अंक-1 / आगरा बाजार / हबीब तनवीर
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दो फकीर 'शहर आशोब'(नगर की दुर्दशा का वर्णन करने वाली कविता) गाते हुए हाल में प्रवेश करते हैं और स्टेज पर जाते हैं, कफनी पहने हुए एक हाथ में कश्कोल (भिक्षा-पात्र) और तस्बीह (जपने की माला) और दूसरे में एक डंडा और लोहे के कड़े लिए हुए। परदे के सामने खड़े होकर जज्म सुनाते हैं और ताल पर कड़े बजाते जाते हैं।
फकीर : है अब तो कुछ सुखन (वाणी, बोलना, कविता) का मेरे इख्तियार (अधिकार, वश) बंदे रहती है तब्अ (तबियत, स्वभाव) सोच में लैलो-निहार (रात-दिन) बंद दरिया सुखन की फिक्र (चिंता) का है मौजदार (रात-दिन) बंद हो किस तरह न मुँह में जुबाँ बार-बार बंद अब आगरे की खल्क (जन-साधारण) का हो रोजगार बंद जितने हैं आज आगरे में कारखानाजात सब पर पड़ी हैं आन के रोजी की मुश्किलात किस-किसके दुख को रोइये आथ्र किसकी कहिये बात रोजी के अब दरख्त का हिलता नहीं है पात ऐसी हवा कुछ आके हुई एक बार बंद सर्राफ, बनिये, जौहरी और सेठ-साहूकार देते थे सबको नक्द, सो खाते हैं अब उधार बाजार में उड़े है पड़ी खाक बेशुमार बैठे हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार जैसे कि चोर बैठे हों कैदी कतारबंद बेवारिसी (बेबसी, लाचारी) से आगरा ऐसा हुआ तबाह फुटी हवेलियाँ हैं तो टूटी शहरपनाह होता है बागबाँ से हर इक बाग का निबाह वह बाग किस तरह न लुटे और न उजड़े, आह जिसका न बागबाँ हो, न माली, न खारबंद (काँटेदार झाड़ियाँ की बाड़) आशिक कहो, असीर (फुनगी, सिरा) कहो, आगरे का है मुल्ला कहो, दबीर (प्रकट) कहो, आगरे का है मुफलिस कहो, फकीर कहो, आगरे का है शायर कहो, 'नजीर' कहो, आगरे का है इस वास्ते ये उसने लिखे पाँच-चार बंद (मजाक)
नज्म पढ़ते हुए स्टेज के बाहर चले जाते हैं और साथ ही परदा बड़ी तेजी से उठता है। बाजार में अजीब बे-रौनकी है। तिल के लड्डूवाला, ककड़ीवाला, और दूसरे फेरी वाले आवाज लगाते हैं, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं होती। पृष्ठभूमि से एक औरत की आवाज आती है, जो तबले और सारंगी पर गजल गा रही है। शायद पान की दुकान के ऊपर कोठे आबाद हैं। पतंग-वाले की दुकान बंद है। किताबवाले के यहाँ दो-एक गाहक किताबें देख रहे हैं। जब ककड़ीवाला यहाँ आकर ककड़ी बेचने की कोशिश करता है तो गाहक किताब की दुकान से निकलकर पानवाले के यहाँ पहुँच जाते हैं और किताबवाला अपने हिसाब-किताब में लग जाता है।
लड्डूवाला : धेले के छह-छह, बाबूजी, धेले के छह-छह। हमसे मंदा कोई न बेचे। धेले के छह, बाबूजी, धेले के छह छह। (एक बच्चे से) खाके देखो, मियाँ। तिल के लड्डू, मिसरी के समान मीठे, लो खाओ।
बच्चा मुँह फेर लेता है।
तरबूजवाला : तरबूज, ठंडा तरबूज! कलेजे की ठंडक, आँखों की तरी! शरबन के कटोरे, ठंडा तरबूज! दिल की गरमी निकालने वाला, जिगर की प्यास बुझानेवाला, ठंडा तरबूज। राहगीर कोई ध्यान दिये बिना गुजर जाते हैं।
बरफवाला : मलाई की बरफ को! बरफ को! मलाई की बरफ को!
ककड़ीवाला : ताजा ककड़ियाँ! हाँ, हाँ, ताजा ककड़ियाँ! कुरकुरी, हरी-भरी, दमड़ी की चार। खाकर देखिये साहब, रेशम की तरह मुलायम, गन्ने-सी मीठी। खास इसकंदरे की ताजा ककड़ियाँ। हाँ, हाँ, ताजा ककड़ियाँ।
कनमैलिया : दाँत कुरेदो, कान का मैल निकालो, एक छदाम में। एक छदाम में दो काम। एक पंथ दो काज। दाँत का दाँत कुरेदो, कान का मैल निकालो, एक छदाम में।
पानवाला : आओ बाबूजी, बनारसियों में। बनारसियों के टुकड़े लगा दिये हैं। पान खाओ, मुँह रचाओ। इलायचियाँ कतर डाली हैं, इलायचियाँ। बड़े-बड़े टुकड़े लगाये हैं, बड़े-बड़े।
ककड़ीवाला : (लड्डूवाले से) फिर तू मेरी जगह पर बैठा?
लड्डूवाला : तभी तो मेरे लड्डू नहीं बिक रहे हैं। (आवाज लगाते हुए) मंदा माल है, घंटे-दो घंटे में खत्म हुआ जाता है। सबेरे से दो सौ लड्डू बेच चुका हूँ। अभी है, दो घड़ी बाद मिले न मिले।
ककड़ीवाला : मेरी जगह पर बैठा है और झूठ बोलता है - सबेरे से दो सौ लड्डू बेच चुका हूँ!
लड्डूवाला : फिर क्या कहूँ, दस दिन से एक लड्डू नहीं बेचा है। यह व्यापार की बात है, मेरी जान, यहाँ बातों के पैसे मिलते हैं। धेले के छह-छह, मियाँजी, हमसे मंदा कोई न बेचे। बाबूजी, धेले के छह-छह।
ककड़ीवाला : चल, उठ मेरी जगह से!
लड्डूवाला : अबे जा!
ककड़ीवाला : अबे अकड़ता काहे को है?
लड्डूवाला : अब तू जास्ती (ज्यादा) जबान तो चला नहीं। नाक की फुनग (फुनगी, सिरा) में दम कर दिया। अम्मा-बाबा करके मर गये और हम आफत में फँस गये।
ककड़ीवाला : अबे खचिया, क्यों खू़न औटाता है? अबे, बाज आ जा!
लड्डूवाला : अबे कालिये, तू किधर से नमूदार (प्रकट) हो गया? हट जा यहाँ से! देखता नहीं, काली चीज को देखके गाहक बिदक जाते हैं।
ककड़ीवाला : मखरेज (मजाक) करता है। खुदा की कसम, यह अपने बाप से भी खिल्लीबाजी करता होगा। (आवाज लगाते हुए) दमड़ी की चार-चार! रेशम की तरह मुलायम, गन्ने की-सी मीठी! खास इस कंदरे की, दमड़ी की चार! ताजा ककड़ियाँ, हाँ, हाँ, ताजा ककड़ियाँ।
कुछ लोग प्रवेश करते हैं। ककड़ीवाला आवाज लगाता हुआ उनकी तरफ बढ़ता है और उनका रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है। इतने में एक मदारी दायीं तरफ से बंदर लिये हुए आता है और अपने तमाशे से अजब रंग जमा देता है। फेरीवाले, बच्चे, लड़के और रास्ता चलने वाले-सब उसके चारों ओर जमा हो जाते हैं। शोर थम जाता है और पहली बार मदारी के फिकरे साफ समझ में आते हैं।
मदारी : (बंदर नचाते हुए) हाँ, जरा नाच दिखा दो, नाच। आगरे सहर में नाच दिखा दो। बच्चा लोग, एक हाथ की ताली बजाओ। अच्छा, जरा बताओ तो होली में मिरदंग कैसे बजाओगे? (बंदर मृदंग बजाता है) और पंतग कैसे उड़ाओगे? (बंदर नकल करता है।) और बरसात आ गई तो? (बंदर फिसल पड़ता है।) फिसल पड़ोगे? अरे भई, वाह! और अगर ठंडी लगी तो? (बंदर बदन में कँपकँपी पैदा करता है।) और बुड्ढा हो गया तो? (बंदर लाठी टेककर चलता है।) और मर गया तो? (बंदर लेट जाता है।) हिंदी को राम की कसम और मुसलमान को कुरान की कसम, जरा एक-एक कदम पीछे हट जाओ। अच्छा, अब बताओ, नादिरसाह दिल्ली पर कैसे झपटा था? (बंदर मदारी को एक लाठी मारता है।) अरे, तुम तो सारे दिल्ली शहर को मार डालोगे! बस करो, बड़े मियाँ, बस करो! अच्छा, अहमदसाह अब्दाली दिल्ली पर कैसे झपटा था? (बंदर लाठी मारता है।) हाँय, हाँय, हाँय, तुम तो सारे हिंदुस्तान को रौंद डालोगे। बड़े मियाँ, बस करो! और सूरजमल जाट आगरे शहर पर कैसे झपटा था? (वही नकल) ओहो, आहो, मर गया। बस करो, बड़े मियाँ, बस करो! अच्छा बताओ, फिरंगी हिंदुस्तान में कैसे आया था? (बंदर भीख माँगने की नकल करता है।) और पिलासी की लड़ाई में लाट साहब ने क्या किया था? (बंदर लाठी से बंदूक चलाता है।) और फैर कर दिया था? ओहो-हो, और बंगाल में क्या हुआ था? (बंदर पेट बजाता है और कमजोरी का अभिनय करता है।) अकाल पड़ गया था। (बंदर लेट जाता है।) लोगबाग भूख से मर गया था। और हमारा कैसा हालत है? (बंदर फिर पेट बजाता है।) और कल हमारा कैसा हालत हो जायेगा? (बंदर गिर जाता है)। फिर हमारे को क्या करना चाहिए? (बंदर लोगों के पास जाता है और पैरों पर सर रखकर लेट जाता है।) सलाम करो! (बंदर सलाम करता है। लोग खिसकने लगे हैं।)
ककड़ीवाला : इस कंदरे की ककड़ी, दमड़ी की चार-चार!
लड्डूवाला : बाबूजी, धेले के छह छह, धेले के छह-छह।
तरबूजवाला : गर्मियों की जान! तरबूज, ठंडा तरबूज!
