अंजना वर्मा / परिचय

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 अंजना वर्मा की रचनाएँ     

नाम: अंजना वर्मा

राज्य: बिहार

जन्म: 12 फरवरी, 1954

जन्म-स्थान: मोतिहारी, बिहार

शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी., बिहार


पुस्तकों का प्रकाशन

  • अनुभूति (कविता-संग्रह, 1987) तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली
  • आदमी से (कविता-संग्रह, 1992), बिहार ग्रंथ कुटीर प्रकाशन, पटना
  • खुरदुरे जो दिख रहे हैं (गीत-संग्रह, 2002)
  • कोई रुकता नहीं (कविता-संग्रह, 2006)
  • गिरिजा का पिता (कहानी-संग्रह, 2006)
  • पलकों पर निंदिया (लोरी-संग्रह, 2006), अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर
  • मुक्तिबोध: एक चेहरा (आलोचना, 2009), किताब प्रकाशन, मुजफ्फरपुर
  • लेडी बग की शादी (बाल-कविता-संग्रह, 2010)
  • यादें उन देशों की (यात्रा-वृत्तांत, 2010)
  • एक सीप दे दो (गीत-संग्रह, 2011)
  • दोहों की आँखें (दोहा-संग्रह, 2011)
  • चाँद नहीं रोटी (कविता-संग्रह, 2011)
  • पेड़ों की जय (बाल-कथा संग्रह, 2012), अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर

समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, नवनीत, कादंबिनी, दस्तावेज, काव्यम्, सार्थक, अमरदीप वीकली (लंदन), नंदन, बालहंस, जनपक्ष, उत्तरगाथा, बेला, राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्तान सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, गीत एवं आलेख प्रकाशित।


सम्मान

  • साहित्यकार रमण-सम्मान (1992), पटना
  • महाकवि राकेश ‘गंध्ज्वार-सम्मान’ (2008), मुजफ्फरपुर
  • राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान (2010), उदयपुर
  • शब्द-साधना सम्मान (2010), मुरादाबाद
  • दी थर्ड रॉक पेबल्स अवार्ड (2012), जाजपुर टाउन (ओडिशा)


जीवनी: मेरे शब्दों में

मेरा जन्म 12 फरवरी 1954 को मोतिहारी (बिहार) में हुआ। मेरे पिता डॉ. गोविन्द शरण हड्डी रोग विशेषज्ञ थे और उस समय बिहार राज्य सेवा के तहत मोतिहारी में थे। मेरे जन्म के कुछ वर्षों बाद जब मेरे पिताजी एम.सी.एच. करने के लिए दिल्ली जाने लगे तो सारा परिवार उनके साथ गया। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से एम.सी.एच. की डिग्री लेकर वे छपरा चले आये। छपरा मेरा पैतृक शहर रहा है दादा के जमाने से। मेरा पैतृक गाँव अपहर है, जो छपरा के करीब ही है। मेरे बाबा जमींदार घराने के थे और वकील थे। घर में दादी-नानी तक भी पढ़ी-लिखी थीं। पिताजी काफी प्रसिद्ध चिकित्सक थे। मेरी स्कूली शिक्षा का शुरुआत छपरा के ब्रजकिशोर किंडर गार्टेन स्कूल से हुई। उस स्कूल में पढ़ते हुए मैं कत्थक नृत्य भी सीखती थी। कुछ वर्षों बाद जब पिताजी का स्थानांतरण वीरपुर (कोशी योजना) हो गया तो हम सब वहीं चले गये।

सातवीं कक्षा से मेरी पढ़ाई वीरपुर में होने लगी। वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ मैं स्कूल में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लिया करती थी। जैसे नृत्य या गीत की प्रस्तुति, कविता-पाठ या वाद-विवाद प्रतियोगिता वगैरह। वहाँ का सांस्कृतिक माहौल बहुत समृद्ध था। हर वर्ष विद्यापति पर्व समारोह का भी आयोजन होता था। यह परिवेश कला-संस्कृति को आगे बढ़ाने वाला था। चित्र बनाने में भी मेरी रुचि थी और घर पर मेरा समय चित्र बनाने में भी गुजरता था। स्कूल में कई ऐसे शिक्षक थे जो अच्छा पढ़ाते तो थे ही, साथ ही अच्छे अध्येता भी थे। उनसे अच्छा साहित्य पढ़ने की प्रेरणा मिली।

