अंकफल यानी गणित / आशापूर्णा देवी / प्रमोद शर्मा

Gadya Kosh से
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औरतें इतनी जल्दी बूढ़ी क्यों हो जाती हैं? नन्दा क्यों इतनी बूढ़ी हो गई? आईने में खुद को देखते हुए रंजन ने एक बार फिर सोचा। वह रोज ही यह बात सोचा करता है।

कितनी बुरी तरह बूढ़ी दिखने लगी है नन्दा !

नन्दा यानी सुनन्दा !!

कितनी तेज-तर्रार और ताज़गी से भरपूर लड़की थी वह ! अब तो जैसे बस एक गृहस्थिन ही बनकर रह गई है ! इस बात की चर्चा करने पर उसके चेहरे पर शर्म की लेशमात्र भी छाया नहीं दिखाई पड़ती। बस, हो-हो कर हँसते हुए कहती — लो, सुन लो बात ! अरे, उमर हो रही है तो क्या बूढ़ी नहीं होऊँगी? समय क्या रुका रहेगा?

रंजन चिढ़कर बोलता — समय को पकड़कर रखने का मन्त्र सीखना पड़ता है, नन्दा, यह भी एक आर्ट है ! समय के आगे पूरी तरह आत्मसमर्पण कर बैठे-बैठे सिर्फ ‘शेष बचे दिनों’ को गिनते हुए जीना, जीना नहीं मरना है।

मगर नन्दा तो जैसे गुस्सा करना जानती ही नहीं ! ऐसी अपमानजनक बातों पर भी वह गुस्सा नहीं करती। बल्कि और जोर से हँसती — तुम ही अगर चिरयुवा बने रहोगे तो मैं तुम्हारा साथ कैसे दूँगी, भला? अगर ऐसा हुआ तो देख-भाल कर एक सुन्दर युवती जुगाड़ करूँगी और उससे तुम्हारा विवाह कराकर दिखा दूँगी कि पति-प्रेम की पराकाष्ठा क्या होती है !’

लगता है, नन्दा का रसिक स्वभाव भी धीरे-धीरे उसके स्थूल होते मुखड़े की तरह मोटा होता जा रहा है। सुनकर विरक्ति से रंजन का शरीर जल उठा। इस भद्दे मजाक के साथ फूटती हँसी के कारण नन्दा की मोटी देह डोलने लगी, भारी गालों के आसपास झुर्रियाँ पड़ गईं, और रंजन राय उसको गहरी नजर से ताकते हुए उसमें पुराने दिनोंवाली बी० ए० की छात्रा सुनन्दा सेन को खोजने की व्यर्थ चेष्टा करता रहा और अंततः विरक्त होकर वहाँ से हट गया।

००००० रंजन राय तो आज भी लगभग वैसा ही है, जैसा पहले था। नियमित व्यायाम से गठी हुई उसकी देह का आईने में दीख रहा यह प्रतिबिम्ब, और उस दीवार पर टँगी एम० ए० के छात्र रंजन राय की कैमरे से उतारी गई तस्वीर, दोनों में क्या फर्क है भला? कितना बदला है रंजन? और नन्दा?

मेज पर रखी नन्दा के विद्यार्थी जीवन की वह तस्वीर, जिसे नन्दा ने विवाह से पहले रंजन को उपहार में दिया था, रंजन की ओर देख-देखकर व्यंग्य से हँसा करती थी। चिढ़कर रंजन ने एक दिन इस तस्वीर को मेज पर से हटाकर दराज में ठूँस दिया था।

उसने उसकी वह तस्वीर मेज पर से हटा दी है इस बात पर न तो नन्दा की तत्काल नजर पड़ी, न बाद में ही उसे इसका खयाल आया। रंजन ने सोचा था कि इस तस्वीर को हटाने के बारे में नन्दा जब पूछेगी तब वह अपने मन की पूरी भड़ास निकाल देगा और नन्दा को साफ-साफ बता देगा कि वह तब कैसी थी, और अब कैसी हो गई है ! किन्तु दिन पर दिन बीतते गए और नन्दा ने अपनी उस तस्वीर की बात ही नहीं छेड़ी। इसका मतलब यह निकला कि मेज पर बनी उस खाली जगह के कारण नन्दा के मन में कोई खालीपन उत्पन्न नहीं हुआ।

सिर्फ आकृति में ही नहीं, बल्कि प्रकृति में भी नन्दा में आकाश-पाताल का बदलाव आ गया था। बेढब रूप से बूढ़ी हो गई थी वह !

००००० तभी बगल के कमरे से ही-ही कर हँसने की आवाज आई !

