अँधेरे की अंतःकथा / विपिन चौधरी
अँधेरे की आत्मकथा भूमिका के छोटे से घेरे से निकलकर पूरा विस्तार ले चुकी थी, उस समय उजाले की परिकल्पना करना सिरे से ही बेमानी था. अँधेरा ऊपर, नीचे, दायें-बाएं, सभी दिशाओं में पूरी तरह से फैल गया था और यह दिखा रहा था कि वह हवा की तरह अद्रश्य होते हुए भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में मुस्तैदी से सक्षम है.
यह बिलकुल सच है कि अँधेरे ने इस कहानी में अपने स्पष्ट हस्ताक्षर करने के बाद बकायदा अपनी मुहर लगा दी थी और इसके बाद दुनिया का कोई भी जीवित प्राणी कुछ नहीं कर सकता था.
अपनी शुरुआत से ही यह कथा ही अँधेरे में अपनी सांसे लती आ रही थी. इसके ठीक केंद्र बिंदु में था मनोहर जिसने कदम कदम पर अंधेरे का ही भरण- पोषण पाया था. बचपन से ही मनोहर अँधेरे को अपने कन्धों पर ढो रहा था. अँधेरे ने लंबे समय तक उसका पीछा किया था और फिर वह एक कमजोर लम्हे में मनोहर को अकेला और असहाय पा कर वह उसके कंधे पर सवार हो गया था. तब से बेचारा मनोहर अंधेरे को लगातार ढो रहा है चाहे-अनचाहे.
पिछले दो साल से मनोहर यहाँ हरियाणा के केन्द्रीय कारागार में था अनजाने मे हुए एक अपराध की सजा भोगता हुआ. हरियाणा पुलिस के एक खोजी दस्ते ने मनोहर के पास से सुल्फा नामक मादक द्रव्य मिला था जो उसे एक निश्चित स्थान पर पहुँचाना था. स्याह अँधेरी, दुर्गन्ध और सीलन से भरी जेल की उस छोटी सी कोठरी में जब टाट पर लेटे-लेटे मनोहर के भीतर बेचैनी की उछल कूद बढ़ गयी थी तो मनोहर अपनी ओढी हुई चादर को एक ओर रख कर सुस्त कदमों से बाहर बरामदे की ओर निकल गया.
बाहर का वातावरण कोठरी के अलस माहोल से थोडा कम बोझिल था, पतझड़ की शुरुआत हो चुकी थी. जेल के प्रांगण में लगे पीपल, नीम, बरगद के सभी पेडों ने अपने पुराने पत्तों की तिलांजलि दे दी थी. इस नए मौसम में हर बार की तरह पेड़ पौधे एक नई शुरुआत के लिए तैयार थे और प्रकृति का धन्यवाद देते दिख रहे थे. लेकिन ना जाने क्यों इस पृथ्वी के जनमानस प्रकर्ति के इस बदलाव के साथ नहीं अपना सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे थे. दुनियादारी की जरूरतें प्रकर्ति के बदलाव की इस खूबसूरती पर एक नज़र देखने भर का समय भी नहीं दे रही थी. लोग दुनियादारी का परिमार्जन करने में अपने-अपने सिर झुकाए जुटे हुए थे. गृहणियां अपने घरेलू कामकाज के लिए आरक्षित थी. पुरुष दफ्तरों की और भाग रहे थे और चंद खुशकिस्मत बच्चे स्कूल से घर, घर से स्कूल ने अकाट्य नियम को बड़ी ताकीद के साथ पालन कर रहे थे.
बाकी बचे हुए बच्चे भी नियम से भोर होते हुए ही उठते अपने आधे भरे हुए पेट से उपजी ऐठन के साथ बिना मुह धोये नंगे पाँव ही निकल आते थे हर कदम पर दुनिया के चकाचौंध का सामना करने के लिए दुनिया की लंबोतरी सड़क पर. सब कुछ वैसा ही दोहराया जा था रटा-रटाया.