मदारी : सलाम करो।
बंदर पान की दुकान पर, जो दायें रास्ते के पास है,
जाकर खड़ा हो जाता है और सलाम करता है।
ककड़ीवाला : (उसी आदमी से) ताजा ककड़ियाँ! हाँ, हाँ, ताजा ककड़ियाँ! खाके देखिये, साहब। हरी-भरी कुरकुरी, रेशम की तरह मुलायम, गन्ने-सी मीठी!
आदमी चला जाता है। मदारी गुस्से में झपटता है और ककड़ी वाले के हाथ से टोकरा छीनकर फेंक देता है। ककड़ियाँ सड़क पर बिखर जाती हैं।
मदारी : बड़ा आया ककड़ी बेचने वाला! हम एक लकड़ी देंगा तो ककड़ी-वकड़ी सब भूल जायेगा।
ककड़ीवाला : बंदर कहीं का!
मदारी : अभी तेरा बंदर बनाकर रख दूँगा। साला आया है ककड़ी बेचने! ककड़ी दिखाके हमारा सब आदमी भगा दिया।
लड्डूवाला : (मदारी की तरफ बढ़कर) अरे, क्या बात है? काहे को लड़ रहे हो?
तरबूजवाला : मारो साले इस मदारी के बच्चे को!
मदारी : हमारा सब आदमी भगा दिया।
ककड़ीवाला : मैं तो अपनी ककड़ी बेच रहा था।
मदारी : ककड़ी बेच रहा था। यही जगह बचा था ककड़ी बेचने के लिए?
लड्डूवाला : क्यों तू खुद ही अपनी कमाई के ठीकरे में छेद करने पर तुला हुआ है? तेरा आदमी भला वह क्या भगायेगा? जानता नहीं, आजकल पैसे का नाम सुनते ही लोग रफूचक्कर हो जाते हैं।
तरबूजवाला : भगवान झूठ न बुलवाये, भैया, दस दिन से एक तरबूज भी नहीं बेचा है हमने।
मदारी : अभी वह आदमी हमको पैसा दे रहा था। इसने बीच में अपनी ककड़ी घुसेड़ दी।
लड्डूवाला : अच्छा, बस जाओ, अपना रास्ता लो!
मदारी : रास्ता तुम्हारे बाप का है?
लड्डूवाला : अबे, मुँह सँभाल के बात करना, समझा?
मदारी : बड़ा लाट साहब आया है!
तरबूजवाला : मार साले को!
ककड़ीवाला : (दायें कोने से) लोगों के पास खाने को पैसे हैं नहीं, इसका बंदर देखने के लिए पैसा देंगे।
लड्डूवाला : बच्चू, खाल खींच के रख दूँगा। क्या समझता है?
तरबूजवाला : चल, निकल यहाँ से।
मदारी : (बायें कोने से) वाह रे आगरा! क्या औंधा सहर है! (चला जाता है।)
ककड़ीवाला : हरामी पिल्ला। फकीर आते हैं।
फकीर : पूछा किसी ने यह किसी कामिल (पूरे, पहुँचे हुए) फकीर से ये मेहरो-माह (सूरज-चाँद) हक ने बनाये हैं काहे के वह सुनके बोला, बाबा, खुदा तुझको खैर दे हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते बाबा, हमें तो ये नजर आती हैं रोटियाँ रोटी न पेट में हो तो कुछ भी जतन न हो मेले की सैर, ख्वाहिशे-बागी-चमन (बाग और चमन में जाने की इच्छा) न हो भूखे गरीब दिल की खु़दा से लगन न हो सच है कहा किसी ने कि भूखे भजन न हो अल्लाह की भी याद दिलाती है रोटियाँ कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते लंबे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते बॉंधे कोई रूमाल है रोटी के वास्ते सब किश्फ (विचार) और कमाल हैं रोटी के वास्ते जितने हैं रूप सच ये दिखाती हैं रोटियाँ अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ
फकीर चले जाते हैं।
रेवड़ीवाला : गुलाबी रेवड़ियाँ! मेरी रेवड़ियाँ हैं तर, बाबू लेते जाना घर, खाना चार यार मिलकर-गुलाबी रेवड़ियाँ!
कनमैलिया : एक छदाम में दो काम। दाँत का दाँत कुरेदो, कान का मैल निकालो, एक छदाम में!
तरबूजवाला : तरबूज ठंडा-मीठा!
लड्डूवाला : बाबूजी, धेले के छह-छह!
बरफवाला : मलाई की बरफ को!
चनेवाला : चना जोर गरम, बाबू, मैं लाया मजेदार चना जोर गरम आगरा शहर बड़ा गुलदस्ता जिसमें बनता चना यह खस्ता पैसे वाले को है सस्ता लड़का मार बगल में बस्ता ले स्कूल का सीधा रस्ता आकर खावे चने ये खस्ता खाकर जाये मदरसे हँसता चना जोर गरम
ककड़ीवाला : अरे, वाह रे मेरे यार, क्या सूझी है!
लड्डूवाला : अबे कालिये, क्या सूझी?
ककड़ीवाला : बिलकुल नयी बात!
लड्डूवाला : आत्महत्या की तो नहीं सूझी?
ककड़ीवाला : आत्महत्या करे मूरख। ज्ञानी के लिए संसार में बहुत-से रस्ते खुले हैं।
तरबूजवाला : कौन-सी ज्ञान की बात सूझी है तुझे, हम भी तो सुनें।
ककड़ीवाला : जो सोच नहीं सकते, वह समझ भी नहीं सकते।
लड्डूवाला : जोर लगाके देखेंगे।
ककड़ीवाला : अब देखता हूँ, कैसे नहीं बिकती मेरी ककड़ी!
तरबूजवाला : बंदर नचाने वाले हो क्या, भैया?
लड्डूवाला : बंदर नचाने के लिए कहाँ से पैसे आयेंगे? खुद नाच-नाचकर ककड़ी बेचेगा!
तरबूजवाला : क्या बात है? हमको बता दोगे तो जात में फरक आ जायेगा क्या, भैया?
ककड़ीवाला : व्यापार की बात सबको बताते रहे तो कमा चुके पैसा।
लड्डूवाला : बड़ा तीसमार खाँ बनता है। बताता क्यों नहीं, क्या बात हैं?
(ककड़ी वाले का हाथ पकड़ लेता है।)
ककड़ीवाला : नहीं बताऊँगा, क्या करते हो कर लो।
लड्डूवाला : अबे कालिये, कहीं तेरी गुद्दी न नाप दूँ!
ककड़ीवाला : गुद्दी क्या नापेगा तू, कहीं मैं ही तेरी थूथनी न रगड़ दूं!
लड्डूवाला : अबे, जबान सँभालकर बात कर, कदी (कभी {आगरे की बोल-चाल}) किसी घमंड में हो। बड़ा आया अफलातून का साला! अच्छा, जंगा छोड़, बता क्या बात है?
ककड़ीवाला : आज हमको यही देखना है कि तेरी हेकड़ी चलती है या मेरी। बड़ा सिकंदरे-आजम बनकर आया है।
लड्डूवाला : मरने निकले, कफन का टोटा! अबे, क्यों हत्या देता फिर रहा है? दो घूँसे ऐसे लगाऊँगा कि अभी तेरा लड्डू बना दूँगा।
ककड़ीवाला : अबे, मैं कहता हूँ तेरी रबड़ी न घोंट दूँ!
लड्डूवाला : पाव-भर की हड्डियाँ पीसके धर दूँगा।
ककड़ीवाला : अच्छा तो आज तुझे भी कसम है। यह मेरी हड्डियाँ पीसके धर देगा!
लड्डूवाला : ऐसा दूँगा, मुँह फिर जायेगा
ककड़ीवाला : अबे, एक गुद्दा मारूँगा गुरबाबाद (तबाह {आगरे की बोल-चाल}) कर दूँगा। मुँह गुद्दी में जा लगेगा। जबान कटकर गिर जायेगी, कदी किसी खयाल में हो।
लड्डूवाला : अबे कालिये, तू अपनी बत्तीसी सँभाल, तू अपनी बत्तीसी सँभाल!
तरबूजवाला : अरे-रे, यह क्या कर रहे हो, भैया!
लड्डूवाला : माश (उड़द) के आटे की तरह अकड़े जा रहा है।
ककड़ीवाला : अबे, मैं अकड़ रा हूँ या तू?
तरबूजवाला : अच्छा, यह दंगा बंद करो, भैया!
लड्डूवाला : अबे, चार उठाके ले जायेंगे, चार।
तरबूजवाला : अच्छा, जाओ अब गुस्सा थूक दो!
ककड़ीवाला : तुम चुप रहो जी, समझे!
लड्डूवाला : तुम बीच में टाँग मत अड़ाओ। मैं निपट लूँगा आज इस कालिये के बच्चे से।
तरबूजवाला : अबे, हर किसी पर बिगड़ बैठेगा! आज दो रोटी ज़्यादा खा लेता, और क्या!
लड्डूवाला : चुप!
तरबूजवाला : तुम समझते हो, जरा आवाज उठाकर हर किसी को दबा लोगे।
लड्डूवाला : चुप रहता है कि तुझे भी दूँ एक!
तरबूजवाला : अजब हवन्नक (बुद्धू, बौड़म) है। अबे, क्या समझता है अपने-आपको?
लड्डूवाला : तेरा बाप!
तरबूजवाला : क्या कहा?
लड्डूवाला : फिर कहूँ?
तरबूजवाला : अबे, टाँग पर टाँग रखके तेरी फाँकें तराश दूँगा।
लड्डूवाला : बेटा, कच्चे को चबा जाऊँगा। कतले-कतले कर दूँगा, कतले-कतले।
बरफवाला : अबे, चुप रहो! कान खा लिये। जबान है कि दर्जी की कैंची की तरह चलती ही जाती है।
लड्डूवाला : अबे, तेरी भी शामत आयी है? अच्छा, तू भी आ जा मैदान में। इस कालिये के साथ तुझे भी धोबी-पाट पर न दे मारा तो मेरा नाम नहीं।
रेवड़ीवाला : अबे, क्यों तुम लोगों की खाल ने पलटा खाया है! चुपके हो जाओ!
ककड़ीवाला : अबे, पैतरों की बात हमसे न करना। खुदा कसम हम हाजी शरीफद्दीन की तालीम के हैं। ऐसी चपत दूँगा कि अभी उड़न-छू हो जायेगा। कसम है कलावड्डू (आगरे की बोलचाल का एक निरर्थक शब्द) की!
लड्डूवाला : अबे, शरीफुद्दीन किस चिड़िया का नाम है? बड़ा आया हाजी शरीफुद्दीन का!