नन्दा की ही हँसी थी। शायद किसी पड़ोसन सहेली के साथ बैठकबाजी चल रही थी। स्फूर्ति की कोई कमी नहीं है उसमें। अपने कमरे में बैठे-बैठे रंजन नन्दा को देखे बिना ही खुशी से फूलकर कुप्पा हुए उसके शरीर की कल्पना कर पा रहा था। चमकता गौर वर्ण मुखड़ा, जो अब थोड़ा भारी होकर फैल गया है, प्रसाधन के अभाव में चिपचिपा हो चला है। स्नान के बाद माथे पर लगाया गया सिन्दूर का टीका पूरे ललाट पर फैल चुका है और अब शाम को उसके फिर से स्नान करने के पहले इस ललाट के भाग्य में कोई सुधार लिखा हो, ऐसी कोई आशा नहीं दिखती। बिखरे केशों को जब वह बीच-बीच में अपने हाथों से लपेटकर जूड़ा बना देती है, तब उसका ललाट चौड़ा लगने लगता है और जब उसका ढीला जूड़ा गरदन पर ढलक जाता है तो स्वाभाविक तौर पर घुँघराली केशराशि उसके माथे पर छितराकर उसके चेहरे को फूहड़-सा बना देती है ! शरीर पर है कोहनी तक की बाँहों वाला एक ढीलाढाला ब्लाउज और चौड़े पाड़ की साड़ी। इसके साथ ही-ही-ही की हँसी। वह तो सौभाग्य की बात है कि सुनन्दा को पहनावा थोड़ा कीमती और फैशन के अनुरूप ही पसन्द है इसलिए थोड़ी राहत है, वरना ऐसे में अगर वह गंदे और मोटा-झोटा कपड़े पहनती तब तो और भी.......।

आश्चर्य! मनुष्य की रूचि इस सीमा तक बदल जाती है !

यही सुनन्दा अधिकतर पाड़विहीन साड़ी ही पहनकर कॉलेज आती थी। फीके रंग की या फिर सादा। जब कोई उसकी साड़ी के बिना पाड़ के होने का जिक्र करता तो कहती — पाड़ का अर्थ है एक सीमा में बँधने का अहसास। मैं तो सीमाविहीनता की आवाज का वाहक बनकर आई हूँ !

रंजन इधर-उधर ताक कर बोलता — इस्स, बिल्कुल अपार सागर है !

‘और नही तो क्या। तटों पर उफनाती गंगा भी कह सकते हो।’

रंजन कहता भी यही था।

उसी पाड़विहीन साड़ी का आँचल कमर में कसकर खोंस टेनिस खेलने उतरती थी सुनन्दा सेन, और जीत जाने पर रंजन राय की ओर देखकर सफलता भरी हँसी हँस देती थी।

तब अनेक लोगों की ईर्ष्या का पात्र रंजन राय का सीना अपने सौभाग्य पर गर्व से फूल उठता। आज वही छाती क्षोभ से फूल रही थी!

०००००

वह तेजतर्रार, सलीकापसन्द और ऊर्जा से भरपूर लड़की !

ऊर्जा से भरपूर !

रंजन ने सोचा — नहीं, उसकी ऊर्जा में तो कोई कमी आज भी नहीं है। सुनन्दा की ऊर्जा तो दिनरात उससे छिटकी पड़ती है ! हँसने से गालों में पड़ते गड्ढे और खुशी से लाल होते चेहरे के अलावा किसी दूसरे भाववाला उसका मुखड़ा कभी देखा हो, ऐसा रंजन को याद नहीं आता। मगर औरतों का खुशी से भरा ऐसा मुखड़ा देखने में कितना कुरूप लगता है यह बात रंजन के अलावा और कौन जान सकता है !

पहले भी तो बहुत हँसती थी सुनन्दा मगर तब उसका रूप अलग था। सुनन्दा जब कुछ मोटी होने लगी थी तभी रंजन ने उससे बार-बार कहा कि वह कुछ समय निकालकर व्यायाम किया करे। परन्तु कौन किसकी बात सुनता है ! केवल शरीर ही नहीं, सुनन्दा के मन, बुद्धि और रुचि पर भी मोटापे का असर होने लगा था। तभी तो वह रंजन के शरीर पर लदकर हँसते हुए बोलती — ‘‘क्या जरूरत है मुझे इतनी मेहनत कर स्लिम फिगर बनाने की, अब कोई शादी तो होने नहीं जा रही ! बल्कि अगर खूबसूरत दिखने लगूँगी तो तुम्हारी ही चिन्ता बढ़ जाएगी कि कहीं कोई मेरे प्रेम में न पड़ जाए।’’

ज्यादा बोलने पर कहती — ‘‘क्या होगा सुन्दर दिख कर, बोलो तो, अब तो इतने बड़े-बड़े बच्चों की माँ बन गई हूँ !’’ यही कह-कहकर, लगता है, नन्दा अपने बच्चों को बड़ा बना देना चाहती है। वरना कितने दिन हुए ही हैं उनको पैदा हुए !

