अँधेरों का सफ़रः मील का पत्थर / रश्मि विभा त्रिपाठी

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रामधारी सिंह दिनकर पुरस्कार से सम्मानित आदरणीया डॉ. सुरंगमा यादव द्वारा सम्पादित हाइकु- संग्रह ‘अँधेरों का सफ़र’ पढ़ने को मिला। वृद्ध- विमर्श पर आधारित संग्रह ‘अँधेरों का सफ़र’ का आवरण ही वृद्धजनों की दशा दिखाता है— डूबता सूरज, शाख से उड़ता पंक्षी और अकेला ठूँठ। सुरंगमा यादव डूबते सूरज की हल्की- सी रोशनी में एक नई भोर की तलाश में निकली हैं। यह संग्रह अँधेरे में जी रहे वृद्धजनों के लिए उम्मीद की किरण है।

जीवन के सफ़र के इस पड़ाव पर आकर जहाँ अपने हाथ– पाँव ही साथ नहीं देते, ऐसे में जिसे उँगली पकड़कर चलना सिखाया, अब उसी का हाथ पकड़कर चलना पड़ता है और यह सफ़र तब और कठिन हो जाता है जब अकेला चलना पड़ता है। सुरंगमा जी ने वृद्धजनों का यह सफ़रनामा देखा, समझा है और अँधेरों के सफ़र को आसान करने की जरूरत महसूस की है।

आज के समाज में परिवार के मूल्यों में जो गिरावट आ रही है, यह वृद्धों के प्रति असंवेदनशीलता के कारण ही है। संयुक्त परिवारों का टूटना, एकल परिवार की अवधारणा, और युवा पीढ़ी का स्वच्छंद जीवन वृद्धों की उपेक्षा का कारण बन रहे हैं। जो बुजुर्ग पहले परिवार में सम्मानित स्थान रखते थे, अब उन्हें एक बोझ के रूप में देखा जाने लगा है।

हमारी भारतीय संस्कृति में सुबह उठते ही अपने बड़े- बुजुर्गों के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लेने की परम्परा रही है। आज पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करने वाले युवा यह नहीं समझ पा रहे हैं कि वृद्धजन हमारे समाज का वह अमूल्य हिस्सा हैं, जिनके अनुभवों और ज्ञान से हमारा समाज सशक्त होता है। उनकी हर बात हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा है। वृद्धजन परिवार का वह स्तम्भ हैं, जिस पर समूची समाज व्यवस्था टिकी हुई है। परिवार, समाज में अपनी भूमिका निभाते हुए अपने अनगिनत अनुभवों से वृद्धजन युवा पीढ़ी का पथ प्रशस्त करते हैं लेकिन आज के आधुनिक युग में वृद्धजनों की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है, गली मुहल्लों में खुलते जा रहे वृद्धाश्रम बयान करते हैं जहाँ उनके लिए बढ़ती उम्र के साथ— साथ, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं, पारिवारिक, सामाजिक उपेक्षा और अकेलेपन का दर्द पल- पल सहने की व्यवस्था की गई है।

आज के डिजिटल युग में हमारी पुरानी भारतीय सामाजिक संरचना यूँ बदल गई है, जैसे फेसबुक प्रोफाइल फोटो। जहाँ वृद्धों के मरने पर तो फोटो डालकर ओम शांति के कमेंट्स के लिए अपील की जाती है इस विश्वास से कि शायद अब आत्मा की शांति का पुराना तरीका भी बदल गया है और गुमनामी की मौत मर गए बुजुर्गों की दुखी आत्मा को डिजिटल शोकसभा में शांति मिलेगी। आज वृद्धजन उपेक्षा और असंवेदनशीलता का सामना कर रहे हैं। उम्र के इस मोड़ पर आकर उन्हें समाज के हिस्से से काटकर एक अँधेरी कोठरी में डाल दिया गया है।

हाशिए पर जा रहे वृद्धजनों की स्थिति से चिंतित हो आदरणीया डॉ. सुरंगमा यादव ने अपने सम्पादित हाइकु- संग्रह ‘अँधेरों का सफर’ से वृद्धजनों की स्थिति में एक सकारात्मक बदलाव का प्रयास किया है। वृद्ध- विमर्श पर आधारित इस हाइकु- संग्रह के माध्यम से समाज को यह समझने का अवसर मिलेगा कि वृद्धजन अब पुराने हो गए, अब उनका कोई मोल नहीं? एक बेकार— से सामान को घर के किसी कोने में रखने पर किसी के पूछने पर कहते हैं— ओल्ड इन गोल्ड! वृद्धजन गोल्ड नहीं हैं? हैं! वृद्धजन असली गोल्ड हैं, जीवन के संघर्ष की आग में तपकर बना खरा सोना, दामिश छिला हार, उनके प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें, उन्हें उनके अपने बनाए घर में लौटा लाएँ।