यह जेल से बाहर की दुनिया का छोटा सा परिचय था. जेल से भीतर की दुनिया का परिचय पुलिसिया लपेट में था. कई पुलिस खाकी वर्दी पहने अकड कर चहल-कदमी कर रहे थे. कई कैदियों के पास पश्चाताप भरे ह्रदय थे और कईयों के भीतर अब भी बदले की लपटें भभक रही थी जिसपर पानी डालने वाला कोई नहीं था और जेल में दूसरी श्रेणी वाले कैदियों की आवाजाही बढ़ रही थी. जेल के भीतर और जेल से बाहर के कल्याण के लिए कई सरकारी योजनाएं थी, पर उनमें से कई योजनायों के लिए बहुमत नहीं मिल सका था और जिनको बहुमत मिल गया था उसके लिए पैसा नहीं मिला था. जिनके लिए पैसा मिल गया था, वे योजनाएं अपने कार्यानवन के लिए घूस का इन्तजार कर रही थी.
जेल में कई कैदी शरण लिए थे जिनके पीछे जुर्मो का अपना अलग इतिहास था. उनके अपराध के पीछे समाज, संस्कार, मनोविज्ञान जैसे कई कारक थे. इन ढेर सारे कैदियों में से एक कैदी सोहन राणा से हमारी कहानी के पात्र मनोहर की अच्छी बनती थी. सोहन राणा ने अपने बड़े भाई के पाँच कातिलों में से एक कातिल पर जानलेवा हमला किया था. बाकी के हत्यारे अपने ऊँचे रसूक के चलते जेल से बाहर थे. एक दूसरा कैदी था इन्दर, जिस पर चोरी का आरोप था, सुरेश सोनी जिसपर चोरी का आरोप था और भीखू एक नामी अपहरणकर्ता था. ये सभी कैदी उसी सामाजिक व्यवस्था से निकल कर आये थे जहाँ साधू, संत, विचारक, नेता और अभिनेता सांस ले रहे थे और अपने आपको और अपने आस-पास की दुनिया को चमकाने में लगे हुए थे.
मनोहर पीपल के पेड़ से झडे हुए पत्तों को एक तरफ हटा कर बैठ गया तभी उसे अपने हाथों में कुछ चुभन महसूस हुई, उसने ध्यान से अपने हथेलियों को देखा वहाँ एक शूल चुभी हुई दिखाई दी, चुटकी के नाखूनों से उसने शूल को बाहर निकला. इसी क्रम में उसे अपनी बहन मुन्नी का ख्याल आया. जब वह कभी-कभार गाँव जाता तो नन्ही बहन मुन्नी ही सबसे जयादा खुश होती और जब कभी खेत में काम करते हुए उसे मनोहर की हथेलियों पर शूल चुभी दिखाई देती तो अपनी नन्ही उंगलियों से उसे निकालने का उपक्रम करती. बाद के जब मनोहर की अपने पिता से खटपट बढ़ने लगी तो उसके घर जाने का सिलसिला बिलकुल ही समाप्त हो गया. आज एक बार फिर से घर की उन पुरानी यादों को दोहराने का समय आ गया है शायद. जब शरीर में थोड़ी हरारत महसूस हुई तो मनोहर अपने पैरों को मोड कर घुटनों पर सिर रख कर सो गया. थोड़ी सी आँख लगते ही एक बार फिर अनेकों बिम्बो, रंगों और श्वेत श्याम चेहरों को पीछे धकेलते हुए जो एक चेहरा सबसे पहले सामने उभर कर आया था वह मुन्नी का ही था मासूम, चुलबुला और शर्मिला चेहरा. मनोहर के भीतर एक हुक सी उठी. वह अपनी बहन की एक झलक पाने के लिए बैचैन हो उठा, पर यह इस समय यह कतई मुमकिन नहीं था.