०००००

‘‘वाह, बहुत खूब!’’ — कहते हुए अपनी सम्पूर्ण आंदोलित काया के साथ घर में घुसी सुनन्दा — ‘‘खूब सजना-सँवरना हो रहा है? ना, तुम्हारी उमर लगता है कभी नहीं बढ़ेगी। तुम्हारे सजने-सँवरने का ढब देखकर बच्चे भी न जाने क्या सोचते होंगे ! जरूर हँसते होंगे!’

’‘क्यों, इसमें हँसने की क्या बात है?’ — रंजन ने अपनी लम्बी सुगठित देह को थोड़ा इधर-उधर घुमाकर आईने में देखा और बोला — ‘इसमें हँसने की कौन-सी बात दिखाई पड़ती है उनको?’

‘यही तुम्हारा क्रीम - स्नो - पाउडर - सेण्ट.......।

‘तो इसमें कौन-सी भयंकर भूल हो गई भला ! तेल नहीं लगाता हूँ क्या? साबुन नहीं लगाता हूँ?’

‘ये सब भी उसी की तरह हैं क्या? वह सब तो ज़रूरी है।’

‘ ज़रूरतें सबकी एक तरह की नहीं होती हैं, नन्दा ! मेरे लिए यह सारा कुछ जरूरी है। बेहद जरूरी। तुम्हारी तरह फूहड़ तो नहीं रह सकता मैं।’

‘फूहड़? और मैं?’ — सुनन्दा को इसमें भी हँसी की खुराक मिल गई — ‘रहने भी दो, बोलो मत ! मेरे घर जो भी आता है, मेरे घर-संसार, रसोई-भण्डार आदि देखकर खूब बड़ाई करता है .....समझे महाशय ! सब कहते है कि अहा ! आपका घर देखकर तो आँखें जुड़ा जाती हैं....।’

‘हाँ, और क्या ! तुम तो सिर्फ रसोई और भण्डार का सार ही समझती हो !’ — कह कर अपने सँवारे गए केशों को फिर से सँवारने लगा रंजन।

‘और नही तो क्या? समय में परिवर्तन के साथ-साथ सबकुछ ही बदल जाता है, सार-असार का ज्ञान भी।’ सुनन्दा हँसी, जिसके कारण उसके गालों पर गड्ढे और चिबुक पर रेखाओं के बल पड़ गए — ‘जाती हूँ, बाबा, जाकर देखूँ रसोइए चन्दर ने मेरे मनपसंद तपसी मछली का अब तक न जाने क्या बुरा हाल किया होगा ! वो तो रेवा की माँ मिलने आ गई और देर करवा दी।’

‘रेवा की माँ ! — रंजन ने बेहद सरल भाव से पूछा — ‘उस घर की दाई है क्या?’

‘दाई? रेवा की माँ दाई?’ — सुनन्दा की आँखें माथे पर चढ़ गईं — ‘इस मुहल्ले में नए आए हो क्या? रेवा को नहीं पहचानते? उसकी माँ को नहीं देखा क्या? फट से मेरी सहेली को दाई कह दिया !’

‘सो मैं क्या जानूँ’ — रंजन चेहरे को और अधिक निर्दोष बनाते हुए बोला — ‘हमेशा से यही देखता आया हूँ कि लोग घर की दाइयों को फलाने की माँ - ढिकाने की माँ कहकर पुकारते हैं ! वो जो तुम्हारी सहेली है.....क्या उसका कोई नाम भी नहीं है?’

‘वाह, नाम नहीं है ! मेरी सहेली बेनाम है !!’ — सुनन्दा बोली — ‘क्यों ‘‘माँ’’ शब्द अच्छा नहीं हैं क्या? या कि सन्तान के नाम से परिचय देना बहुत खराब बात है? लड़कियों के लिए तो यही श्रेष्ठ परिचय है। वह तो मुझे ‘‘रुनू की माँ’’ कहकर पुकारती है।’

‘वाह, बहुत बढ़िया करती है ! अपूर्व ! मगर किसी के ढेर सारे बच्चे भी तो हो सकते हैं, किस-किसके नाम से परिचय दिया जाएगा?’

‘सो तो, जिसकी जैसी खुशी। रुनू, रेवा की सहेली है, इसलिए वह मुझे ‘‘रुनू की माँ’’ कहती है। निपू के दोस्तों की माँ मुझे ‘‘निपू की माँ’’ कहती हैं........’

