अंगिका काव्य में पावस वर्णन / अमरेन्द्र

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‘तित्तर पांखे मेघ, विधवा करै सिंगार
इक बरसै, एक उड़रै कहि गेलै डाक गुबार।’

यह दोहा 20वीं सदी के बीच के कवि डाक गुआर का है। वर्षा के प्रभाव का इससे बढ़ कर और क्या कथन हो सकता है। अगर बादल तित्तिर के पंख के रंग-सा हो जाए, तो विधवा भी श्रृंगार करने लगती है और वह बादल उधर बरसता है, इधर विधवा घर छोड़कर भाग जाती है। वर्षा होती ही है ऐसी चीज, आषाढ़ आया नहीं कि आकाश कंधे पर घुमड़ते बादल के पहाड़ उठा कर चल पड़ा, जिसमें बिजली की कड़क अलग है और जिसे देख कर अकेली बैठी नायिका के कंठ से बारहमासा- चौमासा फूट पड़ता है,

ठनका जे ठनकै रामा
बिजुली जे चमकै
से देखि जियरा डराय हे

अंगिका के इस पारंपरिक बारहमासे से अलग नए कवियों ने भी बारहमासा लिखे हैं, लेकिन बारहमासा तो बारह मासों का वर्णन है, और वर्षा का मतलब होता है आषाढ़, सावन, भादो और कक्कार (क्वार)। इसी से अंगिका के नए कवियों ने वर्षा को सीधे-सीधे चौमासे के पावस को ही अपनी कविताओं में उतारा है। और अंगिका में अवधूत कवि के रूप में जाने जाने वाले भुवनेश्वर सिंह भुवन ने निर्मोही बादल से जैसे ही यह कहा,

अग जग शोर मचौने आबों
रिमझिम रस बरसैनें आबों
सबुजा चुनर भिजैनें आबों
अंग-अंग सरसैनें आबों
अंग-अंग सरसैनें आबों

कि इधर कवियों की दुनिया में शोर मच गया। तेजनारायण कुशवाहा पुलकित हो बोल उठे, के उतरलै घोघों लेनें ई चढ़ते अखाड़ में ताल तलैया बैहियारों में पत्थर पहाड़ में तो इधर अनिल शंकर झा ने बाल स्वभाव में शोर किया,

आबि गेलै झकसी के दिन
दिन फरू मेघ राजा
हवा पे सवार हो।

और फिर आषाढ़ के बाद सावन भी आ गया। सबने अपने लिए कुछ-कुछ कहा, लेकिन अच्युतानंद चौधरी लाल ने सबसे पहले विरहिन की सुधि लेते हुए कहा, अरे राम ऐलै नै परदेशिया सावन आबी गेलै ना लेकिन सावन जब कवि को ही उन्मत्त कर दे, तो फिर वह किसकी सुध ले। भक्त कवि बांके बिहारी करील पर ही इस सावन का असर तो देखिए,

लागै वृंदावन मनभावन
सजनी सावन पावन ना
घन गरजै पुरवैया डोलै
हिय उमगावन ना

अब जब सावन आ ही गया है, तो भक्त कवि भवप्रीतानंद ओझा को कदम्ब के नीचे बांसुरी और कोयल की कूक सुनाई न दे यह तो हद हो जाए,

कदम रों डाल चढ़ि
बोले कोयलिया
कि वहें तरें बाजै बांसुरिया
गरजी बरसै मेघा
कि नाचौ मोरा
खोली पूंछ के टिकुलिया

लेकिन इस सावन में तो माहेश्वर झा व्यक्ति का आंगन ही गंगा-यमुना हो रहा है,

बरसि गेलै बदरा मोरे अंगना
कि बनी गेलै अंगना गंगा-यमुना

अब किसी का आंगन गंगा-यमुना बने तो बने, और भले परशुराम ठाकुर यह कहे तो कहे कि,

बरसा रहि रहि हमरा सतावै
कखनू ऊपर कखनू नीचें
घेरि-घेरि भिंजावै

और भले अनिरुद्ध प्रसाद विमल ही यह कहें,

आय तोहें नै तें ई बरसा नै सुहावै छै
तड़पै छै जी विलखै छै मोन
धड़कै छै छाती लागै छै देह में कोय
अग्निवाण मारलें रहें

लेकिन डोमन साहु समीर तो यही कर रहे हैं,

लहकै पुरवैया कि लरकै बदरिया रहि-रहि
मारै कनखी बिजुरिया कि रहि-रहि
बरसै जे पनियां कि चुवै अगरियां भरी अनौं
कैसे खाली गगरिया कि भरी आनौं

अब जब सावन में समीर जी की यह हालत हो, तो भक्त कवि छोटे लाल मंडल काव्यतीर्थ को सच-सच सब कहने में ही क्या संकोच।

पनिहारिन के मन उमगै छै बदरा कें ललकारै छै
चुनरी हमरों भिंजा रै बादल कैंहिनें हुन्नें भागै रे।

बातें यहां तक पहुंच जाय तो दोष तो बादल और बरसात का ही है और उस पर भी अगर मेघाछन्न बरसा की आधी रात हो तो प्रेम का बौरा जाना वैसे भी स्वाभाविक है। महाकवि सुमन सूरो ने यही तो कहा है,