मनोहर के पिता जब नन्हे से मनोहर को उसकी बुआ के घर छोड़ कर आये थे तब वह केवल नौ साल का था. बुआ के चारों लड़के मनोहर से उम्र में काफी बड़े थे और वे चारों लड़के हद दर्जे के शरारती थे. उधर बुआ और फूफा की दैनिक लड़ाई भी मोहल्ले भर के लिये मनोरंजन की सामग्री होती थी. इस कलह से भरे माहौल में नन्हे से बच्चे को सबने भुला सा दिया गया था. मनोहर रो- रो कर बुआ को अपने गाँव छोड़ आने को कहता हर बार बुआ के उसे जोर से फटकार दिया करती और वह मन मसोस कर रह जाता. धीरे-धीरे मनोहर के आँसू सूखते गए और उसकी उम्र बढ़ती गयी. उसे अपने पिता पर गुस्सा आने लगा जिन्होंने उसे अपने घर से और अपनी प्यारी माँ से और अपने बछडे गोविन् से अलग कर दिया था. इसके बदले में पूरे के पूरे संसार को मनोहर ने अपने गुस्से की चपेट में ले लिया.
धीरे- धीरे शांति बुआ के घर में मनोहर की जगह एक सदस्य की नहीं बल्कि एक आज्ञाकारी नौकर की तरह स्थापित हो गयी. घर का विछोह, बुआ की डांट-फटकार और इस नए माहौल से विरक्ती ने मिल कर नन्हें मनोहर में मन में एक कड़वाहट पैदा कर दी थी. पढाई लिखाई से उसका मन बिलकुल ही उचट गया था. दिन- भर बुआ और उनकें शरारती लड़के उसे काम ले लगाये रखते. दूर खेतों से डंगरों के लिए चारा लाना, उनकों नहलाना, दूध दुहना, पशु-घर को धोना और पशुओं का भोजन बनाना शुमार थे. इस बीच पिताजी बुआ के घर दो तीन बार आये पर उसे नहीं ले कर गए. वह घर जाने की जिद लिए पिता के सामने बिसूरता ही रहा. जयादा रोने को हुआ तो पिताजी ने एक जोरदार ठोकर मनोहर के कमर पर जमा दी और उस पर टेढी निगाहे फेरते हुए चल दिए अपने गाँव की ओर. अब मनोहर अपने आपे में नहीं रह सका उसका मन की शिशु- कोमलता खत्म होती चली गयी. वह अंदर ही अंदर परिपक्व ओर कठोर होता जा रहा था क्योंकि बाहर की स्तिथीयाँ उसी इसी तरह का बनने को विवश कर रही थी.
एक दिन उसके भीतर एक हुक उठी वह मुहँ अँधेरे ही अपने गाँव की और भाग चला. एक बैलगाड़ी की शरण ले कर और उसने अपनी माँ की गोदी में बैठ कर ही दम लिया. पिता उसे अचानक एक तरह माँ की गोदी में बैठा देखकर गुस्से से उबल पड़े. उसे घसीटते हुए घर से बाहर ले जाने लगे. जब माँ मनोहर को बचाने का प्रयत्न करने लगी तो पिता ने माँ की भी पिटाई कर दी. उन्होंने सीधा मनोहर को ट्रेक्टर में बिठाया और फिर से बुआ के घर छोड आये. उसके रोने कलपने का पिता पर रत्ती भर भी असर नहीं हुआ. पूरे रास्ते मनोहर यही सोचता रहा की उसे अपने घर में क्यों नहीं रहने दिया जा रहा जबकी सारी दुनिया के बच्चे अपने-अपने घर में रहते हैं तो मैं क्यों नहीं ?