‘ठहरो....ठहरो, भई माफ करो मुझे’ — रंजन चिढ़ गया — ‘लगता है, सब फालतू सहेलियाँ एक ही जगह जमा हो गई हैं !’

‘‘अच्छा, तो इस बार देख-सुन कर दो-चार स्मार्ट यंगमैन सखा जमा करूँगी.......’ — कहकर अपने सर्वांग में स्फूर्ति की तरंगे लहराती सुनन्दा चली गई।

और दूसरे ही क्षण घर से बाहर उसकी तेज आवाज सुनाई पड़ने लगी — ’हे भगवान ! बारह बज गए। अरे ओ निपू, ओ रुनू, नहाने गए हो या अभी तक बैठे हो? रविवार है तो क्या नहाने-खाने की भी छुट्टी है?’’

सुनकर एकबारगी तो ऐसा लगता है जैसे नन्दा अपने बच्चों को डाँट रही है, मगर उसकी आवाज का भाव इसके विपरीत है। नन्दा की सुरीली आवाज स्नेह और प्रेम से पगी हुई है। यह आवाज आज भी वैसी ही है। आड़ से सुनने पर मन उन्हीं पुराने दिनों की और लौटना चाहता है, परन्तु समीप आने पर? न तो समीप से और न ही दूर से, रंजन किसी भी तरह नन्दा तक नहीं पहुँच पा रहा है।

रुनू, निपू और नन्दा जैसे एक ही दल के हैं, और उनके बीच ही नन्दा खुद को सम्पूर्ण सार्थक समझती है। मातृरूप के अलावा उसका मानों और कोई रूप है ही नहीं !

लेकिन क्यों?

प्रेयसी वाला उसका रूप कहाँ खो गया? सिर्फ खोया ही नहीं, खोने के कारण हुए नुकसान पर भी उसका बिल्कुल ध्यान नहीं है।

रंजन मानता है कि यह नन्दा का ओढ़ा हुआ रूप है। चूँकि उसको एक लड़का और एक लड़की हो चुके हैं, इसलिए उसे हमेशा मातृरूप ही धारण किए रहना चाहिए, ऐसी उसकी धारणा बन गई है।

उसकी इस गलत धारणा को दूर नही किया जा सकता क्या? जी-जान से कोशिश कर?

बच्चों के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर निकाल अपनी पुरानी जगहों पर घूमा-फिराकर, सिनेमा ले जाकर सुनन्दा को क्या याद नहीं दिलाया जा सकता कि यह पृथ्वी आज भी वैसी ही है! पुराने दिनों में दोनों ने जिन जगहों पर प्रेमभरा समय गुज़ारा था, वे जगहें अब भी वैसी ही हैं ! हो सकता है कि इनकी याद दिलाने पर नन्दा स्वयं को फिर से पा सके !

मगर उससे यह बात कही कब जाए?

कब नन्दा अकेली मिल पाएगी?

०००००

काफी दिनों पहले से ही नन्दा ने निपू के सोने की व्यवस्था रंजन के कमरे में कर दी थी और बगल के कमरे में स्वयं अपनी बेटी के साथ अपने बिस्तर पर सोती थी।

रंजन जब इस व्यवस्था का प्रतिवाद करने को उद्धत हुआ था तो नन्दा मुस्कुराते हुए बोली थी — तो क्या करूँ, बोलो? चलो माना कि निपू अकेला सो लेगा, लेकिन रुनू को तो अब अकेली किसी कमरे में सोने नहीं दे सकती ना !'

‘क्यों, दोनों भाई-बहन तो हमेशा से एक ही कमरे में सोते आए हैं!’

‘एक ही तरह की व्यवस्था को, भला, हर समय के लिए लागू रखा जा सकता है क्या?’

‘तो क्या अब यही व्यवस्था बहाल रखनी पड़ेगी?’

‘उपाय भी क्या है?’ — विचित्र तरीके से नन्दा हँस पड़ी थी — ‘भविष्य में जब बेटी को दामाद के घर विदा कर दूँगी तब जरूर तुम्हारी समस्या का हल निकल सकता है !’