ककड़ीवाला : अब ज़्यादा मत बोल, नहीं तो समझ ले मेरी आँखों में भी खून सवार है।
लड्डूवाला : अबे, मालियामेट कर दूँगा। बड़ा चौधरी बना फिरता है।
ककड़ीवाला : अबे देखें तो...।
गुत्थम-गुत्था हो जाती है। सब अपने-अपने खोमचे छोड़कर झगड़े में लग जाते हैं। मौका अच्छा देखकर कुछ उचक्के और बाजार के लौंडे रेवड़ियाँ, ककड़ी, लड्डू वगैरह लूटना शुरू कर देते हैं। इससे झगड़ा और बढ़ता है। कुम्हार के एक-दो बरतन टूट जाते हैं। लोग अपनी-अपनी दुकानें बंद कर लेते हैं। फकीर गाते हुए अंदर आते हैं ।
फकीर : यह दुख वह जाने जिस पे कि आती है मुफलिसी मुफलिस की कुछ नजर नहीं रहती है आन पर देता है वह अपनी जान एक-एक नान पर हर आन टूट पड़ता है रोटी के ख्वान (थाल) पर जिस तरह कुत्ते लड़ते हैं एक उस्तख्वान (हड्डी) पर वैसा ही मुफलिसों को लड़ाती है मुफलिसी यह दुख वह जाने जिस पे कि आती है मुफलिसी जो अहले-फजल (प्रतिष्ठित) आलिमो-फाजिल2 (धुरंधर विद्वान) कहाते हैं मुफलिस हुए तो कलमा तलक भूल जाते हैं पूछे कोई 'अलिफ' तो उसे 'बे' बताते हैं वे जो गरीब-गुरबा के लड़के पढ़ाते हैं उनकी तो उम्र-भर नहीं जाती है मुफलिसी यह दुख वह जाने जिस पे कि आती है मुफलिसी कैसा ही आदमी हो पर इफलास (गरीबी) के तुफैल(कारण, बदौलत) कोई गधा कहे उसे, ठहरावे कोई बैल कपड़े फटे तमाम, बढ़े बाल फैल-फैल मुँह खुश्क, दाँत दर्ज, बदन पर जमा है मैल सब शक्ल कैदियों की बनाती है मुफलिसी यह दुख वह जाने जिस पे कि आती है मुफलिसी
फकीर चले जाते हैं।
बरतनवाला : ऐसे लड़े कि खूब लड़े। अबे, मैंने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा था? एक तो मंदा बाजार, ऊपर से यह टोटा! मेरी दो ठेलियाँ फोड़ दीं सालों ने।
ककड़ीवाला : फिर भी पचास और होंगी तुम्हारे पास। यहाँ तो यार खाँ का दीवाला निकल गया। कल बारिस में ककड़ियाँ बरबाद हो गई और आज चार आने का उधार माल लेकर आया था जिसमें से आधा साफ।
लड्डूवाला : अबे कालिए, तूने ही झगड़ा शुरू किया था। अब चुपका बैठा रहा।
तरबूजवाला : बस, अब फिर से छेड़खानी मत निकालो। नहीं तो तुमरे पास एक लड्डू बचेगा न मेरे पास एक तरबूज।
ककड़ीवाला : (एक शोहदे को गुजरता देखकर) मियाँ!
शोहदा : क्या है, मियाँ?
ककड़ीवाला : आप बुरा न मानें तो आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ।
शोहदा : फरमाइये !
ककड़ीवाला : क्या आप शायरी करते हैं?
शोहदा : अभी तक तो तौफीक (सामर्थ्य) नहीं हुई। मगर आपका मतलब?
ककड़ीवाला : यों ही!
शोहदा : अजब पागलों से साबका पड़ता है। चला जाता है। शायर हमजोली के साथ आता है।
शायर : (रूककर) कहते हैं और क्या खूब कहते हैं- न मिल 'मीर' अबके अमीरों से तू हुए हैं फकीर उनकी दौलत से हम
हमजोली : सुभान-अल्लाह!
ककड़ीवाला : (पास आकर) सुभान-अल्लाह! वाह-वाह मियाँ, वाह क्या कहने हैं! मियाँ, मेरी भी एक छोटी-सी अरज है।
शायर : नहीं चाहिए, भाई!
ककड़ीवाला : जी नहीं, मुझे कुछ और कहना है। मगर जरा आप मेरे पास एक तरफ आ जाइये।
शायर : अमाँ, क्या बात है?
ककड़ीवाला : सवाल मेरे पेट का है, हुजूर। ककड़ी बेचूँगा और सारी उम्र आपको दुआएँ दूँगा। अगर मेरी ककड़ियों पर आप... माफ कीजिये, मुझे एक बात सूझी है। सुबह से शाम तक फेरी लगाता हूँ। कई हफ्ते हो गए, धेले की बिक्री नहीं हुई।
शायर : मैंने अर्ज किया, मुझे नहीं चाहिए आपकी ककड़ी।
ककड़ीवाला : मैं कब कह रहा हूँ, मियाँ! बल्कि आप ये सारी ककड़ियाँ फोकट ही में ले लिजिए।
शायर : दिक कर रखा है। अमाँ, तुम क्या कहना चाहते हो, कहते क्यों नहीं?
ककड़ीवाला : मैंने सोचा है कि गाकर ककड़ियाँ बेचूँगा तो खूब बिकेंगी।
शायर : बहुत खूब! मुबारक!
ककड़ीवाला : अगर आप दो-चार शेर मेरी ककड़ियों पर लिख देते तो मैं आपका बड़ा एहसान मानता। शायर कहकहा लगाता है।
शायर : अरे भाई, हमारी क्या हकीकत है, कहो तो किसी उस्ताद से लिखवा दें तुम्हारे लिए एक पूरा कसीदा(प्रशस्ति)।
हमजोली : क्या बात है?
शायर : कहते हैं, हमारी ककड़ियों पर दो-चार शेर लिख दीजिए। मैंने अर्ज किया कि कहो तो उस्ताद 'जौक' से कहकर इस नायाब मौजू पर एक नज्म लिखवा दूँ।
हमजोली : बजा फरमाया। अरे भाई, उस्ताद 'जोक' का नाम सुना है?
ककड़ीवाला : हम क्या जानें, हुजूर, गँवार आदमी।
शायर : बात तो बड़ी समझ-बुझ की करते हो। भला गँवार को यह कहाँ सूझेगी?
हमजोली : बादशाह सलामत के उस्ताद है। अगर तारीफ करें तो जर्रे को आफ्ताब (सूरज) बना दें।
ककड़ीवाला : इतने बड़े शायर, भला वह सड़ी-सी ककड़ी पर क्या शेर कहेंगे?
शायर : क्यों नहीं कहेंगे, शायर जो ठहरे।
ककड़ीवाला : हमारी दरबार तक क्या पहुँच होगी, मियाँ?
शायर : कहो तो हम पहुँचा दें।
ककड़ीवाला : आप तो गरीब आदमी का मजाक उड़ाते हैं।
शायर : भई, साफ बात यह है कि ककड़ी जैसे हसीन मौजू पर जब तक कोई पाये का शायर जोर-आजमाई न करे हक अदा न होगा, और हम ठहरे नौ-मश्क (नौसिखिये)। इसलिए हमारे बस का तो यह रोग है नहीं।
हँसते हुए दोनों किताब वाले की दुकान की तरफ बढ़ जाते हैं।
तरबूजवाला : (शायर की तरफ बढ़कर और उसे रास्ते में रोक कर) तरबूज, ठंडा तरबूज! कलेजे की ठंडक, आँखों की तरी, गर्मियों की जान, शरबत के कटोरे, दिल की गर्मी निकालने वाला, जिगर की प्यास बुझाने वाला! जरा चखकर देखिए, साहब, ठंडा मीठा तरबूज।
शायर : भई देखो, यों तुम्हारा माल नहीं बिकेगा। ऐसा करो, तुम भी अपने तरबूज पर किसी मिर्जा या मीर साहब से कहकर कुछ शेर लिखवा लो। फिर अह्वे-सुखन (अत्याचार) की दाद में हम भी खरीद लेंगे तुम्हारे पास से तरबूज।
हँसकर आगे बढ़ जाता है।
तरबूजवाला : (दायीं तरफ लड्डूवाले के पास जाकर) जानते हो क्या बात थी, भैया? यह ककड़ी पर शेर लिखवाना चाहते हैं किसी शायर से।
लड्डूवाला : अरे, तो वही शेर क्यों नहीं याद कर लेता जो मदारी ने कहा था : खा लो ककड़ी-वकड़ी, नहीं तो दूँगा लकड़ी।
तरबूजवाला : हाँ, और क्या! (दोनों हँसते हैं।)
लड्डूवाला : (हँसकर) शायर अगर ककड़ी-तरबूज पर शेर कहने लगे तो शायरी छोड़कर ककड़ी-तरबूज न बेचने लगे।
तरबूजवाला : क्यों न लड्डू-तरबूज बेचना छोड़ के हम भी नज्म कहना, शेर लिखना शुरू कर दें। भूखा मरना ठहरा तो यों ही सही। क्यों, भैया!
शायर : (किताब वाले की दुकान पर एक किताब देखते हुए) मुलाहिजा कीजिए, कहते हैं : दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें था कल तलक दिमाग जिन्हें ताजो-तख्त का
किताबवाला : (अपनी मसनद पर बैठते हुए) वाह-वा, सुभान-अल्लाह!... सुना है, जुनून (पागलपन) के दौरे पड़ने लगे हैं इन दिनों 'मीन' साहब पर?
शायर : दम गनीमत समझिए, अस्सी से ऊपर उम्र होने को आई।
हमजोली : और फिर क्या-क्या जमाने देखे है 'मीर' साहब ने! इसी शहर में अजीबों की बेवफाई देखी, घर छोड़ा, वतन छोड़ा। दिल्ली छोड़ी कि एक जमाने में सुखनदानों और बा-कमालों का मलजओ-मावा (जहाँ सब-कुछ हो) थी। दर-दर की खाक छानी। ईरानियों और तूरानियों के हमले देखे। अफखागों, रूहेलों, राजपूतों, जाटों और मराठों की दस्तबुर्द (अत्याचार) देखी। देखा कि दिल्ली में खून के दरिया रवाँ हैं और इंसानों के सर कटोरों की तरह तैर रहे हैं। अपना घर आँखों के सामने लुटते देखा : घर जला सामने ऐसा कि बुझाया न गया यह सब देखा। अब लखनऊ में गोशा-नशीन हैं और फिरंगियों की गारतगरी (तबाही) देख रहे हैं।
किताबवाला : सच कहते हो, भाई, अजब गर्दिशों का जमाना है। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि यह सल्तनते-मुगलिया नहीं है, एक कवी-हैकल (बहुत ताकतवर, भारी-भरकम) शेर-बबर है जिस पर सैकड़ों कुत्ते-बिल्लियों ने हमला कर दिया है और इसे जख्मों से चूर और लाचार देखकर आसमान से चील और गिद्ध भी जमा हो गए हैं और ठोंगें मार-मारकर उसकी तिक्का-बोटी कर रहे हैं और वह शेर है कि न तो उसे कराहने की मोहलत है, न मर जाने का यारा।
शायर : भई, बहुत खूब, मौलवी साहब! वल्लाह, यह आप ही का हिस्सा है - यह जबान और यह अंदाजे-गुफ्तगू। हम तो नाम के शायर है, साहब। आप तो बात-बात में शायरी करते हैं।
किताबवाला : आप हजरात की सोहबत का नतीजा है, और क्या!
