अंगिका दिवानी: कौशल्या देवी / कस्तूरी झा 'कोकिल'
ई हमरोॅ सौभाग्य छेलै जे उनका सें हमरोॅ बियाह होलै। एक तेॅ हुनी स्मृति शेष जनार्दन प्रसाद झा ‘‘द्विज” रोॅ खूँट पर के भतीजी आरो विशुद्ध अंगिका बोलै वाली। हम्मू अंगिका भाषी रतैठा निवासी। दुन्हूँ गामों सें पुस्तैनी वैवाहिक संबंध। बोलै बाजै में कोय परेशानी नै। जेनां मोॅन तेनां बतियाबोॅ। देखै में महासुन्दरी, गोरी लारी खूब्बे; एकदम दुधिया गोरी। हिरनी नांकी आँख, पानोॅ रं पातरोॅ ठोर। लाल टुभुक। देखोॅ तेॅ देखथैं रही जा। लजबन्ती ओतनें। आँचरोॅ अपना जग्घा पर सें की मजाल की हटी जैतै। ब्लोॅज भरी देह।
बीहा के बाद पढ़ना लिखना, चिट्ठी पतरी घरैह में। इसकुल जाना बंद। 27 अप्रील उन्नीस सौ पचास में शादी, पाँचवाँ बरसें गौना। पति- पत्नी में गहमगह प्रेम। गीत, कविता, गजल सुनै लेॅ बौला। दिन केॅ नै मौका तेॅ राते सुनाबोॅ। पहिनें अंगिका वाला सुनाबोॅ तबेॅ हिन्दी वाला सुनभौं। रात आपनें छेकै। चलेॅ दहूं बिहाने- बिहान। काल तेॅ एतवारे छै। आरामें आराम। अपनें लिहोरा करैतें- करैतें सुनाबै छियै। लाजे बड्डी। ठीक्के छै ई बात। हम्हूं मानै छियै तेॅ धीरें-धीरें ही सुनाबोॅ। मतुर सुनैइयै जरूर। आय नै छोड़भौं बिना मोॅन भर सुननें। फेरू नया केना रचभौ। पुरनका नै सुनभौं। कानोॅ में ऊंगली बन्द करी लेभौं। रूसी जैभौं। रची-रची, गाबी- गाबी मनैइबोे। गरोॅ पकड़ी झुलवोॅ। हम्में माँत। हुनखेॅ जीत। ई सिलसिला उनकोॅ संसार सें विदा होयके करीब पंद्रह-बीस दिन पहिनें तांय चलतें रहलै।
हो भाय विमल ! आबेॅ रही-रही उठै छै हिरदय में हिलोर। चुवै छै ठप-ठप- ठप आँखी सें लोर। याद पड़ै छै आई. सी. यू. बी. एम. हॉस्पीटल विष्णुपुर बेगूसराय के 17 जनवरी 2015 शनिवार के 2.40 बजे रो काली मनहूस रात। जखनी उनकोॅ परान फुर्र सें उड़ी गेलै हो। हम्में ताकथैं रही गेलियै। एक तरफ तेॅ मशीन सब लागले छेलै। तीन तरफ सें बेटां पुतौहुवें, बेटी, दमादें, नांती, भाँय, बहिनी, पोतां, पोती सबनें गंगाजल तुलसीदल दै केॅ घेरनें रहलै। सबकेॅ आंखी सें ......।
आई. सी. यू में हुनी बोलेॅ तेॅ नै पारै छेलै मतुर भीतरोॅ सें होश रहै छेलै। हाथ हिलाय केॅ कानों लग कहला सें पहचानै छेलै। हम्में आई. सी. यू. के नियम तोड़ी केॅ कानोॅ में ‘‘ऊँ नमः शिवाय, हरे कृष्ण, सीताराम थाम्हीं- थाम्हीं कहथैं रहलियै। एक बजे रात रोॅ बाद बड़की बेटी पद्मजा गीतापाठ करथैं रहलै कानों तर। नुनु, छोटका पोता सें गंगाजल, तुलसीदल लेला के तुरंत बादे हुनी अंतिम सांस लेलकै। हाहाकार मची गेलै हो विमल जी ! सभ्भे कपसेॅ लागलै। अस्पताल छेलै नी। चुपेचुप।
उनके कहलोॅ अनुसार सदा सुहागिन नाँकी सिंगार- पटार करी केॅ, हमरौह सें पाँचबेर सिन्दुर दिलवाय केॅ विदा करलोॅ गेलै। हो विमल भाय ! आय हुनखा शिवभवन, निरालानगर, बेगूसराय आरो संसार छोड़नें पचहत्तर दिनोॅ सें ऊपरे होय रहलोॅ छै। तइयो भीतरे भीतर हुँकरतें रहै छियै। आबेॅ के कहतै रात बेरात कि अंगिका वाला हौ गीत सुनाबोॅ नी, जैमें लिखनें छोॅ- ‘तोरा नैहरा के सब कुछ सितार लागै छै। तोरा नैहरा के सबकुछ बहार लागै छै !’ आबेॅ के पूछतै हो भाय जी ! कि अंगिकालोक, अंगधात्री, अंगगौरव आरो जे जे पत्रिका। किताब आवै छौं जबाब आरो सहायता देलियै कि नै ? के हुरकुचतै हो ? तोंय छोटका भाय हमरोॅ। लिखतें लाजोॅ लागै छै। मतुर लिखनें बिना रहलोॅ नै जाय छै। की कहभौं हुनखा बिना सूना संसार लागै छै। हुनका बिना दुनियाँ अन्हार लागै छै। जिनगी रो नैया बिना पतवार लागै छै। कखनूँ खैलाँ, कखनूं नहैलाँ, लिखतें पढ़तें दिन गमैलां। मतुर रात काटवोॅ मुश्किल। चारों तरफें लाल- लाल आगिन धधकै छै। खटिया देखतैं हुकरेॅ लागै छियै।