‘तब जाओ, तुम अपने मनपसन्द भण्डारघर में ही सोओ जाकर’ — कहकर रंजन उसकी हँसी की उपेक्षा कर वहाँ से चला गया था।

तब से नन्दा की यह व्यवस्था ही चली आ रही है।

इसलिए उससे एकान्त में मिल पाना मुश्किल है।

रंजन ने सोचा कि खाने के समय अपनी बात कह देगा, बच्चों के सामने ही कह देगा। सीधे और साफ तौर पर कहेगा — ‘मेट्रो के दो टिकट खरीदे हैं। शाम को अपने इस रसोईघर का काम थोड़ा कम ही रखना।’

बच्चे क्या करेंगे ? रोएँगे ? हाथ-पैर पटकेंगे ? हँसेंगे ? चूल्हे में जाएँ।

पूरी हिम्मत की रंजन ने।

लेकिन नहीं बोल पाया।

खाने की मेज़ पर तो नहीं ही बोल पाया। रंजन ने स्वयं ही माहौल खराब कर डाला। मगर कोई चारा भी न था। एक कटोरा मछली का झोल, फिर एक प्लेट मछली फ्राई, साथ में सब्ज़ियाँ, मिठाई, इसके बाद भरकटोरा पायस लेकर खाने बैठी नन्दा ! आज रविवार है, इसलिए बस आराम से पकाना और खाना है !

‘यह सब तुम खाओगी?’ — रंजन ने ज़रा गुस्से से ही पूछा।

परन्तु नन्दा पर कोई असर नहीं हुआ। एकदम प्रसन्न मुखमुद्रा में मछली भरा कटोरा अपनी ओर खींचते हुए बोली — ‘लो भला, खाऊँगी नहीं तो क्या दृष्टिदान कर जल में विसर्जित कर दूँगी?’ ‘इस हिसाब से खाओगी तो अब तुम हिल भी नहीं पाओगी !’

‘इस्स ! तुम तीनों अल्पाहारियों से ज्यादा मैं अकेली मेहनत कर सकती हूँ।’

बात गलत भी नहीं है। शरीर भारी होते हुए भी नन्दा बहुत मेहनत कर सकती है। घर में तो उसके हाथ-पाँव थमते नहीं हैं, पूरे मुहल्ले में भी दौड़ती फिरती है। किसी के घर दामाद आने वाला है तो नन्दा चली फरमाइशी खाना बनाने, किसी की लड़की को कोई देखने आनेवाला हो, किसी की बहूभात में बहू को सजाना-सँवारना हो, तो नन्दा की नींद उड़ जाती है। उन्हें सजाने के लिए अपने घर से ही शृंगार का हरेक सामान उठाए दौड़ी चली जाती है।

लोगों के लड़के-लड़कियों के विवाह की खरीदारी करने में भी नन्दा के उत्साह का कोई अन्त नहीं रहता। किसी को कोई अच्छी साड़ी खरीदनी हो या नए गहने बनवाने हों, मार्केटिंग के लिए नन्दा को उनका साथी बनना ही पड़ता है! फिर भी नन्दा की इस कार्यक्षमता के प्रति रंजन ने कोई आदरभाव नहीं जताया और विरक्ति से मुँह टेढ़ाकर बोला — ‘तुम खा-खाकर ही मरोगी एक दिन !’

‘नहीं तो कभी नहीं मरूँगी, क्यों? — ही-ही कर नन्दा इतना हँसी की मछली का झोल उसकी साड़ी पर गिरने लगा — ‘मरना तो एक दिन पड़ेगा ही। तो फिर तुम्हारी तरह नापतोल कर छटाँक भर खाकर वजन कम कर क्यों मरूँ? खाकर ही मरूँगी। जब लोगों के कन्धों पर चढ़कर जाऊँगी तो रास्ते में लोग कहेंगे कि देखो, इसे कहते हैं लाश ! यह महिला जरूर किसी बड़े आदमी की गृहिणी होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं।’

‘वाह, कितनी सांन्त्वना की बात है !’

‘क्यों नही, भला? मरने के बाद लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे इस बारे में नहीं सोचता क्या कोई?'

बात से बात निकलते-निकलते प्रसंग बदल गया और वह मूल बात रंजन कह ही नहीं पाया।

०००००

दुपहरिया ढलने के समय सुनन्दा कमरे में आई थी। खाने-पीने के बाद रसोइया-नौकरों के खाने का इंतजाम कर, भण्डारघर व्यवस्थित कर हाथ में पान की डिबिया लेकर। छुट्टियों की दोपहर में, बस, इतना ही साथ मिल पाता है रंजन को। लेकिन क्या किसी चाची-मौसी-बुआ की तरह दिखनेवाली इस महिला की ही चाहना है रंजन को?

रंजन ने पहले पान की ही बात कर दी —

‘रात-दिन भर गाल पान चबाते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती?’