हमजोली : आप दोनों कसर-नफ्सी (विनम्रता) से काम ले रहे हैं।
शायर : (किताबवाले के पास बैठ जाता है) हमारी कसर-नफ्सी कह लीजिए या अपनो हुस्ने-जन (अच्छी धारणा)! बहरहाल, साहब, हम तो इस बात के कायल हैं कि दीवान भी छपवाया जाए तो ऐसे शख्स से जो सुखन-फहम (कविता को समझने वाला) हो।
किताबवाला : और अपना यह ईमान है कि शेर छापे तो शायर के। (कंधे पर हाथ रखकर) हर-कसो-नाकस (कोई भी आदमी) के अशआर छापना हमारा पेशा नहीं।
हमजोली : (शायर से) आपका दीवान तो मुकम्मल हो गया होगा?
शायर : साहब, शायर का कलाम उसकी जिंदगी के साथ ही तकमील (पूर्णता) को पहुँचता है। बहरहाल, इतने शेर जरूर हो गए हैं कि किताबी सूरत में आ जायें।
किताबवाला : लीजिए, और आपने मुझसे जिक्र तक नहीं किया।
हमजोली : तसाहुल (सुस्ती), शायर जो ठहरे।
शायर : घर की बात थी, सोचा किसी भी वक्त मसविदा आपके सिपुर्द कर दूँगा कि जो जी में आये कीजिए।
किताबवाला : गजब न कीजिए, साहब। मसविदा कल ही मेरे यहाँ पहुँचा दीजिए।
फकीर आते हैं।
फकीर : जो खुशामद करे खल्क उससे सदा राजी है सच तो यह है कि खुशामद से खुदा राजी है अपना मतलब हो तो मतलब की खुशामद कीजिए और न हो काम तो उस ढब की खुशामद कीजिए अंबिया (संत-जन), औलिया और रब की खुशामद कीजिए अपने मकदूर गरज सबकी खुशामद कीजिए जो खुशामद करे खल्क उससे सदा राजी है सच तो यह है कि खुशामद से खुदा राजी है ऐश करते हैं वही जिनका खुशामद का मिजाज जो नहीं करते वे रहते हैं हमेशा मोहताज हाथ आता है खुशामद से मकाँ, मुल्क और क्या ही तासीर की इस नुस्खे ने पाई है रिवाज जो खुशामद करे खल्क उससे सदा राजी है सच तो यह है कि खुशामद से खुदा राजी है गर भला हो तो भले की भी खुशामद कीजिये और बुरा हो तो बुरे की भी खुशामद कीजिये पाको-नापाक सड़े की भी खुशामद कीजिये कुत्ते, बिल्ली व गधे की भी खुशामद कीजिये जो खुशामद करे खलक उससे सदा राजी है सच तो यह है कि खुशामद से खुदा राजी है
फकीर चले जाते हैं।
किताबवाला : आप साहबान के तशरीफ लाने से पहले वह शोरे-कयामत बरपा हुआ था इस बाजार में कि तोबा ही भली।
शायर : क्यों
किताबवाला : बस, कुछ रजीलों (नीच लोग) में आपस में तू-तू मैं-मैं शुरू हो गई। बात-बात में एक अच्छा-खासा हंगामा शुरू हो गया। लूट-मार मच गई।
शायर : आपकी दुकान पर तो आँच नहीं आई?
किताबवाला : गनीमत समझिये, अभी दुनिया में किताबों की इतनी माँग नहीं।
हमजोली : क्यों, रद्दी में बेची जा सकती हैं।
किताबवाला : (हँसते हुए) एक ककड़ी वाले ने शरारत शुरू की थी।
शायर : अरे, वही साहब जो वहाँ तशरीफ रखते हैं।
किताबवाला : जी हाँ।
शायर : अभी-अभी उन्होंने मुझसे ककड़ी पर शेर कहने की दरख्वास्त की थी।
किताबवाला : माशा-अल्लाह!
हमजोली : साहब, क्या यह मुमकिन नहीं कि शायरी के अंदर कोई इस पूरे माहौल की तसवीर खींच दे।
शायर : 'मीर' साहब का कलाम इस अफरा-तफरी की दर्दअंगेज तस्वीर नहीं तो और क्या है- परागंदा रोजी, परागंदा दिल (रोजी बिखर गई, दिल परेशान हो उठा) इस एक फिकरे में एक दफ्तरे-मानी पिन्हाँ (छुपा हुआ) है।
हमजोली : नहीं साहब, यह तो उन्होंने जाती परागंदा-हाली (परेशानी) का रोना रोया है।
शायर : (बात काटकर) दुनिया-भर का ठेका ले रखा है शायर ने?
हमजोली : जी नहीं, मेरा मतलब यह था कि शायद गजल की सिर्फ (विधा) में वह वुसअत (व्यापकता) नहीं कि उसमें हर मजमून और हर खयाल नज्म किया जा सके।
शायर : आप शुअराए-ईरान और असातजाए-हिंद (ईरान के शायर और हिंदुस्तान के उस्ताद) की सदियों की रवायतों पर हमला कर रहे हैं। गजल जैसी हसीन चीज दुनिया के किस अदब में पाई जाती है?
हमजोली : मैं उसके हुस्न से इंकार नहीं कर रहा। मैं तो यह कहता हूँ कि उसमें इतनी गुंजाइश नहीं।
शायर : जो चीज गजल में नहीं कह सकते, कसीदे में कहिये।
हमजोली : कसीदे में बादशाहों की तारीफ के सिवा और क्या कहियेगा?
शायर : मसनवी में तो सब कुछ कह सकते हैं।
ककड़ीवाला : (तजकिरानवीस (वृत्तांत-लेखक) को आता देखकर) साहब, आप बुजुर्ग, मैं आपके सामने लौंडा। आपका दिमाग जैसे आसमान पर सूरज, मेरी हैसियत जैसी जमीन पर उड़ती खाक। छोटा मुँह बड़ी बात, गुस्ताखी माफ कीजिए, मेरी एक छोटी-सी अरज सुन लीजिए।
तजकिरानवीस उसकी तरफ देखता है और त्योरी चढ़ाके चुपचाप आगे बढ़ जाता है।
तजकिरानवीस : (किताबवाले की दुकान पर पहुँचकर) अस्सलामअलेकुम!
किताबवाला : वालेकुमअस्सलाम, आइये मौलाना! अपनी मसनद मौलाना को देता है और खुद दुकान के सामने वाले स्टूल पर बैठ जाता है।
शायर : गरीब सुबह से आपकी राह तक रहा है कि आप आयें तो आप से दो-चार शेर अपनी ककड़ी पर लिखवाये। और आपने उसकी बात का जवाब तक देना गवारा न किया।
तजकिरानवास : मैं ऐसे-वैसों से बात करके अपनी जबान खराब करना नहीं चाहता।
किताबवाला : आप भी गोया 'मीर' साहब के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं। सुना है, दिल्ली से लखनऊ के सफर में 'मीर' साहब एक लखनवी के साथ एक ही इक्के पर हमसफर थे और सारे रास्ते खामोश रहे कि कहीं जबान न बिगड़ जाये।
तजकिरानवीस : साहब, यही रवायतें तो हैं कि आगे चलकर शायद जबान और शेरी-अदब को जिंदा रखेंगी। वरना बरबादी में कसर कौन-सी बाकी रह गई है! अब देख लीजिए, दिल्ली में जिस किस्म की जबान लोग बोलने लगे हैं, मैं तो कान बंदकर लेता हूँ।... साहब, सुना है कलाम-पाक का रेख्ता में तर्जुमा आ गया है।
किताबवाला : जी हाँ, शाह, रफीउद्दीन साहब का तर्जुमा मौजूद है। और अगर आपको मौलवी अब्दुल कादिर का तर्जुमा दरकार है तो कुछ रोज इंतजार कीजिए। हफ्ते-दो हफ्ते में वह भी आ जायेगा।
शायर : तरक्की का दौर आ रहा है, मौलाना।
किताबवाला : तरक्की कह लीजिए या तनज्जुल (पतन, अवनति), बहरहाल जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है। मशीनें आ गई हैं। जगह-जगह छापे-खाने खुल रहे हैं और कलाम-पाक के साथ-साथ इंजील के भी तर्जुमे छप रहे हैं। सुना है, कलकत्ते में एक फिरंगी है जो संस्कृत, फारसी, उर्दू और दीगर हिंदुस्तानी जबानों में बड़ी महारत रखता है। उसने एक मदरसा खोला है फोर्ट विलियम कॉलेज नाम का। वहाँ इन जबानों में दर्स (शिक्षा) दिया जाता है। और अब तो सुना है कि मुशायरे भी वहीं मुनअकद (आयोजित) होंगे।
शायर : हमने तो यहाँ तक सुना है कि दिल्ली में भी एक कॉलेज खुल रहा है जहाँ अंग्रेजी जबान की तालीम और कीमिया और तबीअत (रसायन और भौतिकशास्त्र) पर दर्स दिए जायेंगे।
किताबवाला : कुफ्री-इलहाद (नास्तिकता) का दौर है। इस दौर को बदल देने के लिए ब-खुदा किसी मुजाहिद (धर्मयुद्ध का योद्धा, जिहाद करने वाला) की जरूरत है। फी-जमाना दर्दमंद तो शायद बहुत हैं मगर मुजाहिद कोई नहीं।
हमजोली : जमाने को जरूरत दरअसल मुजाहिद की नहीं, मौलाना, बल्कि इंसान की है। इंसान कहीं नजर नहीं आता।
शायर : (खड़े होकर) तो हम लोग क्या जानकर है? (सब हँस देते हैं। शायर बैठ जाता है।)
हमजोली : दर्सों-तदरीस (अध्ययन-अध्यापन) का यह नया सिलसिला जो शुरू हो रहा है, मेरा यकीन है कि इंसान भी यही से पैदा होंगे। वैसे भी सारे जमाने में लूटमार मची हुई है। जिसे देखो अपनी बे-रोजगारी का रोना रोता है। इन नये कॉलेजों से कम-अज-कम यह तो होगा कि कुछ लोगों के लिए रोजी का हीला निकल आयेगा।
किताबवाला : (तजकिरानवीस से) मेरा तो ख्याल है, मौलाना, आपकी इन तसनीफात (कृतियाँ), शर्हो-हदीम ([कुरान की] व्याख्या तथा पैगम्बर की कही हुई बात), तब्सिरओ-तनकीद (आलोचना और समीक्षा) और तजकिरा-नबीसी में कुछ नहीं धरा है। अब तो आप भी कुछ नये रास्ते निकालने की फिक्र कीजिए। (उठकर मौलाना के पास बैठ जाता है।) मैंने उड़ते-उड़ते किसी से सुना है कि दिल्ली में छापाखाना आ रहा है और बहुत जल्द उर्दू में रिसाले और अखबारात छपने शुरू हो जायेंगे। सोचता हूँ, वहीं कुतुबखाना खोल लूँ और अखबारात का भी सिलसिला जारी करूँ।
तजकिरानवीस : मियाँ, बुरा बहुत बुरा वक्त आया है वाकई! अभी कल की बात है मैं अबुल-फत्ह साहब के मतब में बैठा नस्रुल्ला बेग साहब से बातें कर रहा था कि कस तरह आगरा और दिल्ली को हविसकारों (लालची लोगों) ने लूट लिया। सिलसिलए-गुफ्तगू शेरो-अदब तक पहुँचा।... मीर अम्मन खाँ की दर्दनाक दास्तान सुनाने लगे कि किस तरह सूरजमल जाट ने उनका घर बरबाद किया और उनकी जायदाद पर काबिज हुआ। कहने लगे कि वह अब कलकत्ते के नए फिरंगी मदरसे में बैठे 'किस्सा चहार दरवेश' लिख रहे हैं और ख्वाहिशमंद है कि मैं भी कलकत्ते हिजरत करूँ। फारसी की मुदरिंसी मिल जायेगी। यही रजब अली 'सुरूर' ने कहलवा भेजा है। खुद नस्रुल्ला बेग इसी बात पर जोर दे रहे थे।
किताबवाला : (दुकान से उठकर बाहर जाते-जाते रूककर) अब उन्हीं को देखिए, फिरंगी की फौज में रिसालदार हैं और मजे से हैं। (बायीं ओर से निकल जाते हैं।)
शायर : सुना है, उनके भतीजे असदुल्लाह की शादी हो गई?