पुस्तक में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के लेख का केंद्रीय विचार वृद्धावस्था में पारिवारिक सम्बन्धों की महत्ता और अकेलेपन का दर्द है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, व्यक्ति को सहारे की आवश्यकता होती है, जो केवल अपनेपन, स्नेह से ही सम्भव है। काम्बोज जी ने समाज में वृद्धों को उनका उचित स्थान नहीं मिलने की समस्या को सामने रखा है, जब बच्चे अपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं तब अकेलेपन, संवादहीनता जैसी समस्याएँ वृद्धों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती हैं। समाज में वृद्धाश्रम जैसी संस्थाएँ इस समस्या का समाधान नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे परिवार का स्थान नहीं ले सकतीं। इस लेख का उद्देश्य वृद्धों के प्रति संवेदनशील होना और उनके जीवन के कठिन पहलुओं को समाज के सामने लाना है। यह सामाजिक चेतना की आवश्यकता को रेखांकित करता है कि हम वृद्धों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझें।

वृद्धों के अकेलेपन, उस अकेलेपन से उपजे मानसिक अवसाद, और समाज द्वारा उनकी उपेक्षा पर विचार करते हुए काम्बोज जी यह संदेश देते हैं कि वृद्धावस्था के इस चरण में स्नेह, संवाद और परिवार का साथ सबसे ज़रूरी है। यह न केवल उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करेगा, बल्कि समाज में मानवीयता और संवेदनशीलता को भी बढ़ावा देगा। संग्रह की भूमिका में सुरंगमा जी ने वृद्धजनों की पीड़ा सामने रखी है और उसका सही उपचार भी बताया है।

संग्रह में चार देशों के 32 हाइकुकारों के हाइकु हाशिए पर धकेले गए वृद्धजनों की पीड़ा का दस्तावेज हैं जिसकी दवा केवल परिवार का साथ है—

कभी केन्द्र में/ आज हाशिए पर/ ढकेले गए। (डॉ. सुधा गुप्ता)

वृद्ध जो कभी घर के मुखिया थे आज उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया है, जो औलाद बुढ़ापे की लाठी थी, जीवन की बोझिल राह पर अब वह ढूँढने पर भी नजर नहीं आती, अब वह बेपरवाह हो गई है—

माँ-बाप ढूँढें/लाठियाँ बुढ़ापे की/दिखती नहीं। (डॉ. गोपाल बाबू शर्मा)

जीवन की साँझ होते ही सारी खुशियाँ मिट गईं। जीवन की साँझ का यह दृश्य कितना मार्मिक है—

साँझ हो गई/ खुशनुमा जिन्दगी/ बाँझ हो गई। (रामेश्वर काम्बोज हिमांशु)

जीवन साँझ/ कौन पकड़े हाथ/ काँपते पाँव। (सुदर्शन रत्नाकर

जीवन की साँझ में उम्र के पेड़ से जो उड़ गए, वे लौटकर नहीं आए, उन पंछियों के लौटने की आशा में ही जीवन बीत जाता है—

साँझ की बेला/ नीड़ निहारे पंछी/ बैठ अकेला। (डॉ. सुरंगमा यादव)

आज वृद्धों और युवाओं के बीच मीलों की दूरी हो गई है। वृद्ध और युवा पीढ़ी के बीच की दूरी और बदलाव को यह हाइकु सूक्ष्मता से चित्रित करता है—

शरद सीढ़ी/ गिरे पत्तों पे चढ़े/ नवल पीढ़ी। (डॉ. कुँवर दिनेश सिंह)

आज के बच्चे बूढ़े माँ बाप को वृद्धाश्रम ऐसे भेज देते हैं जैसे पुराना सामान कबाड़ी को दे रहे हों मगर फिर भी उन माँ- बाप की आँखों से भावशून्य औलाद के लिए वात्सल्य ही बहता है—

विवश बहे/ वात्सल्य नयन से/ वृद्धाश्रम में। (डॉ. सुरंगमा यादव)

बूढ़े माँ- बाप के लिए घर में जगह नहीं लेकिन उनकी सारी जायदाद यहाँ तक कि पेंशन भी सहेजने के लिए जगह है—

पेंशन मिली/ सहेजने आ गई/ बेटे की जेब। (डॉ. सुरंगमा यादव)

जिन माँ-बाप ने अपने बच्चों के लिए अपना जीवन होम कर दिया, उम्र ढलने पर उन्हें क्या मिला? अकेलापन, उपेक्षा, तिरस्कार—

अमृत पिला/ जिन्हें जीवन दिया/ क्या सिला दिया? (डॉ. उमेश महादोषी)