‘ओ माँ, जरा बात तो सुनो ! असली ‘पानदोष’ (शराब पीने की लत) में तो लोगों को शर्म आती ही नहीं, तो भला, इस निर्दोष पान के बीड़े पर शर्म आएगी? क्या करूँ, रेवा की माँ ने इसका नशा लगा दिया है।’

हठात् रंजन ने दराज में से मेज़ पर से हटाकर रखी गई उसकी उस तस्वीर को बाहर निकाला — ‘इसे पहचानती हो?’

नन्दा चेहरे पर कौतुकपूर्ण मुस्कुराहट लिए हुए उस तस्वीर को कुछ पल देखकर बोली — ‘थोड़ा-थोड़ा ! एक बहुत बकबक करनेवाली एक वाचाल लड़की थी........।

‘दुख की बात है कि इस लड़की की अप्राकृतिक मृत्यु हो गई है’ — रंजन ने तीखे स्वर में कहा — ‘सुईसाइड कर लिया है इस लड़की ने !’

‘हाय रे ! मैं मर जाऊँ !! बेचारी !!! — सुनन्दा हँस पड़ी।

‘क्या थी तुम और आज क्या बन गई हो, तुम्हें कुछ ध्यान भी हैे?’

‘जो थी वही हूँ’ — हँस पड़ी सुनन्दा — ‘वही वाचाल और बकबक करनेवाली। बस, थोड़ी मोटी ही तो हो गई हूँ।’

‘सिर्फ देह से ही नहीं, दिमाग से भी मोटी हो गई हो। तुम्हें तो कभी गुस्सा भी करते नहीं देखता।’

‘तुम्हारी बातों पर यदि गुस्सा करने लगूँ न, तो हर पल मुझे गुस्सा ही करते रहना पड़ेगा। तब बच्चों के सामने हमारी क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी?’

नन्दा जैसे थोड़ा गम्भीर हुई।

‘बालबच्चे और सिर्फ बालबच्चे ! तुम तो ऐसा व्यवहार करती हो जैसे इस संसार में किसी और को बालबच्चे होते ही नहीं हैं। नज़रिया थोड़ा बदलो। अपने उस रसोईघर में दिन-रात मुगलई पराठा चाइनीज पुलाव और नेपाली मिष्ठान्न के पीछे पड़े रहने की बजाए फिर से बाहर-वाहर घूमना सीखो। समझीं?’

‘वाह, मैं बाहर निकलती नहीं क्या? हमेशा तो निकलती हूँ, घूमती हूँ।’

‘सहेलियों के साथ तुम्हारे मार्केटिंग करने को मैं घूमना नहीं मानता। चलो ना, आज फेरी स्टीमर पर घूम आते हैं। राजगंज में क्या........’

‘हाँ, चलो ना! — सुनन्दा बड़े उत्साह से खड़ी हो गई — ‘मैं तो हर समय तैयार रहती हूँ, तुम्हें ही तो समय नहीं मिलता। उठो, चलो उठो।’

‘अभी नहीं, शाम को।’

‘अरे लौटने तक तो शाम हो ही जाएगी। ज्यादा रात होने पर रूनू को ठण्ड लग सकती है, खाँस रही है कुछ दिन से।’

सुनन्दा जब बोलती है तो एक साँस में तेजी से बोलती जाती है, जिसके कारण किसी दूसरे को बीच में बोलने का मौका ही नहीं मिल पाता। रंजन को भी नहीं मिला। बात समाप्त होते ही भौंहें सिकोड़ कर बोला — ‘रूनू?’

इस दृष्टि और इस प्रश्न का अर्थ समझ न पाए, सुनन्दा की बुद्धि इतनी भी मोटी नहीं हुई है। इसलिए थोड़ा बुझे स्वर में बोली — ‘वे नहीं जाएँगे क्या?’

‘नहीं !’

‘यह ठीक होगा क्या?’

‘क्यों, ठीक क्यों नहीं होगा?’ — रंजन तीखे स्वर में बोला — ‘तुम घर से बाहर नहीं निकलती, ऐसी भी तो बात नहीं। क्या सब लोगों को अपने बच्चों को अपने आँचल में बाँधकर ही घूमते देखती हो?’

सुनन्दा थोड़ा झेंप कर बोली — ‘यह थोड़े ही कह रही हूँ? बस, मुझे अच्छा नहीं लगता। वे घर पर पड़े रहेंगे और हमलोग सज-सँवरकर घूमने जाएँगे। इसके अलावा.........’ — सुनन्दा रुक जाती है।

‘वे दोनों बच्चे नहीं हैं, जो माँ-बाप की इस हृदयहीनता पर रोने लगेंगे, समझीं? यह पक्की बात है। लेकिन तुम्हारा यह ‘इसके अलावा’ क्या है?’