शांति बुआ के घर में घोर अशांति रहा करती. उस छोटे लड़के की त्तरफ किसी का ध्यान नहीं था, सद्भावना या सहानुभूती का कोई शब्द नहीं. एक बार बुआ के सबसे बड़े लड़के के उसकी छोटी सी गलती के कारण मनोहर की खूब पिटाई कर दी, फिर बुआ का पक्ष लेते हुए बुआ ने एक बार फिर उसे मारा. तो मनोहर इस घर से हमेशा के लिए भाग निकला कहाँ के लिए, उसे खुद नहीं मालूम. इस समय समाज का सबसे क्रूरतम रूप अपना चेहरा साफ़ कर रहा था जब एक मासूम बच्चा नवम्बर की कडाके की सर्दी में भूखे पेट पार्क के सार्वजनिक बेंच पर अपने दोनों हाथ पांवों में दबाए सोने की कोशिश कर रहा था. डर और भूख से उसका शरीर अकड रहा था. आंसुओं एक-एक कर उसके गालों पर लुडक लुडक कर सूखते चले जा रहे थे. रात की दूसरी पहर में चाँद अपनी रोशनी धरती पर फेंकता हुआ अजीब रोमानियत से भरा हुआ दिखाई पड़ रहा था और इधर मनोहर बेशुमार करवटों के बीच इस धरती पर मौजूद था अकेला और बेसहारा. आलीशान घरों ने रात के इस पहर अपने घरों की रोशनी मध्यम कर दी थी और सड़क एक इस तरफ की गंदी बस्तियों में रोशनियों के लिए कोई ठिकाना नहीं था.
कुछ देर बेंच पर आँख लगने के बाद उठ कर मनोहर को कुछ देर समझ नहीं आया की यह क्या करे. वह इधर उधर भटकने लगा, उसे इस तरह बेवजह खड़ा देख कर एक चाय के खोखे वाले ने उसे चाय के बरतन धोने के लिए रख लिया. दो दिन तक वही रहा मनोहर. फिर जब तीसरे दिन जब उसके हाथ से दो कप टूट गए तो दूकानदार ने उसे धक्के मार कर काम से निकल दिया. एक बार फिर से मनोहर सड़क पर था, फटेहाल, भूखा और बेबस. इसी समय उसके पाँव अपने गाँव के रास्ते की तरफ मुड तो गए पर रास्ते भर उसे पिता की बेहरम पिटाई की याद एक कंपकपी की तरह बार-बार चढती उतरती रही.
गाँव के सीवान पर आते ही मनोहर की हिम्मत जवाब देने लगी. उसे लगा पिता की मार से तो अच्छा है वह यूँ ही भटकता रहे. पर हिम्मत जुटा कर वह अपने घर पहुँच ही गया. घर वालों को उसके बुआ के घर से भाग जाने की खबर मिल चुकी थी वे उसे हर जगह तलाश रहे थे. दातुन कर रहे पिता की जैसे ही उस पर नज़र पडी वैसे ही उन के हाथ में छड़ी आ गयी और फिर पलक झपकते ही उन्होंने मार मार कर मनोहर की हालत पतली कर दी. जैसा की तय था मनोहर ने पिता उसी पाँव मनोहर को चोटिल हालत में ले कर शांति बुआ के कस्बे पहुंचे. इस बार पहले की तरह बुआ और उनके बेटों ने उससे एक शब्द भी नहीं कहा. शायद वे लोग भी मनोहर से अपना पिंड छुटाना चाहते थे.
समय था की बह रहा था पर मनोहर के लिए सब कुछ स्थिर था. बुआ के घर में अब पहले की तरह ढोर-डंगर नहीं थे. उस कस्बेनुमा शहर की आबादी बढ़ती जा रही थी, जहाँ आडोस पड़ोस में जहाँ बुआ अपनी भैसे बांधती थी वहां अब घर बन गए थे. रमेश फूफा अब मास्टरी से रिटायर हो गए थे. अब घर के एक खोने वे एक गठरी की तरह सिकुडे हुए हुक्का गुडगुडाते रहते थे. वैसे भी वे घर में नितांत अजनबी की तरह से ही रहा करते थे. बुआ के चारों बेटे थोडा बहुत पढ़ कर छोटे- मोटे काम धंदे में लग गए थे. उस घर में मनोहर के जीवन बीतता गया जो उसके लिए सिर्फ एक शरणगाह ही था. जहाँ वह एक शरणार्थी की तरह वह अपना समय काट रहा था इसके अलवा और कोई चारा भी नहीं था. इस दौरान मनोहर के पैरों में न जाने क्या चक्कर लगा कि वह बार- बार घर से निकल पड़ता, बिना किसी को बताये, बिना किसी पूर्व योजना के और फिर एक दिन लौट भी आता. शायद उसकी तालश में एक घर था जो उसे अब तक नहीं मिल सका था बार-बार भटकने के बाद भी वह अनजाना-अनदेखा घर उस के पकड़ में नहीं आ रहा था. सभी दरवाजे खुले हुए थे पर एक जो घर मनोहर कों चाहिए था वह उसके लिए कभी खुला ही नहीं.
