अँधेरों का सफ़र-हाइकु-संग्रह / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जाना किधर/ अँधेरों का सफ़र/ बुझी नज़र-बुढ़ापा शाश्वत है, ठीक वैसे ही जैसे बचपन, यौवन आदि। हर पड़ाव पर स्थितियाँ बदलती जाती हैं। इस परिवर्तन को समझना, स्वय को परिवर्तन के अनुकूल बनाना या अपने अनुकूल परिस्थितियों को बना लेना, ये दो अलग -अलग कार्य हैं। दोनों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए गम्भीरता, व्यावहारिक चिन्तन और धैर्य की आवश्यकता है। जवानी बीत जाने पर जब व्यक्ति अपने कार्य-क्षेत्र से विरत हो जाता है, तो वह एक भीड़ से निकलकर, नितान्त अकेलेपन का हिस्सा बन जाता है। उस अकेलेपन को तोड़ने के लिए, खालीपन को भरने के लिए कोई न कोई काम पास में होना चाहिए या किसी रुचिकर कार्य के प्रति अभिरुचि होनी चाहिए। अभिरुचि- शून्य व्यक्ति का बुढ़ापा कठिन होता है। आर्थिक सुरक्षा न होने पर परिवार में उपेक्षा और कलह दोनों ही तनाव और कटुता का कारण बनते हैं।
अच्छी आर्थिक सुरक्षा होते हुए भी सन्तान सभी आर्थिक संसाधनों पर कब्जा कर लेते हैं, तो वृद्ध माता- पिता सब कुछ होते हुए भी अभाव का जीवन जीते हैं। वे अपनी इच्छा से न कहीं जा सकते हैं, न इच्छानुसार व्यय कर सकते हैं। उनके नाम पर जो सम्पत्ति होती है, सब उस पर गिद्ध दृष्टि जमाए होते हैं कि कब इनका संसार से पलायन हो और वे उसे हस्तगत कर लें। घर का कोई उपेक्षित कोना उनके रहने के लिए छोड़ दिया जाता है। बूढ़े व्यक्ति को भोजन से अधिक बात करने वाले की आवश्यकता होती है। पारिवारिक संवादहीनता के कारण सब सुविधाएँ होने पर भी, समय काटे नहीं कटता। शरीर की अशक्तता औरअकेलापन खत्म होने का नाम नहीं लेते। दवाई से बीमारी का इलाज हो सकता है; पर मन का एकान्त दूर करने की औषध केवल आत्मीयता और अपनेपन से पगा संवाद ही सहायक हो सकता है। अकेलापन और अवसाद बहुत-सी बीमारियों के जन्मदाता हैं। यदि वृद्धों के प्रति अपनापन होगा, तो रोग भी पास नहीं आएँगे।
पपीहा दिन/ और चकवी रातें/ काटे न कटें ।-डॉ. सुधा गुप्ता
बार-बार मन पुरानी यादों की ओर लौटता है। विगत की मधुर यादें उस लोई की तरह है, जिसे खूँटी पर टाँगकर कोई व्यक्ति भूल गया हो। खूँटी पर टँगी उस लोई को कीड़े कुतरते जाते हैं और पता भी नहीं चलता। डॉ. सुधा गुप्ता जी ने इस तथ्य को मार्मिकता से प्रस्तुत किया है-
यादों की लोई/ खूँटी पे टँगे- टँगे/ कीड़े -कुतरी।
जब चलना-फिरना कठिन हो जाए, उसी समय अपनों की आवश्यकता पड़ती है। सारी उम्र संघर्ष में बिताने पर ढलती उम्र में अकेला छोड़ जब सन्तान अपनी उन्नति को ही जीवन का उद्देश्य बना लेती है, तब माता-पिता कितने असहाय हो जाते हैं! डॉ. सुधा गुप्ता जी ने इसका बहुत मार्मिक चित्रण किया है-
सीढ़ियाँ रौंद/ बढ़ जाते पथिक/ अकेली छोड़।
इसी अकेलेपन को 92 वर्ष से अधिक की अवस्था पार कर चुके डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी का यह हाइकु बहुत कुछ कह जाता है-
माँ-बाप ढूँढें/ लाठियाँ बुढ़ापे की/ दिखती नहीं।
बुज़ुर्गों को अपनों का सान्निध्य और सामीप्य चाहिए। उन्हें सदैव प्रतीक्षा रहती है, वह भी अपनों की कि वे मिलने के लिए आएँगे, हाल-चाल पूछेंगे, सुख -दुख साझा करेंगे। सबसे दूर हो जाना या सबका दूर हो जाना, उनके अवसाद का कारण बन जाता है। यही अवसाद धीरे-धीरे बहुत से मानसिक, तदन्तर शारीरिक रोगों का जन्मदाता बन जाता है। अन्तहीन प्रतीक्षा, अन्तहीन दुखों का कारण बन जाती है। हाइकु के पुरोधा प्रो. आदित्य प्रताप सिंह जी ने इसे गहन प्रतीकात्मकता के माध्यम से प्रस्तुत किया है-
घर से बड़ा /प्रतीक्षा का दरवाज़ा / सितारों तक।
संयुक्त परिवार की परिकल्पना नौकरी एवं सन्तान के प्रवास के कारण खण्डित होती जा रही है। पैतृक सम्पत्ति और आवास को छोड़कर माता-पिता भी सन्तान के साथ रहने में सहज अनुभव नहीं करते। नए शहर और नए लोगों के नए परिवेश में समायोजित करना, उनको कठिन लगता है। कहीं माता-पिता को साथ रखने की समस्या भी है; क्योंकि प्रवास में महँगे और छोटे आवास की समस्या भी सन्तान के लिए विवशता बन जाती है। इस उम्र में बच्चों के बीच रहना, जीवन में ताज़गी देने वाला होता है। देशान्तर में प्रवास और भी दूरी बढ़ाने वाला होता है। सन्तान की नौकरी कब छूट जाएगी, इसका भी कोई भरोसा नहीं। सन्तान संघर्ष करने में ही उम्र और स्वास्थ्य दोनों को खपा देती है। जो माता-पिता की ज़मीन जायदाद, मकान बिकवाकर उन्हें साथ में ले जाते हैं, उनके सामने भी बहुत -सी विवशताएँ आती हैं। उन देशों की समस्याओं में घिरकर अस्तित्व बचाना कठिन होता है।
वृद्धों का जीवन सुविधाजनक हो, इसके कुछ संस्थाएँ वृद्धाश्रम चलाती हैं। यह भले ही अच्छा प्रयास है; पर ये घर का स्थान नहीं ले सकते हैं। दिल्ली के वृद्धाश्रम में एक बार एक साहित्यिक कार्यक्रम के सिलसिले में जाना हुआ। कुछ घण्टे रुककर जो देखा और महसूस किया, वह पीड़ादायक ही लगा। विदेशों में वृद्धाश्रम में रहने वालों का जीवन और भी अधिक एकाकी और कठिन है।
डॉ. सुरंगमा यादव ने वृद्धों के जीवन पर लेख लिखने की योजना बनाई थी, जो एक महत्त्वपूर्ण हाइकु-संग्रह के रूप में साकार हुई है। हाइकु-जगत् में इस विषय पर यह पहला कार्य है। इस संग्रह से हाइकु की शक्ति और हमारे साथियों की रचनाधर्मिता की उदात्तता के दर्शन भी होंगे।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ब्रम्पटन 16 दिसम्बर 2024