सुनन्दा चेहरा उठाकर हँसते हुए कहती है — ‘वे बच्चे नहीं हैं, यही तो समस्या है ! निपू तो खेलने चला जाएगा। अब शाम को रूनू को इतनी देर घर में अकेला छोड़कर जाऊँगी? गाना सिखानेवाले मास्टर आएँगे !’

‘छि छि नन्दा, छि छि !’ — लगा जैसे रंजन धिक्कार की आग में जलाकर राख ही कर देगा उसे — ‘अपनी सोच को इतना पिछड़ा और इतनी निकृष्ट बना डाला है तुमने ! आश्चर्य ! तुम तो बी० ए० पास हो ना? विश्वास ही नहीं होता। उस छोटी-सी बच्ची के सम्बन्ध में इस तरह की बात करने में तुम्हें कोई संकोच नहीं हुआ?’

‘बच्ची कह देने से ही क्या वो बच्ची बन जाएगी !’ — सुनन्दा ऊँची आवाज में बोली — ‘पंद्रह वर्ष तो पूरा होने चला........।’

‘यह कोई उम्र नहीं है ! असल बात तो यह है कि वह तुम्हारे लिए एक बहाना है। अपने मन को तुमने इतना बूढ़ा बना रखा है कि इस जीवन का उपभोग करने की अब तुम में क्षमता ही नहीं बची है। ठीक है, तुम अपनी बेटी की ही पहरेदारी करो, जाने की ज़रूरत नहीं है।’

‘अच्छा चलो निपू नहीं जाएगा तो नहीं जाएगा, आखिर रूनू को साथ ले चलने से क्या हो जाएगा? — सुनन्दा समझौतापूर्ण अंदाज़ में थोड़ा हँसकर बोली — ‘हम जहाँ जाएँगे, वहाँ कुछ लोग तो साथ रहेंगे ही ना, हमलोग एक-दूसरे के गले में बाँहें डाले थोड़े ही न जाएँगे !’

‘रब्बिश !’ - कहकर उठ गया रंजन और तौलिया-साबुन लेकर बाथरूम में घुस गया। यानी अकेले ही जाने की तैयारी करने लगा वह। संगिनी की जरूरत उसे नहीं है।

०००००

नाराज रंजन सज-सँवरकर बिना कुछ बोले सीधे बाहर निकल गया। तो क्या अब सुनन्दा उसे मनाएगी?

वह जल्दी गुस्सा नहीं करती, पर रंजन की नासमझी पर उसे मन ही मन विरक्ति हुई। बेटी को साथ ले जाने की बात पर इतना गुस्सा आया महाशय को कि वह अपनी बात भी नहीं पूरी नहीं कर पाई ! क्यों, आखिर इसमें क्या दिक्कत होती? हम दोनों अकेले ही घूमने जाएँ, ऐसी ही इच्छा क्यों? हम अभी जवान लड़का-लड़की ही हैं क्या? उम्र के अनुसार ही आचरण करना ठीक होता है। जब तक हम दोनों देह से देह रगड़कर न चलें तब तक क्या जीवन का उपभोग नहीं होगा? सामीप्य - मात्र से ही हृदय का हृदय से स्पर्श महसूस नहीं किया जा सकता क्या? प्रेम क्या दस लोगों को दिखाकर घूमने की चीज़ है? लेकिन यह कौन तय करेगा कि सुनन्दा का सिद्धान्त ही ठीक है? बाहर निकलने पर तो यही लगता है कि यह दिखाकर घूमने की ही चीज़ है।

पतिदेवगण किस सीमा तक आज्ञाकारी हो सकते हैं और प्रेम-सुहागिनी पत्नियाँ किस हद तक मधुरभाषिणी हो सकती हैं, राह-घाटों पर तो दिन-रात इसी का दिखावा चल रहा है।

०००००

शाम को घूमते हुए रंजन की मुलाक़ात सहसा अपने एक पुराने मित्र-दम्पत्ति के साथ हो गई।

नहीं, स्टीमर पर घूमने नहीं गया था रंजन। गाड़ी लेकर यूँ ही रेड रोड से होकर गुज़र रहा था कि अचानक बग़ल से गु्ज़रती गाड़ी से कोई चिल्लाया — ‘अरे भई, ज़रा धीरे......धीरे !’