इस बार जब वह काफी अरसे के बाद अपने गाँव के घर गया तो मालूम हुआ की उसकी बड़ी बहन का ब्याह हो चुका है और माँ लगभग मृत्यु के नजदीक जा लगी है. हमेशा अकडे रहने वाले पिता की कमर भी अब झुकने लगी थी. खेती-बाडी को उसका छोटा भाई संभल रहा था.
वह माँ के पास रहना चाहता था. जिसके आँचल के नज़दीक उसे कभी आने ही नहीं दिया था. वह मन मार कर रह जाता और बच्चों को जब अपनी माँ का पहलू पकड़ कर चलते हुए देखता. अब माँ ठीक सामने थी पर बेहद कमजोर. उसने माँ की चारपाई पर नजर डाली. कमरे में मटमैला अँधेरा था और चारपाई पर कोई हलचल नहीं थी. शायद माँ सो रही थी, या उनींदी थी या अभी जगी थी.
माँ, मनोहर ने धीमी सी आवाज़ में कहा.
मनोहर बेटा. माँ ने अपनी लडखडाती आवाज़ मनोहर को सुकून देती हुई लगी.
मनोहर, वहीं माँ के सिरहाने बैठ गया.
माँ की डबडबाई आँखों में मनोहर ने झाँका जहाँ बेबसी के सिवाय कुछ भी नहीं था.
माँ कुछ कहने को आतुर थी, उसकी उंगलियां बैचैनी से हरकत कर रही थी.
माँ ने धीरे- धीरे शुरुआत की और उस प्रश्न का उत्तर आज दे दिया जिसने उससे बरसो परेशान कर रखा था.
उसका दोष क्या था ? वह अपनी माँ के साथ अपने घर में क्यों नहीं रह सकता था.
माँ की आवाज में उसने आज जो कुछ सुना उसने मनोहर की सख्त जान को एकबारगी हिला दिया. माँ ने जो रहस्य उसे आज बताया वह एक ऐसा जलजला था जिसने मनोहर को भीतर तक सुलगा दिया था. उस जलजले के भीतर ही मनोहर के बचपन से लेकर युवा अवस्था के तमाम दुःख- दर्द छिपे हुए थे.
माँ धीरे-धीरे बोली, तेरे पिता को शक था कि तू उसकी औलाद नहीं है. उनका यह शक बेबुनियाद था पर उसकी शक्की मिजाजी का कोई सानी नहीं था. उसी शक को तेरे पिता ने हमेशा अपने सर पर चढ़ाये रखा.
ओह, तो यह बात थी. उस अलगाव का कारण, जो हमेशा मनोहर के सीने में एक नासूर की तरह से चुभती रहता था.
मनोहर का दम फिर घुटने लगा इन सीली दीवारों के बीच, लग रहा तह की ये दीवारें उसकी सारी सांसे सोख लेंगी. वह बुरी तरह तडपने लगा. इस बार वह फिर भागा, अपनी बीमार माँ को छोड कर. एक बार फिर उसे गलियों ने ही अपनाया. इस बार वह अकेला नहीं था उसके साथ थी माँ की बेबस अनुगूंजे और उसके हिस्से का अँधेरा जो आज मनोहर की कोख में आकर और भी गहरा गया था. राह की कई परछाइयां मनोहर के अँधेरे को अपना साथी समझ कर उसके पाँव के साथ लिपट गयी थी.
