अंखियों के झरोखे से... / एक्वेरियम / ममता व्यास
आज तक किसी को पढ़ा नहीं मैंने और न किसी को सुना ही है। जब भी फुर्सत मिली खुद से ही बातें कीं और खुद के मन को ही पढ़ा और सुना मैंने। ऐसा करते हुए लम्बा वक्त बीत गया और जब अपने मन को पढ़-सुन कर उकता गयी तो दूसरों के मन को बांचने लगी और हाँ, उन्हें सुनने भी लगी और हौले से छूने भी लगी।
दरअसल, हम सभी एक साथ कई दुनिया में रहते हैं और दुनिया को कई तरह से देखते भी हैं। एक वह जो हमारी आंखें हमें दिखाती हैं यानी खुली आंखों से और दूजी बंद झरोखों से। जब हम खुली आंखों से दुनिया को देखते हैं तो जो आसपास है वह सब ज्यों-का-त्यों नजर आता है, लेकिन बंद आंखों से नजर आता है उसे हम जानते ही नहीं।
देखने के इस खेल में कभी ज्ञात तो कभी अज्ञात से लुका-छिपी चलती रहती है, क्योंकि अक्सर मन घबरा कर आंखें खोल ही देता है।
लेकिन जितनी देर ये अंखियों के झरोखे बंद रहते हैं दुनिया बहुत खूबसूरत नजर आती है। मैंने जब-जब भी अपनी आंखों को बंद किया मन की आंखें सहसा खुल गयीं और मैंने मन के धरातल पर, मन की आंखों से इस सुन्दर दुनिया को देखा।
एक अलग ही रहस्यमयी दुनिया है मन की, जहाँ बंद आंखों से कारोबार होता है। उस दुनिया में जाते ही बाहरी दुनिया से आपका संपर्क लगभग समाप्त हो जाता है। मैंने जब भी अपनी पलकों को मूंद कर महसूस किया, मुझे ये मन की दुनिया एक शीशे के एक्वेरियम की तरह दिखाई दी। एक पतली-सी शीशे की दीवार के उस पार तमाम लोग दिखाई दिए यानी उस एक्वेरियम के इस पार मैं जीवित थी और उस पार पूरी दुनिया जिन्दा थी।
मैंने जब-जब भी उस पार के लोगों को हाथ से छूने की कोशिश की एक्वेरियम की दीवार हमेशा बीच में आ गयी और फिर मैंने उस पार पहुंचने के लिए मन से मन तक के पुल बनाये और कमाल ये हुआ कि मैंने बड़ी आसानी से उस पार जाना सीख लिया। मैं आंखें मूंद कर धड़धड़ाते हुए उस पार चली जाती थी और मैंने जो भी देखा वह सब पवित्र और अलौकिक था।
उस एक्वेरियम-सी दुनिया में उम्मीदों की, सपनों की, इच्छाओं की अनगिनत मछलियाँ दिखती थीं। यादों के ऑक्टोपस से जकड़े हुए लोग थे, दर्द की नीली ज़हरीली वनस्पतियों से घिरी जिंदगियाँ दिखती थीं। पीड़ाओं की स्याह मछलियाँ अक्सर लोगों को भीतर तक चबा डालतीं, लेकिन प्रेम की गोल्डफिश उन्होंने फिर भी बचाए रखी थी, गोया कि प्रेम की गोल्डफिश को अमरता का वरदान मिला था। वह दुनिया समन्दर की बनी थी या शीशे की, कभी समझ नहीं आया। कोई माया थी या भरम था ये भी जान नहीं सकी। बस एक बेबसी ज़रूर थी उस दुनिया को छू नहीं पाने की, बदल नहीं पाने की और दु: ख था लौट के आ जाने का। लेकिन जितनी देर भी मैं वहाँ रहती एक्वेरियम-सी दुनिया बहुत खूबसूरत नजर आती।
दु: ख था कि एक्वेरियम की भीतरी दुनिया को अपनी उंगलियों से स्पर्श नहीं कर सकी। अपनी हथेलियों को भिगो नहीं सकी। अक्सर हम सभी बहुत बेबस होते हैं क्योंकि मन के इस पार सिर्फ़ महसूस किया जाता है, हर दृश्य जिया जा सकता है लेकिन छू नहीं सकते कभी भी और ना कोई दृश्य हम बदल सकते हैं। हाँ, मन में चित्र अवश्य खींच सकते हैं।
जब-जब भी मन की आंखों ने जैसा जिसका भाव चित्र खींचा, मैंने उसे मन के कैनवास पर वैसा ही संजो लिया और अब मैं इन भावचित्रों को संजो कर एक पुस्तक का रूप देना चाहती हूँ। सिर्फ़ यही एक वजह नहीं पुस्तक आप तक भेजने की। एक और महत्त्वपूर्ण वजह है और वह है मेरा अजीब-सा डर, हाँ 'डर' ।
मुझे डर है कि कल मेरा मन इतना कोमल न रह सके. मेरी सुन्दर चंचल आंखों में जो नमी है, मेरे मन की दुनिया इसी नमी से थमी हुई है। कल हो सकता है कुछ ज़हरीले रसायनों से ये आंखें पथरीली हो जायें, मेरा मन बंजर हो जाये, उस पर एक भी अहसासों की कोंपल ना फूटे। मन की कोख फिर कभी इस तरह शब्दवती न हो सके. हो सकता है मैं लोहे की मशीन हो जाऊँ, कोई स्विच मुझे ऑन और ऑफ करने लगे।
कल हो सकता है मेरे नाम के आगे कई सारी डिग्रियाँ लग जायें। मेरे आसपास देश-विदेश के नामी साहित्यकारों की किताबें सज जायें। मैं हर बात को तर्क की कसौटी पर कसने लगूं, प्रेम, मैत्री, अहसास और भावों पर शंका करने लगूं। कई मनोवैज्ञानिकों के विचारों का अनुसरण करने लगूं। हो सकता है उस समय मेरे पास किसी के मन को पढऩे का समय ही न हो। मन पढऩे का और मन की आवाज सुनने का ये इल्म जाता रहे। कल हो सकता है मुझे अतीत की कोई स्मृति ना रहे, मुझे मैमोरी लॉस जैसा कोई रोग हो जाये। मुझे डर है, कल मैं दुनिया को अलग नजरिये से देखने लगूं। जो अहसास, जो बातें आज मेरे लिए पवित्र और अनमोल हैं, कल इन्हें पढ़कर खुद ही इन पर हंसूं और खारिज कर दूं।
इससे पहले कि ये सब बदलाव मुझमें आये मैं अपने सभी अहसास और अपने कोमल भावचित्र आपको सौंप देना चाहती हूँ; एक पुस्तक की शक्ल में।
इस पुस्तक में कई भावचित्र हैं, जिन्हें मैंने जैसा महसूस किया ज्यों-का-त्यों उतार दिया है। मैं आभारी हूँ उन मित्रो की जिनकी वजह से ये पुस्तक बन पड़ी। शुक्रिया उन सभी प्रियजनों का जिनकी कोई बात, मुलाकात, कविता या आघात इन भाव-चित्रों के सर्जन में प्रेरणा बने।
--ममता व्यास