सन् 1969 में मैंने छपरा के राजकीय कन्या बहुद्देशीय उच्च विद्यालय से उच्चतर माध्यमिक परीक्षा पास की। उसके बाद पिताजी की बदली हथुआ हो गयी तो पार्ट वन वहाँ के गोपेश्वर कॉलेज से किया। पिताजी का स्थानांतरण फिर मोतिहारी हुआ, जहाँ वे जिला स्वास्थ्य पदाधिकारी थे। वहीं पर उन्होंने सिविल सर्जन का भी पदभार ग्रहण किया। अतएव मोतिहारी में रहकर सन् 1972 में मुंशी सिंह कॉलेज से स्नातक पास किया। एम.ए. की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर के बिहार विश्वविद्यालय कैम्पस में स्थित महिला छात्रावास में रहकर बिहार विश्वविद्यालय से एम.ए. की पढ़ाई पूरी की। इसी समय 11 मार्च, 1974 को मेरा विवाह डॉ. एस.के. वर्मा के साथ हुआ जो श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में ट्यूटर थे। तब तक जयप्रकाश आंदोलन के कारण पूरा देश आलोड़ित होने लगा था।

इसलिए हमारी परीक्षा में विलम्ब हुआ और परीक्षाफल आने में भी। विलंबित सत्र के कारण 1976 में मैंने एम.ए. पास किया जबकि यह सत्र 1972-74 था। मेरी दो संतानें हुईं। पहली संतान मेरी बेटी है शेफालिका वर्मा जिसका विवाह इं0 आशीष कुमार के साथ हुआ, जो इंफोसिस में इंजीनियर हैं। दूसरी संतान बेटा है इं0 सिद्धार्थ वर्मा, जो रिलायंस में कार्यरत है और जिसकी शादी गीतू से हुई है। दोनों बच्चों के जन्म के बाद मैंने नीतीश्वर महाविद्यालय में अध्यापन कार्य करना शुरू किया। 1984 में मैंने पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उसके बाद से इसी महाविद्यालय में लगातार अध्यापन करते हुए लेखन से जुड़ी हुई हूँ। फिलहाल एसोशिएट प्रोफेसर हूँ और हिन्दी विभाग में अध्यक्ष के पद पर हूँ।

साहित्य में मेरी रुचि बचपन से थी, परन्तु कवि या लेखक बनने के विषय में कभी नहीं सोचा। परन्तु एक बात यह जरूर थी कि लिखे बिना न रह पाती थी। छुपकर लिखती थी। उस समय छोटी डायरियों में अपनी संवेदनाएँ अभिव्यक्त करती थी, जो प्रायः जीवन की क्षणभंगुरता, जीवन के दुःख, जीव-जन्तुओं के प्रति मनुष्य के निर्मम व्यवहार आदि की प्रतिक्रिया में जन्म लेती थीं। लिखने के कुछ दिनों बाद इन्हें फाड़ भी दिया करती थी। बचपन में जब मैं जीवन-मृत्यु पर सोचने लगी तो नानी की मृत्यु की कल्पना कर रोया करती थी। इसी तरह मेरा लिखना जारी रहा, बल्कि जितना अनुभव किया उतना नहीं लिख पायी। जब भावावेग बहुत प्रबल होता था तो लिख लेती थी। हमेशा अनुभव करती रही कि जीवन, संसार और कठोर समाज के विरुद्ध मेरे भीतर लगातार झरने की तरह कोई कुछ कह रहा है। यह भी अनुभव हो चुका था कि इस स्वतःस्फूर्त प्रवाह को शब्दों में नहीं सहेजा गया तो ये संवेदनाएँ फिर आयेंगी नहीं और यदि आयेंगी तो उस तरह नहीं-दूसरे ही तरह से। संवेदनाओं की बाढ़ को रोकना बहुत मुश्किल होता है। वे अपनी राह बना ही लेती हैं। न चाहते हुए भी जब मैं एम.ए. में थी तब इस मामले में कुछ गंभीर हो चली थी। यह समय 1972 का था। फिर भी इस समय लिखी गयी कितनी ही कविताएँ सहेजी नहीं मैंने। मेरी पहली प्रकाशित होनेवाली कविताएँ ‘प्रणेता परिवेश’ में ‘रुखड़ी जमीन पर’ और ‘घेरे’ थीं जो स्थानीय पत्रिका में 1981 में प्रकाशित हुई थीं। उसके बाद मेरी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। 1983 के जून में मेरी कविता ‘एहसास जिन्दगी का’ ‘कादंबिनी’ में प्रकाशित हुई थी जिस पर महीने-भर तक पाठकों के पत्र आते रहे। कुछ तो ऐसे पाठक बने जो खतों में लगातार हाल-चाल पूछते और नववर्ष का कार्ड भेजते। उसी वर्ष और उसी महीने यानी जून 1983 में ‘मनोरमा’ में मेरी कहानी ‘लेकिन कब’ प्रकाशित हुई थी। फिर तो रचनाएँ निकलती चली गयीं। मेरी पहली पुस्तक ‘अनुभूति’ कविता-संकलन थी जो 1987 में तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली से छपी थी। इसके बाद दूसरी कविता-पुस्तक ‘आदमी से’ बिहार ग्रंथ कुटीर, पटना से छपी। मैं हर विधा में लिखने लगी थी। सन् 2013 तक कविता, कहानी, लोरी, गीत, दोहा, बालगीत, बालकथा, यात्रावृत्त और समीक्षा की तेरह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। चौदहवीं प्रेस में छपने के क्रम में।