बरसा के दुपहरिया रात
पानी से ढलमल छै मेघ
सुतलों छै छाती से छाती सटाय
अन्हैरों, इंजोरिया में लागलों छै जोड़
फुसकै छै की-की अनर्गल सब बात।

बरसात की रात का अगर एक दृश्य यह है, तो दूसरा दृश्य प्राण मोहन प्राण की इन पंक्तियों में भी देख लीजिए,

गरजै छै मेघ पिया लागै छै डोंर
चमकै छै बिजली तें धड़कै छै छाती
चमकी-चमकी उठै छी आधे-आधे राती
गुज-गुज अन्हरिया में उठी-उठी बैठे छी
छुच्छे बिछौना पर सांपों रं ऐठै छी

पुरबा बौछारों सें जरै छै धोंर ठीक यही हाल तो भगवान प्रलय की कविता की नायिका की भी है,

सावन बरसै तें हमरे करम जरी जाए
मोंन एहने कहै कि ऊ घोंर घुरी जाय

लेकिन किसी के कहने, सुनने, सोचने से क्या होता है। अब तो चाहे जो हो, पावस तो बरसेगा ही और प्राण या प्रलय की नायिकाओं का ख्याल करके कवि झूमेंगे नहीं, ऐसा भी नहीं होगा। कवि राकेश रवि को ही देख लीजिए, सबके साथ यह भी मल्हार गा रहे हैं,

बरसे छै रिमझिम जलधार हे
गावै छै सब्भै मल्हार हे

भले ही राजकुमार के गीतों की नायिका पावस भर यह शिकायत करती रहे,

टिटहरी रं टंगलों जीवनमा हे भौजी
नींदयों नै आबे

और कवि बैकुंठ बिहारी की नायिका पावस के हाथों पिया के पास संदेशा भेजने में व्याकुल,

जैइहै रे बदरिया, साजन के जगरिया
लेलें जेइहै हमरों खबरिया

लेकिन कवि राम शर्मा अनल तो इस पावस की शोभा पर मुग्ध मुग्ध है,

तभी तो उनका ‘मन भागै पुरबी बहियार’
पनसोखा देखी के गीत भी जहां गावै चिरय
बगुला के पंक्ति जहां उड़ैं हजार लगातार
खेतों में घोंघी घूमै आरो बुलै छाता

यह सिर्फ कवि उचित लाल सिंह की ही बात नहीं कि उन्हें,

बदरा के रिमझिम में झपसी के झिमझिम में
धरती के गंध गमक खूब अच्छा लागै छै
पावस का सौंदर्य देख कर तो कवि मुरारी मिश्र भी बहक रहे हैं,
हमरों मनमा में नांचौ छै मोर
कि बदरा बहार बनलै

अब इसका कारण तो विनय प्रसाद गुप्त की लंबी कविता ‘सावन’ में भी मिल जाएगा,

मेघों के काजल बादल के ढोल
झमझम बरसा घुंघरू नॉखी बाजै छै
पानी के खलखल धार सारंगी नांखी बाजै छै
ऐसे ही नहीं कहते हैं सूर्य नारायण,
एलै बरसा के दिनमा
कि हरसै मनमा

और कवि सुरेंद्र झा परिमल तो इतने हर्षित है कि सावन में फागुन की मस्तीभाव और भाषा दोनों पर चढ़ गई है,

नाचौ मोर, पपीहा पिहकै
झिंगुर के शहनाई, मेढ़क टर्र-टर्र
झिंगुर झन-झन, राग भरे पुरबाई
तराना भावन के, महीना सावन के।

लेकिन जो भी कहिए, आखिर में यह तो कहना ही पड़ेगा कि पावस की फुहार नायक में चाहे जितना भी तराना भरे, पावस जितनी भी सुहानी लगे, विरहिणी नायिका के लिए तो यह पावस प्राणघाती ही है, तभी तो ‘ऋतुरंग’ की नायिका शिकायत करती है,

सरगद करै छै ते जारबो करै छै
हेनो ई पावस पर बज्जड़ खसै

पिया से अलग ऐसी नायिकाओं से भर भादो तक पावस उलाहना सुनती रहती है, चाहे लोकगीत की नायिकाओं से या दिनेश तपन की कविता की ही नायिका से,

भादों मास अन्हरिया गुजगुज
बेकल मन में होय छै उजबुज
करवट फेरी रात तैं काटलों
केन्हौं नै कटै आबें भोर हे

और अगर भादो तक भी पिया आ गए तो ‘पछिया पुकारै छै’ की नायिका पावस की प्रशंसा के बहाने अपने मन की बात कह कर ही रहेगी,

देखों की रं मेघ उमड़ै छै रहि रहि बिजुली चमकै छै
खुल्ला धरती रों छाती पर की रं पुरवां जोंर करै छै
तब तो फिर चंद्रप्रकाश जगप्रिय भी यही कहेंगे,
पावस रानी बिजुली के हंसुली पिहुनी नाचौ

भले ही अमरेंद्र दुनिया भर से इस बारिश के खिलाफ, अगली बारिश तक यह शिकायत करता फिरे कि,

हमने समझा था इस बरसात में बरसेगी शराब
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।