तजकिरानवीस : जी हाँ! भई, अजीब जहीन लड़का है यह असदुल्लाह भी! इस कम-उम्री में फारसी में शेर कहता है और वल्लाह खुद मेरी समझ में नहीं आते।
हमजोली : उसकी उम्र तो यही कोई तेरह-चौदह की होगी?
शायर : जी हाँ, इसमें हैरत की क्या बात है? शेख मुहम्मद इब्राहीम 'जौक' को देखिए। अट्ठारह-बीस की उम्र होगी। अकबरे-सानी के दरबार में पहुँचे। शाह नसीर जैसे कुहना-मश्क (सिद्धहस्त, अभ्यस्त) का तख्ता उलट दिया और उस्तादे-शह हैं। सारी दिल्ली में उनकी तूती बोल रही है।
तजकिरानवीस : मियाँ, अब कैसी दिल्ली, कहाँ का दरबार और कौन-से अकबरे-सानी! अकबरो-आलमगीर वगैरह के बाद आलमगीरे-सानी और शाह आलम-सानी और अकबरे-सानी लौहे-सल्त-नते-मुग लिया पर हर्फे-मुकर्रर (दोहराये गये अक्षर) की तरह आते हैं और उजड़ी हुई दिल्ली की खराबए-वहशतनाक (भयानक निर्जन स्थान) में, जिसका नाम कभी किलए-मुअल्ला (ऊँचा या श्रेष्ठ किला) था, एक लुटा-पिटा दरबार जम जाता है। घड़ी-भर के लिए शेरो-अदब की आवाज बुलंद होती है, फिर वही वहशतों का हमला और वही हू (सुनसान) का आलम। लोग अवध या दकन की तरफ भाग निकले हैं और दिल्ली के गोरिस्ताने-शाही (शाही कब्रिस्तान) में फिर वही कुत्ते लौटते हैं और उल्लू बोलता है।
दायें रास्ते से एक गाहक आता है।
गाहक : (तजकिरानवीस को किताबवाला समझकर) साहब, मुंशी मिर्जा मेहदी का 'नादिरनामा' होगा आपके यहाँ?
किताबवाला इजारबंद बाँधता हआ बायीं तरफ से तेजी से अंदर आता है।
एक आवाज : (स्टेज की बायीं तरफ से, गुस्से में) क्या, मौलवी साहब, ऐन दुकान के सामने बैठ जाते हैं आप भी हर रोज! मारे बदबू के नाम में दम आ गया है।
एक अजनबी, जो बाजार में टहल रहा था, गली से झाँककर ये बातें गौर से सुनता है और मौलवी साहब को देखकर कहकहा लगाता है।
किताबवाला : 'नादिरनामा' तो है नहीं। अलबत्ता उसका तर्जुमा उर्दू में हुआ है - 'तारीखे-नादिरी'- वह मौजूद है।
गाहक : और 'किस्सा लैला-मजनूँ'?
किताबवाला : 'किस्सा लैला-मजनूँ' भी अमीर खुसरो का खत्म हो गया, मगर हैदरी साहब का उर्दू का तर्जुमा अभी-अभी आया है।
गाहक : जरा दिखाइये। (किताबवाला गाहक को लेकर अंदर जाता है।) देहातियों की एक टोली रंगीन कपड़े पहने, 'बलदेवजी का मेला' नाम की नज्म गाती हुई बायें रास्ते से आती है। स्टेज के बीच में जमकर गाती है।
टोली : क्या वह दिलबर कोई नवेला है। नाथ है और कहीं वह चेला है मोतिया है, चमेली-बेला है भीड़ अंबोह (भीड़) है, अकेला है शहरी, कस्बाती और गँवेला है जरा अशरफी है, पैसा-धेला है एक क्या-क्या वह खेल खेला है भीड़ है खल्कतों का रेला है रंग है, रूप है, झमेला है जोर बलदेवजी का मेला है है कहीं राम और कहीं लक्ष्मण कहीं कच्छ-मच्छ है, कहीं रावण कहीं वाराह, कहीं मदन मोहन कहीं बलदेव और कहीं श्रीकिशन सब सरूपों में हैं उसी के जतन कहीं नरसिंह है वह नारायण कहीं निकला है सैर को बन-ठन कहीं कहता फिरे है यूँ बन-बन रंग है, रूप है, झमेला है जोर बलदेव जी का मेला है हर तरफ गुलबदन रँगीले हैं नुक-पलक (नुकीली पलकों वाले) गुंचा-लब (कलियों जैसे होंटों वाले) सजीले हैं बात के तिरछे और कटीले हैं दिल के लेने को सब हठीले हैं खुश्क, तर, नर्म, सूखे, गीले हैं टेढे़, बलदार और नुकीले हैं जोड़े भी सुर्ख, सब्ज, पीले हैं प्यार, उल्फत, बहाने-हीले हैं रंग है, रूप है, झमेला है जोर बलदेव जी का मेला है क्या मची है बहार, जय बलदेव! ऐश के कारोबार, जय बलदेव! धूम लैलो-निहार, जय बलदेव! हर कहीं आशकार (प्रकट), जय बलदेव! हर जबान पर हजार जय बलदेव! दम-ब-दम यादगार, जय बलदेव! कह 'नजीर' अब पुकार, जय बलदेव! सब कहो एक बार, जय बलदेव! रंग है, रूप है, झमेला है जोर बलदेवजी का मेला है
टोली गाती हुई दायीं तरफ से निकल जाती है।
एक हसीना बेनजीर बाजार में आती है- माथे पर कश्का (टीका, तिलक), हाथ में फूलों का गजरा। उसके पीछे-पीछे एक शोहदा लगा हुआ है।
शोहदा : ऐ दिल-आराम, जय सीताराम!
बेनजीर : (मुसकराकर) क्या चाहते हो?
शोहदा : अर्जे-हाल।
बेनजीर : फरमाओ।
शोहदा : श्री रामचंद्र ने लंका को फतह किया और तुम्हारे सूरमा हुस्न ने मेरे दिल का गढ़। बूद दर रोज दिले-मन रावन राम करदंद बुताँ राम किसूँ (मेरा दिल हमेशा रावण जैसा था। बूतों (सुंदरियों) ने उसे वश में करके राम की ओर मोड़ दिया।)
बेनजीर : इस बात का गवाह?
शोहदा : हनुमान। (हसीना हँस देती है और दोनों बात करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।) रे छैल-छबीली, रंग-रँगीली, गाँठ-गठीली, तुझे किस नाम से पुकारूँ?
बेनजीर : लौंडी को बेनजीर कहते हैं। क्या मैं जनाब का इस्मे-शरीफ दरयाफ्त कर सकती हूँ?
शोहदा : मुझे बद्रे-मुनीर कहते हैं। और रहने वाली तुम कहाँ की हो?
बेनजीर : मैं हुस्नपुरा की रहने वाली हूँ। और सरकार?
शोहदा : यह नाचीज इश्कनगर में रहता है। दोनों चले जाते हैं।
शायर : मौलाना, सुना है आप शुअराए-उर्दू का कोई तजकिरा लिख रहे हैं?
तजकिरानवीस : जी हाँ, लिख तो रहा हूँ, पर न जाने क्यों!
शायर : किस मंजिल में है?