आज मनोहर को पहली बार अँधेरे से डर लगा. वह फूट- फूट कर रो पड़ा.
ठीक दस दिन बाद जब फिर से डरते- डरते घर गया. इस बार पिता की मार का डर नहीं था क्योंकि वे इतने कमजोर हो चुके थे की अपने कांपते हाथों से पानी का गिलास भी नहीं पकड़ सकते थे. घर की ड्योढ़ी पर छोटी बहन मुन्नी दिखाई दी, मनोहर को देखते ही वह उससे लिपट कर रोने लगी.
भैया माँ हमें छोड कर चली गयी.
क्या, मनोहर हक्का बक्का रह गया, नहीं............उसका रोम-रोम चीख उठा.
उसने अपने आप को धिक्कारा, वह माँ को बीमारी की हालत में छोड कर क्यों चला गया, क्यों नहीं भटकने से अपने आप को रोंक पाता वह. क्या गलियों का रास्ता उसे उस सुकून से परिचित करवा सकता है जिसका चेहरा उसने कभी देखा नहीं.
माँ की चिता को अग्नि दे कर वह फिर गलियों की शरण में था, गम से गुम दिनों में उसे एक आदमी मिला जो अपनी झूठी कहानी बना कर एक पैकट किसी पते पर दे कर आने को कह गया. मनोहर इस बात से बेखबर था की उसे बेवकूफ बनाया जा रहा है जब पुलिस ने उसे पकड़ा तब ही उसे पता चला की वह किसी साजिश का शिकार हो गया है.
पैरोल पर छूटे एक कैदी के हाथों मनोहर ने अपने पिता से जमानत के लिए कहलवाया तो पिताजी ने मनोहर को जेल से बाहर निकालने से साफ़ इनकार कर दिया.
तब से मनोहर जेल की चार दीवारी में ही कैद है.
इसी जेल में उसने अपनी जिंदगी में पहली बार दोस्ती की परिभाषा जो जाना और समझा. इस जेल में ही उसने अनुशासन पहला और उसके बाद के कई पाठ पढ़े. धीरे-धीरे मनोहर और उसके दोस्त सुधर रहे थे. उन्हें जेल में पढ़ना लिखना, चित्रकारी, बागवानी सिखाई जाती. मनोहर और उसके अधिकाश साथी जेल से बाहर निकल कर समाज की मुख्य धारा में शामिल होना चाहते थे. जेल में और भी कई अपराधी थे जो अपराधी ही बने रहना चाहते थे. जिन में सुक्खा भी शामिल था, वह एक भ्रष्ट मंत्री का भांजा था. हर रोज जेल में उपद्रव मचानें में उसे आनंद मिलता था और उसके कई चमचे उसका साथ देते हुए आये दिन उपद्रव मचाया करते थे.
मनोहर और उसके दोस्त इन लोगों से दूर ही रहते.
जेल में समय-समय पर समाजिक कार्यकर्ता आया करते. योगा और ध्यान-साधना की क्लास लगते जिसमें मनोहर खूब उत्साह से भाग लेता. उसे चित्र बनाने में खूब आनंद आता और ढेरों चित्र बनांए.
जेल के बाहर और भीतर समय निर्धारित गति से आ-जा रहा था. एक दिन अचानक मनोहर का छोटा भाई उससे मिलने आया. उसकी शादी तय हो गयी थी, उसी ने बताया की चार महीने पहले मुन्नी की बच्चा पैदा होते समय मौत हो गयी.
यह खबर सुन कर मनोहर और एक पेड़ की जड़ता में कोई अंतर नहीं रह गया था. इस बार फिर उसे गुस्सा दिलवाने का कारण पिताजी ही बने. जिन्होंने मुन्नी की शादी महज चौदह वर्ष की उम्र में ही जबरन करवा दी थी. अपने भाई बिरजू के चले जाने के बाद मनोहर एक बार फिर से अंधेरे के आवर्त में चला गया था जहाँ अंधेरें की कहानी अभी भी खतम नहीं हुई थी.