अंततः / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी

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(अनुवाद :सुकेश साहनी)

नदी के पास दो छोटी जलधाराएँ मिलीं और आपस में बातचीत करने लगीं।

पहली जलधारा ने कहा, "कैसे आना हुआ? रास्ता कैसा था?"

दूसरी जलधारा ने उत्तर दिया, "मेरे रास्ते में बहुत बाधाएँ थीं। पनचक्की का पहिया टूट गया था और मेरा मालिक किसान, जो नालियों द्वारा मुझे पौधों तक ले जाता था, मर गया। मैंने बहुत संघर्ष किया है, धूप सेंकते आलसी, निकम्मे लोगों कीे गंदगी को समेटते हुए बहुत मुश्किल से यहाँ तक पहुँची हूँ। तुम्हारा मार्ग कैसा था?"

पहली जलधारा ने कहा, "मेरा रास्ता तुमसे अलग है। मैं पहाड़ी रास्ते पार कर सुगन्धित फूलों और नाजुक बेलों के बीच से होकर आई हूँ। आदमी औरत मुझसे जल लेकर पीते थे। किनारे बैठे बच्चे, अपने नन्हें गुलाबी पैरों से मुझे छपछपाते थे। मेरे चारों ओर हंसी खुशी का माहौल था। मुझे तुम्हारे मार्ग के बारे में सोचकर तुम पर दया आती है।"

ठीक इसी समय तेज रफ्तार से बहती नदी ने ऊँची आवाज़ में उनसे कहा, "आओ, आ जाओ, हम समुद्र की ओर जा रहे हैं। चले आओ...दौड़ आओ...बातचीत में समय नष्ट करना हमारा धर्म नहीं हैं...मुझमें मिलते ही तुम अपनी यात्रा के सब दुख-सुख भूल जाओगे...आ मिले-आओ-बहना ही हमारा कर्म है-विशाल समुद्र की गोद में आते ही हम तुम अपनी थकान भूल जाएँगे।"