तजकिरानवीस : गुमराही की मंजिलों में भटक रहा है, साहब, और क्या! मियाँ, 'सोज' मरहूम के साथ सोहबत थी, उन्हीं ने उकसाया था कि कुछ लिखिए। एक जमाना था कि दिल्ली और उसके गिर्दो-नवाह के चक्कर लगते थे। 'सोज' मरहूम के अलावा 'मीर' साहब, ख्वाजा मीर 'दर्द', हजरत 'सौदा', मीर हसन, हजरत 'फुगाँ'- सबके साथ उठना-बैठना था। ये हजरत दुनिया से क्या उठे बज्म (महफिल) ही उजड़ गयी।
किताबवाला : (एक देहाती लड़के को गुजरता देखकर) इधर आना, मियाँ! (लड़का नहीं सुनता।) अबे, इधर आ बे खबीस! (लड़का आता है।) सुसरे रेख्ता नहीं समझते। जब तक मुगल्लिजात (गंदी गालियाँ) न बकिये, समझते हैं इज्जत नहीं हई। (लड़के को पैसे देकर) अजी, सामने की दुकान से चार पान बनवा लाओ।
लड़का पान की दुकान पर चला जाता है।
लड़का : जरा हाथ चलाकर चार पान बना देना, भाई।
पानवाला : अभी लीजिये साहब। बनारसियों के बड़े-बड़े टुकड़े। इलायचियाँ कतर डाली हैं, इलायचियाँ।
तजकिरानवीस : 'मीर'साहब कोई तीस बरस बाद अपने वतने-मालूफ (मूल जन्मस्थान), यानी दिल्ली वापस आये। उलमा-ओ फुजला से मिले। इज्जतो-तौकीर (सम्मान, प्रतिष्ठा) मिली, पर ऐसा कोई मुखातिब नहीं मिला जिससे दिले-बेताब को तसल्ली हो। कहने लगे कि सुभान-अल्लाह, यही वह शहर है कि जिसके हर कूचे में आरिफ कामिल, फाजिल, शायर, मुंशी और दानिशमंद थे! आज वहाँ कोई ऐसा नहीं कि उसकी सोहबत से लुत्फ उठाऊँ। चार महीने इस तौर से वतने-अजीज में गुजारे। बहुत रंज हुआ और वापस चले गए। (लड़का पान लाता है।) वह बज्म में आया इतना तो 'मीर' ने देखा फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही गरज, साहब, अब कैसा तजकिरा और कहाँ का तजकिरा-नवीस। बहरहाल दास्ताने-पारीना (पुरानी कहानी) का एक जर्री वर्क (सुनहरा पृष्ठ) अब तक जेह्न के किसी गोशे में जगमगाता रहता है। अहदे-हाजिर की जुल्मतों ने अगर उस शम्अ को बुझा न दिया तो मुमकिन है आने वाली नस्लों के लिए कुछ छोड़ जाऊँ। वरना तो हमारा दम भी गनीमत समझो।
पीछे के दरवाजे से एक आदमी तेजी से अंदर आता है और दायीं तरफ से निकल जाता है। ककड़ीवाला उसके पीछे आवाज लगाता हुआ दौड़ता है और उसके साथ बाहर निकल जाता है।
शायर : मौलवी साहब मेरा दीवान छापने पर मुसिर (आग्रह करना) है। सोच रहा था कि अगर आप उसे एक नजर देख लेते तो मेरी इस्लाह भी हो जाती और बहुत मुमकिन है कि आपको शोअरा का तजकिरा लिखने के सिलसिले में एक नई तहरीक भी होती।
तजकिरानवीस : नई तहरीक तो खैर अब क्या होगी, बहरहाल, खिदमत के लिए हर वक्त हाजिर हूँ। वही आदमी दायीं तरफ से अंदर आता है और बायीं तरफ से निकल जाता है। ककड़ीवाला अब तक उसके पीछे लगा हुआ है, मगर वह बीच स्टेज पर पहुँचकर रूक जाता है। आवाज धीमी हो जाती है है। पानवाले की बेंच की तरफ धीरे-धीरे वापस जाता है और बैठ जाता है।
किताबवाला : (गाहक से) नहीं साहब, फारसी का 'लैला-मजनूँ' खत्म हो गया है। मैंने आपसे पहले ही अर्ज कर दिया था।
गाहक चला जाता है।
तजकिरानवीस : अब यह जमाना देखिये कि कुतुबखानों में फारसी की किताबें अनका (गायब) हो रही है हैं। नस्र भी उर्दू ही में लिखी जाती है। फिर कोई क्या तजकिरा लिखे और किसलिए?
किताबवाला : खूब याद आया! मियाँ 'नजीर' के एक शादिर्ग हाल ही में मेरे पास आये, उनकी एक जन्म लेकर कि क्या मैं उसे अपने रसूख से शाया करवा सकता हूँ। अब भला बताइये, कौन पढ़ेगा मियाँ 'नजीर' का कलाम? तीन-चार आदमी स्टेज पर कहकहा लगाते हुए गुजर जाते हैं। ककड़ीवाला उनके पीछे दौड़ता है: 'पैसे की छह-छह। पैसे की छह-छह!' लोग निकल जाते हैं। ककड़ीवाला निराश हो जाता है। उसकी चाल धीमी पड़ जाती है और स्वर में निराशा आ जाती है। आदमियों के पीछे धीरे-धीरे आवाज लगाता हुआ गुजर जाता है।
शायर : साहब, एक जमाना आने वाला है कि यही बाजारी चीजें चलेंगी। होली या दीवाली पर कुछ तुकबंदी कर लीजिए, इल्मो-फज्ल की मेराज(शिखर) पर पहुँच जाइयेगा। यह तो जौक का आलम है आजकल। अभी-अभी यह ककड़ीवाला मेरे पास दौड़ा हुआ आया और कहने लगा : 'साहब, मेरी ककड़ी पर नज्म लिख दीजिए।' अब भला बताइये!
बाहर से एक आवाज : तुम से एक बार कह दिया, नहीं चाहिए ककड़ी। दिमाग खराब हो गया है?
ककड़ीवाला : (बाहर से) नहीं मियाँ, यह बात यह है...।
आवाज : बस, कह दिया न, मुझे ककड़ी खरीदनी है न मैं शेर कह सकता हूँ। हमारा अपना काफिया तंग है। परेशान कर दिया! कुम्हार के यहाँ कुछ लोग जमा होते जा रहे हैं। इतने में हीजड़ों की एक टोली आती है, जिसमें करीमन और चमेली भी है।
करीमन : अल्लाह की अमाँ, पीरों का साया! लड़के के अब्बा के हाथ का मैल। ऐ सदके जाऊँ, मैं आपके वारी! अल्लाह की अमाँ पीरों का साया!
दर्जी : रामू, अबे ओ रामू! अबे, घरवाली के पास कब तक घूसा बैठा रहेगा? अबे, बाहर निकल, यार-दोस्तों में आकर बैठ जरा। (रामू खिलखिलाता हुआ बाहर आता है) झेंपू कहीं का! क्या मिठाई नहीं खिलायेगा?
करीमन : अल्लाह की अमाँ, पीरों का साया! आज के दिन नया जोड़ा लूँगी। अल्लाह सारी उम्र पहनना-ओढ़ना नसीब करे, एक यह सत्तर और।
रामू : अरे, तुम लोग कहाँ डटे जा रहे हो? हटो, रास्तो दो।
करीमन : ऐ सदके जाउँ। मैं तुम्हारी वारी। अल्लाह तुम्हारी सलामतियाँ रखे। ओ चमेली, अरी क्या चबूतरा खानम बनी बैठी है! अरी, इधर आ, हौला-खब्तन (वह औरत जो हमेशा घबराई हुई और बौखलाई हुई रहे) कहीं की।
रामू : अरे, तुम लोग जाओ। हटो यहाँ से। अरे, हटाओ रे इन साले हीजड़ों को यहाँ से।
चमेली : हे हय, आज के दिन यह डाँट-डपट कैसी! एक-एक ऐसी मोटी सुनाऊँगी जोन रखी जाये, न उठाई जाये। हे हय, कैसे लोग हैं! ओ करीमन, हे हय, कहाँ चली गई शस्कारा (एक गाली) कहीं की! (करीमन को देखकर) अरी, तू कहाँ है हवाई दीदा? जब से गला फाड़े डाल रही थी, अब मुँह क्या तक रही है, गाती क्यों नहीं?
करीमन : ऐ, अल्लाह लड़के को सलामत रखे। दूधों नहाये, पूतों फले! अल्लाह की अमाँ, पीरों का साया! आज नहीं गाऊँगी तो कब गाऊँगी? चल तू सीटियाँ शुरू कर!
रामू : अबे, तेरी ऐसी-तैसी। खबरदार जो सीटियाँ गायीं।
चमेली : ऐ करीमन, तुझे खुदा की सँवार। कहीं शामत ने तो धक्का नहीं दिया है। अरी, कोई अच्छी चीज गा, ये मुई सीटियाँ ही रह गई है।
करीमन : अच्छा, ले सँभाल ढोलक।
रामू : कोई धार्मिक चीज याद हो तो सुनाओ।
करीमन : जो हुक्म, सरकार!
हीजड़े गाते हैं।
थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा जिस घर को खाली देखा उसी घर में जा फिरा माखन, मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया कुछ खाया, कुछ खराब किया, कुछ गिरा दिया ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहाँ और उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले, हाँ मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियाँ खाता नहीं, मैं उसकी निकाले था च्यूँटियाँ ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन सब मिल जसोदा के पास यह कहती थी आके पीर अब तो तुम्हारा कान्हा हुआ है बड़ा शरीर देता है हमको गालियाँ, फिर फाड़ता है चीर छोड़ दही न दूध, न माखन, न घी, न खीर ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियाँ और कान्ह को डरातीं उठ बन की संटियाँ जब कान्ह जी जसोदा से करते यही बयाँ तुम सच न जानो, माता, ये सारी हैं झूठियाँ ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन इक रोज मुँह में कान्ह ने माखन झुका दिया पूछा जसोदा ने तो वहीं मुँह बना दिया मुँह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया इक आन में दिखा दिया और फिर भुला दिया ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन
एक बड़ी उम्र का तजकिरानवीस आता है। ककड़ीवाला, जो अब तक गाना सुनने में मगन था, दौड़कर उसके पास जाता है और उसका रास्ता रोककर उससे कुछ कहने की कोशिश करता है। दारोगा आता है।
दारोगा : (किताबवाले की दुकान पर आकर) मौलाना, किनारी बाजार में यह दंगा-फसाद किस बात पर हुआ था?
किताबवाला : (खड़े होकर) तस्लीमात अर्ज करता हूँ। अजी दरोगा साहब, यह तो आये दिन की बात है। कोई-न-कोई हंगामा शहर में होता ही रहता है। कुँजड़ों में लड़ाई हो गई, साहब, और क्या!