जिसको पाल- पोसकर बड़ा करते हुए यह उम्मीद की थी कि वह बुढ़ापे में सहारा बनेगा, उसी ने अपना हाथ खींच लिया—

उसने खींचा/ प्रेम- हस्त अपना/ जिसको सींचा। (डॉ. कविता भट्ट)

आज बूढ़े माँ बाप की उपेक्षा कर रहे बच्चों को कल पता चलेगा कि इससे बढ़कर अनमोल रिश्ता दुनिया में कोई भी नहीं—

माँ- बाप छूटे/ अनमोल रिश्तों के/ भरम टूटे। (डॉ. भीकम सिंह)

लेकिन आज के बच्चे इतने बोल्ड हैं कि वे यह सब नहीं सोचते—

बच्चे हैं बोल्ड/ वृद्धाश्रम भेज दी/ माँ हुई ओल्ड। (रश्मि विभा त्रिपाठी)

वे पर लगते ही उड़ जाते हैं और बुजुर्ग राह तकते रह जाते हैं—

सूना आँगन/ राह तकें बुजुर्ग/ बच्चे विदेश। (डॉ. उपमा शर्मा)

हमारी पुरानी परम्परा कितनी अच्छी थी—

क्या था जमाना/ बड़ा था परिवार/ एक ठिकाना। (डॉ. हरदीप कौर संधु)

आज के आधुनिक युग में बच्चों को माँ- बाप भारी लगने लगे हैं—

उम्र क्या हारी/ लग रहे बच्चों को/ माँ- बाप भारी। (कृष्णा वर्मा)

अभी भी कुछ ऐसे बच्चे हैं जो अपने बुजुर्गों को, उनकी अमूल्य निधि को सँभाले हुए हैं, सृष्टि इसी से चल रही है वरना प्रलय आ जाती।

पोता सँभाले/ दादा की संदूखची/ अमूल्य निधि। (शशि पाधा)

वृद्धों के इस अँधेरों के सफर में पोते- पोतियाँ प्रकाश पुंज हैं—

जला ही देते/ बुझे मन का बल्ब/ पोते- पोतियाँ। (मीनू खरे)

साहित्य समाज का दर्पण है जिसमें हमें समाज का चेहरा दिखाई देता है। साहित्यकार डॉ. सुरंगमा यादव ने वृद्ध- विमर्श की ओर ध्यान आकर्षित कर हमें यह दिखाया है कि पारंपरिक भारतीय समाज में वृद्धों को सम्मान, संरक्षण दिया जाता था। एक समय था जब वृद्धों का घर के अंदर विशेष स्थान होता था, उनके अनुभवों का समाज में आदर किया जाता था। परंतु आधुनिकता, नगरीकरण, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह रखने वाले समाज ने आज वृद्धों की स्थिति दयनीय बना दी है, जो कि गहरी चिंता का विषय है। आज के समाज में, जहां परिवारों का स्वरूप बदल रहा है और एकल परिवारों की अवधारणा प्रबल हो रही है, वृद्धों के प्रति हमारा दृष्टिकोण भी बदल गया है।

संग्रह में भारतीय संस्कृति में श्रीराम और श्रवण कुमार जैसे आदर्शों को सामने रखते हुए आधुनिक समाज की गहरी आलोचना है। आज के युवा किस प्रकार पारंपरिक मूल्यों को नजरअंदाज कर आधुनिकता के नाम पर वृद्धों के जीवन को उपेक्षित कर रहे हैं। यह विमर्श समाज की मानसिकता में परिवर्तन की आवश्यकता की ओर इशारा करता है, ताकि वृद्धों को उनका सम्मान और संरक्षण वापस मिल सके। वृद्धों का मन अपने परिवार और अपनों के साथ संवाद की आवश्यकता महसूस करता है, लेकिन समाज में परिवार के सदस्य अपनी व्यस्तताओं में इतने खो गए हैं कि वे वृद्धों की आवश्यकताओं को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

‘अँधेरों का सफ़र’ डॉ. सुरंगमा यादव द्वारा जलाई गई एक मशाल है जिसके प्रकाश में हाशिए पर जा रहे वृद्धजनों की स्थिति स्पष्ट दिख रही है। इस स्थिति से उबरने के लिए डॉ. सुरंगमा यादव ने हाइकु जगत में पहली बार पहल की है। हिंदी हाइकु जगत में वृद्ध विमर्श पर पहला हाइकु संग्रह ‘अँधेरों का सफ़र’ मील का पत्थर है।

अँधेरों का सफ़र (हाइकु- संग्रह): डॉ. सुरंगमा यादव, पृष्ठ: 112, मूल्य: 320 रुपये, ISBN: 978-93- 6423-788-8, प्रथम संस्करण: 2025, प्रकाशक: अयन प्रकाशन जे—19/39 राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली— 110059

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