अंडा चोर / रंजना वर्मा

Gadya Kosh से
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उस दिन भी चुनचुन चिड़िया के अंडे गायब हो गये। वह बेचारी ची-ची करती, रोती-बिलखती इस डाल से उस डाल पर फुदकती सारा पेड़ सिर पर उठाए थी। सैकड़ों साल पुराने उस शीशम के पेड़ पर जैसे तूफान आया हुआ था। इससे पहले भी कई चिड़ियों के अंडे इसी प्रकार गायब हो चुके थे। बहुत ढूंढने पर भी न ही अंडे वापस मिले और न चोर का ही कुछ पता चला।

सारे पक्षी हमेशा की तरह सूरज की पहली किरण फूटते ही अपने बच्चों और अंडों को छोड़ कर चारे की तलाश में निकल पड़ते और अधिकतर शाम होने पर लौटते। जिनके बच्चे बहुत छोटे थे वह बीच-बीच में आकर अपने बच्चों को चारा खिला जाते। शाम होने पर जब सब पक्षी वापस लौटते तो अक्सर किसी न किसी पक्षी के अंडे गायब मिलते।

पक्षीराज गरुड़ ने जब चूं-चूं चिड़िया के अंडे के गायब होने की बात सुनी तो वे बहुत चिंतित हो गए. वे पिछले सात वर्षों से उस पेड़ पर रहने वाले सभी पक्षियों के स्वामी थे। इससे पहले ऐसी घटनाएँ कभी नहीं हुई थीं। इधर दो सप्ताह से उनके वृक्ष पर नित्य ही चोरियाँ होने लगी थी।

पक्षीराज ने तुरंत चूं-चूं को बुलाकर पूछा-

"चोरी कब हुई?"

"मैं नहीं जानती। मैं तो... मैं तो जब सारा चुग कर अभी थोड़ी देर पहले लौटी तो घोंसले में अंडे नहीं थे।" चूं-चूं ने रो-रो कर बताया।

उसे समझा बुझा कर चुप कराने के बाद पक्षीराज ने अन्य पक्षियों को भी बुला कर उनसे पूछताछ की लेकिन कुछ पता न चला। अब उन्होंने एक सुरक्षा समिति बनायी। समिति में पाँच पक्षी थे। इनका काम सब चिड़ियों के चले जाने पर बारी-बारी से वृक्ष पर पहरा देना था।

दूसरे दिन से ही उन्होंने पहरा देना आरंभ कर दिया। पहले दिन बगुले की बारी थी। वह सारे दिन वृक्ष की सबसे ऊंची डाल पर बैठकर चौकस निगाहों से चारों ओर देखता रहा। शाम को सभी पक्षियों ने अपने अंडे सही सलामत पाए.

इसी प्रकार दूसरे तीसरे और चौथे दिन सारस गिद्ध और गौरैया ने पहरा दिया पर कोई घटना नहीं घटी. पांचवें दिन कौए कृष्ण वर्ण की बारी थी। वह सवेरा होते ही पेड़ की सबसे ऊंची फुनगी पर जा पहुंचा। सभी पक्षी हमेशा की तरह ची-ची करते अलग-अलग दिशाओं में उड़ गए. कृष्णवर्ण अकेला रह गया। बहुत देर तक ऊपर बैठा वह सावधानी से चारों ओर देखता रहा लेकिन जब कोई विशेष बात नहीं दिखाई दी तो वह ऊब गया। इस डाल से उस डाल पर फुदक-फुदक कर वह कुछ देर खेलता रहा फिर थक कर अपने घोंसले में जाकर सो रहा।

कृष्णवर्ण न जाने कितनी देर तक सोया। अचानक एक अजीब-सी सरसराहट की आवाज से उसकी नींद खुल गई. वह तुरंत सावधान हो गया। घोसले से थोड़ी-सी गर्दन बाहर निकाल कर उसने इधर उधर देखा पर घने पत्तों में कुछ दिखाई नहीं दिया। वह आहिस्ते से घोंसले से बाहर निकल आया। थोड़ी देर इधर-उधर तलाश करने के बाद अचानक वह ठिठक गया। उसने देखा कि एक काला भयंकर सर्प धीरे-धीरे रेंगता हुआ एक डाल से लिपटा श्वेतांक कबूतर के घोंसले की ओर बढ़ रहा था। कृष्णवर्ण पहले तो उस सर्प को देखकर डरा। फिर उसे अपने कर्तव्य का बोध हो आया। वह सर्प से कुछ दूर ऊंची डाल पर बैठ कर जोर-जोर से चिल्लाने लगा। कौवे की कांव-कांव सुन कर सर्प ने कृष्णवर्ण की ओर देख कर गुस्से से फन उठाया और उसकी ओर फुफकार छोड़ी तो वह डरकर उड़ गया। सर्प ने आराम से श्वेतांक कबूतर के घोंसले में मुंह डालकर उसके सारे अंडे खाए और मस्ती से रेंगता हुआ पेड़ से उतरकर घनी झाड़ियों में घुस गया।

कृष्णवर्ण बेचैनी से पक्षियों के वापस लौटने का इंतजार करने लगा। उनके लौटने पर उसने पक्षीराज गरुड़ के पास जाकर पूरी घटना कह सुनाई. सर्प की करतूत और उसकी धृष्ठता की बात सुनकर गरुण क्रोध से भर गया। उसने तुरंत सुरक्षा समिति के सदस्यों को आज्ञा दी-

"सब मिलकर जाओ और उस सर्प को उसकी करनी का फल दे दो।"

पांचों पक्षी झाड़ी के पास जाकर उसे ढूंढने लगे। बहुत ढूंढने के बाद उन्हें एक बिल दिखाई दिया। सर्प बिल में था और उसकी पूंछ का कुछ भाग बिल से बाहर निकला दिखाई दे रहा था।

पांचों पक्षी बिल के पास जाकर शोर मचाते हुए उसे बाहर निकलने के लिए ललकारने लगे। जब बहुत देर चीखने चिल्लाने पर भी वह बाहर नहीं निकला तो बगुले ने क्रोध में आकर उसकी पूंछ में चोंच मार कर उसे घायल कर दिया।

चोट खाकर सर्प फुफकारता हुआ बाहर निकला और जोर-जोर से फुफकारने लगा। उसकी जहरीली फुफकार से गौरैया और बगुला वहीं गिर पड़े। उन्हें मरा देखकर अन्य पक्षियों ने गरुण के पास जाकर सर्प की शक्ति के सम्बंध में बताया। गौरैया और बगुला के मरने का समाचार सुनकर गरुण के क्रोध की सीमा न रही। वह तुरंत ही वहाँ जा पहुंचा।

सर्प उस समय बगुले की गर्दन मुंह में दबाए हुए था। गरुड़ ने झपट्टा मारकर सर्प की गर्दन अपने पंजों में दबोच ली और आकाश में उड़ गया। उसके नाखूनों ने सर्प को लहूलुहान कर दिया। गर्दन दबी होने के कारण वह पूरी तरह विवश हो गया था।

पर्वत की ऊंची चोटी पर बैठकर गरुड़ ने सर्प के टुकडे-टुकडे कर डाले। अपनी पक्षी जाति पर हुए अन्याय और सर्प की नीचता के कारण गरुड़ का क्रोध इतने पर भी शांत नहीं हुआ। वह अब भी सर्प को देखते ही उस पर झपट पड़ता है और उसे मार डालता है।

उसके बाद फिर कभी किसी पक्षी के अंडों की चोरी नहीं हुई.