दारोगा : अभी-अभी मुझे रपट मिली है कि दुकानदारों में आपस में बहुत झगड़ा हुआ, इसी चौराहे पर।
किताबवाला : अजी, वह एक ककड़ी बेचने वाले की सब शरारत थी। दुकानदार बेचारे मुफ्त में पिसे।
दारोगा : बहरहाल, फैसला यह हुआ कि एक-एक रुपया हर दुकानदार से जुर्माना वसूल किया जाये।
किताबवाला : आप तशरीफ रखिये। (पानवाले से) अरे मियाँ मुन्ने खाँ, जरा उम्दा-से पान लगा देना दारोगा साहब के लिए। साहब, मुझे झगड़े-फसाद से क्या लेना-देना? मैंने आपसे अर्ज किया ना, यह फेरी लगाने वाले रजीलों (नीच) का झगड़ा था।
दारोगा : जी हाँ, जुर्माना उनसे भी वसूल किया जायेगा।
किताबवाला : आप पान तो नोश फरमाइये।
दारोगा : फिर कभी हाजिर हूँगा। (आगे बढ़ जाता है)
किताबवाला : यह अच्छा तमाशा है!
तज किरानवीस : आखिर हुआ क्या था?
दारोगा : (तरबूजवाले से) यह ककड़ीवाला कौन था और इस वक्त कहाँ है?
तरबूजवाला : यहीं होगा, हुजूर। आता ही होगा। उसी बदमाश ने बलवा कराया था।
दारोगा : हाँ, हाँ, वह मुझे सब मालूम है। शरारत तुम सबकी है, जुर्माना तुम सबको देना होगा। थाने आकर रुपया दाखिल कर दो।
लड्डूवाला: सरकार, एक आदमी के पीछे हम सब गरीब क्यों मुफ्त में मारे जायें? उसी ने हम सबकी टाँग ली थी। बात-बात में एक झगड़ा खड़ा कर दिया।
दारोगा : खैर, वह भी मालूम हुआ जाता है कि फसाद की जड़ कौन था। तफतीश जारी है। एक तरबूज उठाकर उछालता है और हाथ में लिये बाहर चला जाता है।
लड्डूवाला : लो, यह मखरेज (मजाक) देखो! जरा सोफ्ता (चैन, आराम) हुआ तो यह आन टपके। गेहूँ के साथ घुन भी पिसा।
तरबूजवाला : कर्मो का फल है, भैया। जिंदगी है तो भुगतना ही पड़ेगा।
'नजीर' की नवासी, एक नौ-दस बरस की लड़की गाती हुई आती है।
नवासी : ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन
(भोलाराम पंसारी की दुकान पर आकर) चाचा, नाना ने आम का अचार मँगाया है।
पंसारी : कहाँ है मियाँ नजीर? शहर में अंधेर हो रहा है, उनसे कहो इस जूल्म पर भी एक कविता लिखें। बैठे-बिठाये हम लोगों पर एक रूपल्ली जुर्माना हो गया।
नवासी : नाना राय साहब के हाँ बैठे हैं।
पंसारी : राय साहब ने खाने पर बिठा लिया होगा और क्या!
नवासी : मैं बताऊँ? राय साहब ने नाना के लिए बेसन की रोटी पकवायी है।
पंसारी : अच्छा, इसीलिए अचार की याद आयी। उनसे कहना, जरा इधर तशरीफ लायें। (अचार देते हुए) यह लो।
नवासी : क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन
नवासी चली जाती है।
हमजोली : मौलाना, आपकी नजर में मियाँ 'नजीर' शायरों में क्या हैसियत (स्थान, प्रतिष्ठा) रखते हैं?
जकिरानवीस : (एक किताब देखते हुए) भई, बहुत बागो-बहार आदमी है, खुशमिजाज, शुगुफ्ता-उफ्ताद (प्रसन्न-चित्त), हर शख्स से हँसकर मिलने वाला, किसी का दिल न दुखाने वाला, ऐसा कि शायद जिसकी मिसाल दुनिया में मुश्किल से मिलेगी। लेकिन शायरी-आँ चीजे दीगर अस्त (यह दूसरी चीज है)। फोहशकलामी (अश्लील लेखन), हर्जागोई (बकवास, अश्लीलता, फहड़पन, फक्कड़पन), इब्तजाल और आमियाना मजाक (साधारण रूचि) की तुकबंदी को हमने शेर नहीं माना। मियाँ 'नजीर' को शायर मानना उन पर बहुत बड़ा बुहतान (लांछन) होगा। शोअरा के तजकिरे में उनकी कोई जगह नहीं।
तरबूजवाला उठकर धीरे-धीरे आवाज लगाता हुआ बाहर चला जाता है। लड़की वापस आती है।
नवासी : क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन (पंसारी से) चाचा, नाना ने अचार वापस कर दिया।
लालाजी : क्यों?
लड़की : (हँसी दबाते हुए) यह पढ़ लीजिए। पंसारी पर्चा पढ़ता है। दोना लड़की के हाथ से लेकर देखता है और बड़े जोर का कहकहा लगाता है। लड़की भाग जाती है।
बरतनवाला : क्या बात है, बालाजी? लालाजी : सुनो, मियाँ 'नजीर' ने एक नई नज्म कहीं है: फिर गर्म हुआ आनके बाजार चुहों का हमने भी किया ख्वानचा तैयार चूहों का सर-पाँव कुचल-कुटके दो-चार चूहों का जल्दी से कचूमर-सा किया मार चूहों का क्या जोर मजेदार है अच्चार चुहों का! अव्वल हो चुहे छाँटे हुए कद के बड़े है और सेर सवा सेर के मेंढक भी पड़े है चख देख, मेरे यार, ये अब कैसे कड़े हैं चालीस बरस गुजरे हैं जब ऐसे सड़े हैं क्या जोर मजेदार है अच्चार चुहों का! आगे जो बनाया तो बिका तीस रुपये सेर बरसात में बिकने लगा पच्चीस रुपये सेर जाड़ों में यह बिकता रहा बत्तीस रुपये सेर और होलियों में बिकता है चालीस रुपये सेर क्या जोर मजेदार है अच्चार रुपये सेर
हँसी से बेकाबू हो जाता है और दोने में से मसाले से लथपथ एक चूहा निकालता है।
- साले चूहों को अचार का इतना शौक!
कुम्हार और दर्जी वगैरह हँसते है।
शायर : सुन लिया, हुजूर, यह मियाँ 'नजीर' का मेआरे-सुखन (काव्य- कौशल का स्तर)!
किताबवाला : ताज्जुब हो इस बात पर है कि मियाँ 'नजीर' शरीफ घराने के आदमी हैं। जाहिल और गदागर (फकीर, भिखारी) उनकी चीजें गाते फिरते हैं। उन्हें अपना न सही, अपने खानदानवालों की इज्जत का तो ख्याल होना चाहिए।
तजकिरानवीस : साहब, जिस शख्स की तमाम उम्र पतंगबाजी, मेले-ठेलों की सैर, आवारागर्दी और किमारबाजी (जुआ खेलना) में गुजरी हो उसे क्या शर्मो-हया!
शायर : अब तो खैर आखिरी उम्र में एक सूफी-साफी की जिंदगी बसर करने लगे हैं। 'इस्मते-बीवीस्त अज बेचादरी' (चादर न होना ही बीवी के शील का द्योतक है) की मिसाल है। वरना सुना है, अहदे-शबाब में यह आलम था कि बाजार के लौंडों के साथ गाते-बजाते और कोठों के चक्कर लगाते थे। होली के दिनों में बाकायदा रंग खेलते और हर रस्म में शरीक होते।
किताबवाला : अब भला बताइये, इन सूफियाना तर्ज के गानों को, जो सड़क के भीख माँगनेवाले गाते फिरते हैं, अगर शेर कह दिया जाये तो क्या दुनियाए-शायरी पर जुल्म न होगा?
शाम हो रही है। कोठे पर महफिल जमने लगी है। अंदर से शोहदा आता है। उसके पीछे बेनजीर आती है। एक-दो लोग आ चुके हैं। गाने के दौरान और लोग आते हैं। एक फकीर हरी कफनी पहने लंबी दाढ़ी लिए आता है। हाथ में जलते हुए लोबान की थाली है। उसका धुआँ कमरे में फैलाता है और लोबान एक तरफ रखकर एक कोने में दुबककर बैठ जाता है। इसी तरह एक आदमी फूलों के गजरे छड़ी पर लिए हुए आता है और अपने हाथ से तमाशबीनों की कलाइयों पर गजरे बाँधता है और पैसे वसूल करता है।
शोहदा : 'ऐ गुल-अंदाम (फूल जैसी), दिल-आराम, परीजाद सनम,' बाकायदा तआर्रूक तो हो चुका, अब कुछ सुनाओ।
बेनजीर : जो हुक्म! क्या सुनाऊँ?
शोहदा : ऐसी परी छम सीमतन (चाँदी जैसे शरीर वाली) कम देखी होंगी। सूरत की बनजीर हो, आवाज की भी बेनजीर होगी। कुछ ही सुनाओ। कुछ फड़कती हुई आप-बीती सुनाओ तो कैसी रहे?
तमाशबीन : (आते हुए) आदाब बजा लाता हूँ!
बेनजीर : की हाल ऐ?
तमाशबीन : कल 'नजीर' उसने यह पूछा बजबाने-पंजाब यह विच मेंडी ऐ की हाल तुसा दिल दे मियाँ जोड़ हथ हमने केहा हाल असाड़े दिल दा तुसी सब जानदी हो जी, असी की अरज कराँ
बेनजीर : (हँसते हुए) अच्छा तो मियाँ 'नजीर' की एक चीज सुनिये। मेरी आप-बीती समझकर ही सुनियेगा और यह कुछ गलत भी नहीं है।
बेनजीर गाती है :
बेदर्द सितमगर बे-परवा, बेकल, चंचल, चटकीली-सी दिल सख्त कयामत पत्थर-सा, और बातें नर्म रसीली-सी आनों की बान हठीली-सी, काजल की आँख कटीली-सी ये आँखियाँ मस्त नशीली-सी, कुछ काली-सी कुछ पीली-सी चितवन की दगा, नजरों की कपट, सीनों की लड़ावट वैसी है उस गोरे नाजुक सीने पर वह गहनों के गुलजार खिले चंपे की कली, हीरे की जड़ी, तोड़े, जुगनू, हैकल (गले में पहनने का एक गहना), बद्धी दिल लोटे, तड़पे, हाथ मले और जाये नजर हरदम फिसली वह पेट मलाई-सा काफिर, वह नाफ (नाभि) चमकती तारा-सी शोखी की खुलावट, और सितम, शर्मों की छुपावट वैसी है यह होश कयामत काफिर का, जो बात कहूँ वह सब समझे रूठे, मचले, सौ स्वाँग करे, बातों में लड़े, नजरों में मिले यह शोखी, फुर्ती, बेताबी, एक आन कभी निचली न रहे चंचल, अचपल, मटके, सर खोले-ढाँपे, हँस-हँस के बाँहों की झटक, घूँघट की अदा, जोबन की दिखावट वैसी है जब ऐसे हुस्न का दरिया हो, किस तौर न लहरों में बहिये गर मेह्नो-मुहब्बत हो-बेहतर, और जौरो-जफा (अत्याचार और क्रूरता) हो तो सहिये दिल लोट गया है गश खाकर, बस और तो आगे क्या कहिये मिल जाये 'नजीर' बगलों की लपक, सीनों की मिलावट वैसी है
गाने के दौरान दारोगा भी आ जाता है। बेनजीर इशारे से सलाम करती है। दारोगा 'जीती रहो!' कहकर बैठ जाता है।
शोहदा : वाह-वा! कैसी अच्छी आप-बीती सुनायी है। यह मियाँ 'नजीर' भी अजब करिश्मों के आदमी हैं। क्या आपके हाँ उनका आना-जाना है?