दोनों ही गाड़ियाँ रूकीं।

एक गाड़ी से दो लोग उतरे और दूसरी से एक ही।

सहपाठी सुविमल घोष था। सपत्नीक। बहुत दिनों के बाद भेंट हुई थी।

‘क्या बात है! अकेले-अकेले किसी वियोगी की भाँति भटक रहे हो?’ — हो-हो कर हँस पड़ा सुविमल। और इसके बाद पूरी शाम तीनों ने साथ ही बिताई। मैदान में बैठकर बचपन के दिनों की बातें कीं, नामी रेस्तराँ में ढेर सारे पैसे खर्चकर थोड़ा-बहुत खाया-पीया, एक-दूसरे को अपने घर आने का निमंत्रण दिया और अन्त में विदा ली।

लेकिन रंजन के मन से क्या वे दोनों विदा ले पाए? मित्रपत्नी का वह प्रेमपगा मधुर संभाषण और हल्की काजलपूरित आँखों से रह-रहकर अपने पति पर प्रणयसिक्त चपल कटाक्ष करती उसकी छवि क्या रंजन को बार-बार याद नहीं आती रही ! और तभी उसे महसूस हुआ कि समवयसी सहपाठिनी से विवाह करने की उसकी जैसी गलती करने वाले लोग लगता है बहुत कम ही हैं !

सुविमल की पत्नी सुविमल से लगभग दस-बारह साल छोटी होगी। उसके छोटी होने के कारण ही तो आज भी सुविमल उसकी प्रेमभरी नजरों का शिकार बनने का सौभाग्य प्राप्त कर रहा है !

अच्छा, दस-बारह बरस के बाद क्या सुविमल की पत्नी भी नन्दा की तरह बूढ़ी हो जाएगी? या नहीं होगी?

हो सकता है कि हो जाए। परन्तु क्यों?

औरतें क्यों इतनी जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं?

०००००

गैराज घर से कुछ दूरी पर था।

रंजन ने गाड़ी को गैराज में ढकेलकर रखा और यही बात सोचते-सोचते आ रहा था कि अचानक उसके चेहरे पर सपाक् से एक चाबुक आ टकराया।

यह सचमुच चमड़े का चाबुक तो नहीं था; पर हृदय की चमड़ी उधेड़ डाले, ऐसा ही एक दृश्यरूपी चाबुक था। कई पलों तक तो पत्थर-सा बना रह गया रंजन, सिर्फ धुँधली चेतना में एक साथ तैरती रही हल्की काजलपूरित दो जोड़ी काली आँखों की दृष्टि ! दोनों जोड़ी आँखें एक ही तरह की थीं, बिल्कुल एक जैसी !

प्रेमिल चंचल बंकिम !

भूल होने की बात ही नहीं थी। मगर सुविमल की उस हास्य-लास्यमयी पूर्णयौवना स्त्री की काजलपूरित दृष्टि यहाँ आई कैसे?

क्या रंजन उनके सामने चला जाए? अचानक सामने पहुँचकर देखे कि उनकी वह दृष्टि अपना रूप बदलकर किस तरह की हो जाती है?

मगर नहीं, नहीं देख पाया।

रंजन आगे बढ़ ही नहीं सका। रास्ते के किनारे इस बड़े घर की छाया के कोने पर खड़ा-खड़ा सिर्फ यह देखता रहा कि किस प्रकार वह दृष्टि पिछली बार की ही तरह एक बार फिर विदा लेकर विद्युत् की तरह लौट आई, और किस प्रकार उस दृष्टिवाण से आहत व्यक्ति अपने रास्ते पर आगे की ओर बढ़ते हुए बार-बार पलटकर देखता रहा।

कौन थे वे दोनों?

रुनू और रुनू के संगीत वाले मास्टर न?

रंजन ने क्या सही देखा है?

वह ग़लत देख रहा है क्या? लेकिन रूनू की आँखों में यह कटाक्ष आया कैसे? कहाँ से मिला उसे यह?

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वे दोनों चले गए, फिर भी उस रिक्त स्थान की ओर ही ताकता रहा रंजन, सन्न होकर। पिछले कई दिनों से परेशान करने वाले उसके प्रश्न का उत्तर उसे मिल गया है, क्या इसीलिए वह स्तब्ध रह गया है?

लड़कियाँ बहुत जल्दी जवान हो जाती हैं, इसीलिए लगता है कि इतनी जल्दी बूढ़ी भी हो जाती हैं। और इन नवयौवनाओं की पहरेदारी करते-करते उनकी माएँ भी बिल्कुल बुढ़ा जाती हैं।

उनको दोष देना बेकार है। निश्चिन्तता खत्म हो जाए तो फिर बचता ही क्या है?

और यदि दोष देना चाहें रुनू को या रुनुओं को?

नहीं, भला उनका भी क्या दोष है?

प्रकृति ने ही जब उनको सहसा एक नया चमकदार और धारदार अस्त्र थमा दिया है तो भला वे उसका सदुपयोग नहीं करेंगी क्या ?


मूल बांगला से अनुवाद : प्रमोद शर्मा