हुनी अंगिका में लिखलोॅ कहानी, कविता, गीत, गजल जे हुवै सुनना, पढ़ना ज्यादा पसन्द करै छेलै। हिन्दी समझै में दिक्कत होय छेलै। तीन सालोॅ सें ऊपरे हुनी केवल सुनै रहै कैहनें की लकवाग्रस्त, आँखी के रोशनी बहुत कम, अंत में गुलकोमा होला सें एकदम रोशनी समाप्त। मिजाज हरदम औलबौल। अन्हारे- अन्हार। कहै छेलै ई रं जीना बेकार। तोरौह नै देखेॅ पारै छीहौं। टकटोरै छीहौं देह हाथ। बोली सबादै छीहौं। हे भगवान ! लै जा। कत्ते सेवा करै छोॅ तोहें। कत्ते सेवा करै छै छोटकी- बड़की पुतौहें। आमनां-सामनां में केकरौह कुछ करौह नै दै छै। कानेॅ लागै छै, सेवा लेॅ मार करेॅ लागै छै। सबकेॅ भगाय दै छै। कहै छै दादी हमरोॅ छेकै। हम्में करबै। दादी ई सब देखी सुनी केॅ अपनां केॅ भगवन्ती मानै छेलै। पाँच बरसोॅ के पोतां ई रं सेवा करै रहै। हुनखै लग सुतै रहै। गीतलाद सुनै रहै। दवाय पानी भी हाथोॅ सें पिलाय रहै। दादी केॅ सबकुछ एकरा लेली निछावर। ओकरैह सामना में एक दिन कहलकै- ‘‘हम्में मरी जैबै नें तेॅ नुनु केॅ खूब पैसा दीहौ। गुल्लक भरी दीहौ। हमरे दुलारोॅ पोता छिकै। छोटै टा में सेवा सें अघाय देलकै।कहानी सुनै में हुनका खूब मोॅन लागै छेलै। अंगिका हुवेॅ तेॅ बेशी निक्को। हिन्दियो खराब नै। पहिलोॅ दाफी अंगिकालोक में छपलोॅ तोरोॅ ‘‘चानो” कहानी सुनी केॅ हुनी कपसेॅ लागली रहै। हमहूँ कानी- कानी केॅ ही बधाई देलेॅ छेलिहौं। फेरू हुनी कहलकै -‘‘ चानो केॅ जनम दै वाली माय जौं हमरा मिली जाय तेॅ हम्में मारे डाँगोॅ सें डंगाय देतियैं। तोंय दुन्हूँ माय बापोॅ के नाम घिनाय देल्होॅ। चुल्लू भर पानी में डूबी केॅ मरी जा। पोसैवाली आरो बीहा करैवाला माय बापोॅ केॅ आशीरवाद देतियै। चानो केॅ छाती सें लगाय लेतियै।”
कौशल्या जी एगो कुशल गृहिणी छेलै। हुनका रहतें हम्में बेफिकिर। संयुक्त परिवार के कट्टर समर्थन करै वाली। जग्ग परोजन में रातदिन एक करैवाली। एक नजर सें सबकेॅ देखै वाली। बच्चा-बच्ची केॅ निखारैवाली। तिनका-तिनका जोड़ी केॅ महल अटारी बनवाबैवाली। धर्मपत्नी रं सातोॅ वचन निभावै वाली। दुःख हुवेॅ कि सुख सही जवाब दै वाली। सबसें मिली जुली केॅ रहै वाली। सबसें आदर पावैवाली; अद्भुत नारी।
आपनोॅ माय के गोदी रोॅ भाषा अंगिका सें इनका अतन्है प्रेम छेलै कि अंगिकालोक के संपादक डॉ0 सकलदेव शर्मा आरो जहाँ सें भी अंगिका में कोनोॅ पत्रिका प्रकाशित हुवै तेॅ आकरोॅ आजीवन सदस्यता वास्तेॅ पैसा भेजै लेली जिदमाजीद करै। ‘अंगिकालोक’ केॅ तेॅ शुल्क भेजवैवे करलकै, जबेॅ अनिरूद्ध प्रसाद विमल के संपादन में ‘अंगधात्री’ प्रकाशित होवोॅ शुरू होलै तेॅ ओकरोॅ आजीवन सदस्यता के 1000 रूपा हुनी अपना पौगली सें हमरा हाथोॅ में देतें कहलकै कि- ‘बिना शुल्क के कोय भी पत्रिका नै पढ़ना चाहियो। पत्रिका निकालै में खर्च होय छै आरो वोहोॅ अंगिका एैसनोॅ भाषा में निकलैवाली पत्रिका के नै तेॅ किनवैया होय छै आरो नै तेॅ पढ़वैया। एैन्हें में जौं तोरा नांकी आदमी साहित्य सें प्रेम करै वाला सहयोग नै करतै तेॅ पत्रिका केनां चलतै।’
हमरा याद छै कि ‘अंगधात्री’ आरो ‘अंगिकालोक’ केॅ सहयोग राशि भेजवाय केॅ हुनी कत्ते खुश होलोॅ छेलै। अंगिका में विमल जी रोॅ कहानी ‘चानो’ हुनी रोगशैया पर ही जिद करी केॅ सुनलेॅ छेलै आरो बोललोॅ छेलै कि एैन्हों लोगोॅ केॅ जें बेटी केॅ बेटी नै समझै छै ओकरा डांगोॅ सें डंगाय देना चाहियो। आय हुनी नै छै तेॅ हुनकोॅ बहुते याद आवै छै।