अंग्रेजीपरस्त दौर में शौकीन्स? / जयप्रकाश चौकसे

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अंग्रेजीपरस्त दौर में शौकीन्स?
प्रकाशन तिथि : 31 अक्टूबर 2014


तेरे बिन लादेन के लिए प्रशंसित अभिषेक शर्मा की फिल्म 'द शौकीन्स' दशकों पूर्व साहित्यकार गुलशेर शानी द्वारा लिखी तथा बासू चटर्जी द्वारा निर्देशित 'शौकीन' से प्रेरित है। मूल फिल्म में तीन उम्रदराज मित्र अपने रोजमर्रा के जीवन से तंग आकर छुट्टियां मानने गोवा जाते हैं। दशकों से संस्कार ओढ़ते, बिछाते, सोते इन थके-मांदों के मन में अय्याशी की इच्छा जागी है, इसलिए अपने घरों से दूर अपने संस्कार को घर में ही छोड़कर ये कुछ उन्मुक्त दिन बिताना चाहते हैं। इनकी टैक्सी का ड्राइवर युवा मिथुन है और उसकी प्रेयसी पर तीनों उम्रदराज डोरे डालते हैं और बारी-बारी से उसके साथ कुछ वक्त बिताने के बाद आपस में जो किया नहीं उसकी शेखी बघारते हैं। दरअसल इस तरह के मामलों में हर वय के लोग झूठी शेखी बघारते हैं। क्योंकि इस विषय का अतिरेक भरा विवरण उन्होंने पढ़ा या सुना है। और इस विषय की कपोल कल्पनाएं ही मनुष्य के अवचेतन पर ताउम्र छाई रहती हैं। 'डर्टी पिक्चर' का गीत 'तू मेरी फैन्टेसी' ही उसका कड़वा यथार्थ है। एक सरल स्वाभाविक मानवीय क्रिया को बाजार और विज्ञापन ने बिकाऊ फंतासी बना दिया है। परन्तु इससे उत्पन्न व्यापक नैराश्य के समाज पर पड़े भीषण प्रभावों का कोई विधिवत अध्ययन नहीं हुआ है। बहरहाल मूल-कथा में फंतासी की केन्द्र बनी युवती उनके ड्राइवर की प्रेमिका है और इनकी शेखियों से प्रेम कहानी में बाधा उत्पन्न हो रही है। जिसे बचाने के लिए वे उम्रदराज साहस जुटाकर सच बोलते हैं और नायिका अपने चरित्र हनन से बच जाती है।

डेविड धवन और अनीज बज्मी ने पुरानी फिल्मों के नए संस्करण में कभी मूल की बनावट से छेड़छाड़ नहीं की, कुछ नए स्पर्श से संतोष किया परन्तु आज फिल्मकार अपने अंहकार की तुष्टी के लिए मूल बनावट में परिवर्तन करते हैं। इसी कारण 'हिम्मतवालाहमशक्ल'इत्यादि फूहड़ और उबाऊ फिल्मों का निर्माण हुआ है। फ्रेम दर फ्रेम नकल के खिलाफ बहुत कुछ लिखा जाता है परन्तु गौरतलब यह है कि जब आप नकल पर आमदा हैं तो मूल को ही जस का तस रख दें, परन्तु फिल्मकार को अपनी व्याख्या करने की क्षमता का अहंकार है तो नकल ही क्यों करते हैं। साहित्य की कृतियों की मौलिक व्याख्या एक अलग विषय है। वह तो विमल राय, गुरुदत्त, विजय आनंद ने बखूबी किया है। दोनों विषय ही अलग हैं।

बहरहाल अभिषेक शर्मा का स्वाभाविक रुझान हास्य के लिए 'फार्स' रचने का रहा है और इस विधा में हास्य कम और 'फार्स' अधिक होने से असंतुलन हो जाता है। इस फिल्म में उन्होंने अक्षय कुमार अभिनीत पात्र की तरह ड्राइवर नहीं बनाकर एक अभिनेता बनाया है जो अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के लिए बेकरार है। फिल्म में अक्षय अपने स्वयं की भूमिका में है। उनका बिजनेस मैनेजर उन्हें समझाता है कि बॉक्स ऑफिस हिट ही उसका लक्ष्य बने रहना चाहिए। इस फिल्म में एक सनकी फिल्मकार का पात्र है, लेखक का कैरीकेचर भी है। अत: यह स्पष्ट है कि इस फिल्म का मूल फिल्म से कोई संबंध नहीं है। यह फिल्म फिल्म निर्माण प्रक्रिया का 'स्पूफ' ध्वनित हो रही है कि किस तरह महान फिल्म रचने की प्रक्रिया के स्वांग में निर्लज्ज फूहड़ता रची जाती है। 'तीस मार खां' में भी एक प्रतिभाहीन एक्टर ऑस्कर के मोह में मूर्ख बनता है। राम गोपाल वर्मा की 'रंगीला' में भी डायरेक्टर के चरित्र को विधू विनोद चोपड़ा के कैरीकेचर की तरह दिखाया गया था जबकि विनोद चोपड़ा गंभीर, संजीदा, समर्पित फिल्मकार हैं। इसी तरह 'आऊ प्यार करें' में मेहमूद का पटकथा सुनाने का अंदाज क्लासिक हास्य दृश्य बन गया था। अत: अभिषेक शर्मा के पास बहुत से रेफरेंस हैं। गुलशेर शानी एक विलक्षण प्रतिभा थे और कालाजल सर्वकालिक महान उपन्यास है। यह खुशी की बात है कि उनकी 'शौकीन' को छेड़ा नहीं गया है और अंग्रेजीपरस्ती के इस घिनौने दौरे में शौकीन्स नाम भी उसी तर्ज का है।