बेनजीर : जी हाँ, लेकिन इधर एक मुद्दत से तशरीफ नहीं लाये। क्या आपकी उनसे मुलाकात है?
शोहदा : नहीं साहब, पर उनकी यह चीज सुनकर मुलाकात ही ख्वाहिश पैदा होती है। खैर, इस वक्त तो आपकी मुलाकात के आगे सारी दुनिया हमारे लिए हेच है!
लोग इशारा पाकर उठ रहे हैं। दारोगा बेनजीर को एक तरफ बुलाता है।
दारोगा : जरा एक बात सुनो! क्या अंदर जाने की इजाजत नहीं?
बेनजीर : सर आँखों पर, लेकिन इस वक्त मेरी तबियत नासाज है।
दारोगा : दर्दे-सर हो तो हम सर दबा दें। दर्दे-दिल हो तो उसका इलाज कर दें। दर्द कहीं और हो तो वहाँ मरहम रख दें।
बेनजीर : कल तशरीफ लाइयेगा, जरूर।
दारोगा : मैं तो अभी चाहूँगा।
बेनजीर : ऐ, ऐसी क्या जबरदस्ती है, दारोगा साहब। इस वक्त इसका मौका नहीं, फिर कभी तशरीफ लाइयेगा।
दारोगा : मुझे चराती हो! यह कौन रकीबे-रूसियाह (कलमुँहा, प्रतिद्वंदी) बैठा है? इशारा करो तो धक्के देकर निकलवा दूँ।
शोहदा : (उठते हुए) अमाँ, यह क्या बक-बक है!
दारोगा : आप कौन जाते-शरीफ (सज्जन) हैं? कोई नयी चिड़िया मालूम होती है। बरखुरदार, अभी तुम हमें पहचानते नहीं हो।
शोहदा : भाँप रहा हूँ। मौका दीजिये तो अभी पहचाने लेता हूँ। आइये, हो जायें दो-दो हाथ।
बेनजीर : अय हय यह क्या तमाशा है! आप मेरे मिलने-जुलनेवालों से इस तरह कलाम कीजियेगा?
शोहदा : माफी चाहता हूँ। हुजूर मुझे बख्श दीजिये।
बेनजीर : बताइये, आप कब तशरीफ लाइयेगा?
दारोगा : हम तो हजार दफा आयें, आप बुलायें भी!
बेनजीर : बुलायें तो लाख, आप आयें भी! अब दाना डालना पड़ेगा।
दारोगा : भला सरकार को दाना डालने की क्या जरूरत है -
गंदुमी रंग भी है, जुल्फे-सियहफाम (काले बाल) भी है
बेनजीर : हुजूर गरदान (एक प्रकार का कबूतर [गरदान का शाब्दिक अर्थ व्याकरण के कारकों तथा रूपों को बार-बार दोहराना या रटना भी है]) मालूम होते हैं।
शोहदा : अच्छा, खुदा हाफिज!
दारोगा : अजी, यहाँ गरदान को कौन गरदाने है! इस कूचे में तो पर-कैंच (जिसके पर कटे हों, एक प्रकार का कबूतर) रखे जाते हैं। खुदा हाफिज!
बेनजीर : आदाब!
दारोगा नीचे उतर जाता है।
शोहदा : (अंदर मुड़ते हुए) अजब चोंच है!
बेनजीर : जानते नहीं, शहर का दारोगा है। आप भी कमाल करते।
शोहदा : दारोगा है तो क्या मुझे घोलके पी जायेगा!
बेनजीर : अच्छा, बस अब आइये।
दारोगा : (बाजार में ककड़ीवाले के पास आके) इतनी देर कहाँ रहा तू?
ककड़ीवाला : फेरी पर था, हुजूर।
दारोगा : तुम लोग शोहदेपन पर उतर आये हो?
ककड़ीवाला : सरकार, मेरा कोई कसूर नहीं। वह लड्डूवाला मुझे मारने के लिए खड़ा हो गया था।
दारोगा : मेरे आदमी तहकीक कर रहे हैं झगड़े की बुनियाद कौन आदमी था। तुम जुर्माना थाने में दे आओ।
ककड़ीवाला : दरोगाजी, सवेरियों से कुछ नहीं बेचा है। सोने से पहले छदाम दो छदाम की ककड़ी बिक गई तो रोजी, नहीं तो रोजा। दारोगा चला जाता है।
शायर: साहब, पहली इशाअत (प्रकाशन) में कितनी कापियां छापी जायें?
किताबवाला : यही कोई पांच सौ, और क्या।
शायर : मौलाना, किताब की इशाअत के सिलसिले में मेरे कुछ जाती मराहिल (समस्याएँ) हैं। बराहे-करम अगर मुझे पाँच-एक रुपये पेशगी इनायत हो जाते तो बड़ी बे-फिक्री हो जाती।
किताबवाला : अरे साहब, क्या आपको मालूम नहीं! अब तो मुसन्निफ (लेखक) अपनी लागत पर किताब छपवाता है। मैं खुद अपनी नयी किताबें 'करीमा', 'मा-मुकीमा' और 'आमदनामा' वगैरह लिये बैठा हूँ, छापने की तौफीक नहीं। आप ऐसा क्यों नहीं करते, चौधरी गंगापरसाद से आपकी मुलाकात भी है और वह आपके मद्दाह (तारीफ करने वाले) भी हैं। उनके साझे से किताब छपवाने का इंतजाम कर लीजिये।
शायर : आप यों क्यों नहीं करते, आप खुद उनसे बात करें। वह मुझे भी जानते हैं और आपके कहने से इनकार भी नहीं करेंगे। और अगर इनकार किया तो बात छिपी रहेगी। उनसे जो रकम आपको मिले उसमें से पाँच रुपये मुझे दे दीजिये।
किताबवाला : कबाहत (कठिनाई) यह है कि एकाध बार मैंने उनसे सरमाया तलब किया था और वह बात टाल गये थे। इसीलिए पहली बार माँगेंगे, आपकी बात यह कभी रद्द न करेंगे। इसीलिए मैं कह रहा हूँ आप जिक्र छेड़कर तो देखिये। सबसे अच्छा तो यह हो कि अगर वह तैयार हो जाते हैं और रुपया आपके हाथ में आता है तो उसमें से थोड़ी-सी रकम मेरे हिस्से की आप मुझे मरहमत (कृपा, दया) फरमायें ताकि मैं साथ-साथ अपनी किताब भी छपवाने की फिक्र करूँ। मेरी किताब पर ज्यादा नहीं, यही कोई दस-बारह रुपये की लागत आयेगी।
शायर : बेहतर!
फकीर गाते हुए आते हैं :
फकीर : पैसे ही का अमीर के दिल में ख्याल है पैसे ही का फकीर भी करता सवाल है पैसा ही फौज, पैसा ही जाहो-जलाल (सत्ता और प्रताप) है पैसे ही का तमाम यह तंगो-दवाल (हंगामा, धूमधाम) है पैसा ही रंग-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है पैसे के ढेर होने से सब सेठ-साठ है पैसे के जोर-शोर हैं, पैसे के ठाठ है पैसे के कोठे-कोठियाँ छ-सात आठ हैं पैसा न हो तो पैसे के फिर साठ-साठ हैं पैसा ही रंग-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है पैसा जो हो तो देव की गर्दन को बाँध लाये पैसा न हो तो मकड़ी के जाले से खौफ खाये पैसे से लाला, भैयाजी और चौधरी कहाये बिन पैसे साहूकार भी इक चोर-सा दिखाये पैसा ही रंग-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है पैसे ने जिस मकाँ में बिछाया है अपना जाल फँसते हैं उस मकाँ में फरिश्तों के परो-बाल (बाल और पर) पैसे के आगे क्या हैं ये महबूब खुशजमाल पैसा परी की लाये परिस्तान से निकाल पैसा ही रंग-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है तेग और सिपर (तलवार और ढाल) उठाते हैं पैसे की चाट पर तीरो-सनाँ (तीर और भाला) लगाते हैं पैसे की चाट पर मैदान में जख्म खांते हैं पैसे की चाट पर याँ तक कि सर कटाते हैं पैसे की चाट पर पैसा ही रंग-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है आलम में खैर करते हैं पैसे के जोर से बुनियादे-देर करते हैं पैसे के जोर से दोजख में फैर (गोली चलाना [अंग्रेजी शब्द 'फायर' का बिगड़ा हुआ रूप]) करते हैं पैसे के जोर से जन्नत की सैर करते हैं पैसे के जोर से पैसा ही रंग-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है दुनिया में देनदार कहाना भी नाम है पैसा जहाँ के बीच वह कायम मुकाम है पैसा ही जिस्मो-जान है, पैसा ही काम है पैसे ही का 'नजीर' यह आदम गुलाम है पैसा ही रंगो-रूप है, पैसा ही माल है पैसा न हो तो आधमी चर्खे की माल है
ककड़ीवाला इस गाने के दौरान अंदर आता है और पीछे खड़े होकर बड़े ध्यान से सुनता है।
ककड़ीवाला : (बड़ी हसरत से) मेरी ककड़ी पर कोई जन्म नहीं लिख देता। (बाहर जाने लगता है, लेकिन यकायक कुछ सोचकर चौंक पड़ता है और आवाज लगाता है।) शाह साहब! (आवाज लगाता हुआ दायें रास्ते से भाग जाता है, मगर फौरन ही वापस आता है और आवाज लगाता हुआ बायें रास्ते से बहर चला जाता है।) शाह साहब! शाह साहब!
फकीर गाते हुए, वापस आते हैं। ककड़ीवाला फिर अंदर आता है और आवाज लगाता है, मगर फकीर निकल जाते हैं। ककड़ीवाला सर पकड़कर बैठ जाता है। फकीरों का गाना अब तक हवा में गूँज रहा है कि परदा तेजी से गिरता है।
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