शेर सिंह अपने क़रीबी दोस्त मदन लाल के साथ मिलकर अँग्रेज़ी हुकूमत के साथ लड़ने के लिए हिंसा का मार्ग चुनता है। अन्य मुख्य पात्रों में हैं बूटा सिंह की पत्नी और शेर सिंह की माँ सबराई, शेर सिंह की बहन बीना, शेर सिंह की पत्नी चंपक और मदन लाल की बहन सीता। कॉलेज की परीक्षा समाप्त होने के बाद बीना और सीता, मदन के साथ शिमला पहुँचते हैं। जल्द ही चंपक भी उनके पास शिमला पहुँच जाती है। वहाँ मदन बीना पर डोरे डालने लगता है, लेकिन चंपक उसे अपनी ओर आकर्षित करती है और वह बीना को छोड़ चंपक पर आसक्त हो जाता है। कुछ समय बाद बीना बीमार पड़ जाती है और उसकी माँ सबराई भी वहाँ पहुँचती है-है और फिर वे सब पंजाब लौट जाते हैं।
शेर सिंह की पत्नी चंपक का चरित्र अप्रत्याशित-सा लगता है जो लगातार अपनी यौन इच्छाओं की पूर्त्ति में लगी है। वह शेर सिंह के पैरों की मालिश करके और फिर उसके साथ अश्लील बातें करके उसए उत्तेजित कर उसकी कामेच्छा को जगानी का प्रयास करती है। दूसरी ओर शेर सिंह का दोस्त मदन लाल उसकी पत्नी और बहन दोनों की ओर ललायित रहता है, जबकि उसकी अपनी पत्नी रहस्यमयी रूप से उससे दूर है। शिमला का प्रकरण केवल मदन लाल और चम्पक की रंगरेली के लिए बनाया गया लगता है। उनके यौन-सम्बन्ध के दृश्यों का विवरण बिना अभिवेचन के दिया गया है। चम्पक की नग्नता के दृश्य भी हैं, जिनमें एक जगह उसे ग़ुसलख़ाने में उसे नहाते हुए दिखाया है। वह दरवाज़ा खुला छोड़ देती है जब तेरह वर्ष का नौकर मुंडू उसे गरम पानी देने जाता है और उसे बिल्कुल नग्न अवस्था में देख अवाक् रह जाता है। लेकिन चम्पक को नग्नता से कोई परहेज़ नहीं है। इस उपन्यास के हर अध्याय में नग्नता, कामुकता और यौन-सम्बन्धों के कई दृश्य हैं, ऐसे में शिमला का यह विशेष प्रसंग कुछ आलोचकों को बेतुका, ग़ैर-ज़रूरी और कामलिप्सा का प्रदर्शन मात्र लगता है। सम्भवत: उपन्यासकार ने समाज में जीवन-मूल्यों और पारिवारिक मूल्यों के विघटन और पुरुषसत्तात्मक वैवाहिक ढाँचे के क्षरण को दिखाने का प्रयास किया है और विशेषकर स्त्री के पतिव्रता के आदर्श को भी परिस्थितियों एवं काम-लोलुपता के आगे खण्डित होते हुए दिखाया है।
पचास से अधिक वर्षों के लिए खुशवंत सिंह ने कई ग्रीष्म कसौली स्थित एक कॉटेज 'राज विला' में बिताए, जिसे उनके पिता ने एक ब्रिटिश दंपत्ति से खरीदा था, जो आज़ादी के बाद भारत छोड़ गए थे। उन्होंने अपना अधिकांश लेखन यहीं किया। पिछले दो साल से उनके बेटे राहुल यहाँ अपने पिता के नाम पर एक साहित्यिक उत्सव आयोजित कर रहे हैं। 14 अक्तूबर 2016 को हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री वीरभद्र सिंह ने खुशवंत सिंह की स्मृति में कसौली से कालका तक उनके द्वारा अक्सर प्रयोग किए जाने वाले वनमार्ग को 18 लाख रुपए की लागत से 'खुशवंत सिंह ट्रैक' के नाम से विकसित करने के आदेश दिए थे।
20 मार्च 2014 के दिन खुशवंत सिंह के देहावसान के समय राहुल पंडिता ने 21 मार्च 2014 के समाचारपत्र 'दि हिन्दू' में उनके लिए अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा ― "कसौली अपने 'लेडीज़ मैन' (महिलाओं के प्रिय पुरुष) को याद करता है..." उन्होंने बताया कि कसौली निवासी आज भी उन्हें 'लेडीज़ मैन' के रूप में याद करते हैं। अपने घर 'राज विला' में शाम को एक घण्टे के लिए पार्टी का आयोजन किया करते थे, जिसमें वे ख़ूबसूरत महिलाओं से घिरे रहते, उनसे वार्तालाप करते दिखाई देते थे। इस घण्टे के दौरान वे अपने मेहमानों से अपने जीवन के कई क़िस्सों को साझा करते थे, जिनमें कुछ प्रसिद्ध महिलाओं के साथ उनकी मुलाक़ातों के क़िस्से भी शामिल थे। राहुल पंडिता ने उनके एक बेहद दिलचस्प क़िस्से का उल्लेख किया है―"उनके सभी दोस्तों ने उस रात के बारे में जाना जो अभिनेत्री नरगिस ने उनके कॉटेज में बिताई थी। उनके बच्चे सनावर में पढ़ते थे और उन्हें कोई ठहरने के लिए उपयुक्त आवास नहीं मिला। श्री सिंह ने उनसे कहा कि रहने के लिए उनका स्वागत है, बशर्ते वे दुनिया को यह बताए कि नरगिस 'मेरे बिस्तर' में सोई थी। माना जाता है कि नरगिस हँस पड़ीं और मान गईं।"
खुशवंत सिंह के साथ मेरी व्यक्तिगत स्मृति भी जुड़ी है। वर्ष 1999 में मेरे पिता ने दिल्ली स्थित उनके आवास पर उनसे मुलाक़ात की थी और उसी वर्ष प्रकाशित अँग्रेज़ी में मेरा लघुकविता-संग्रह 'थिंकिंग अलाउड: मिनी पोम्ज़' उन्हें भेंट किया था। उस पुस्तक पर मेरा पता भी अंकित था। कुछ दिनों के बाद मुझे एक पोस्टकार्ड मिला, जिस पर जुड़े-जुड़े बारीक अक्षरों में लिखा हुआ था। मैं उस हस्तलेख को साफ़-साफ़ नहीं पढ़ पा रहा था। मैंने पहले हस्ताक्षर को ध्यान से देखा तो खुशवंत सिंह पढ़ा गया। तब भी मेरा ध्यान उस प्रसिद्ध लेखक की ओर नहीं गया, क्योंकि मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि वे मुझे पत्र लिखकर धन्यवाद व्यक्त करेंगे। किन्तु यह खुशवंत सिंह की विशेषता थी कि वे पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे। लगभग 84 वर्ष की आयु में लिखा उनका वह पोस्टकार्ड आज भी मेरे लिए सतत सृजनशीलता की प्रेरणा व ऊर्जा का स्रोत है।
-0-