अंततोगत्वा / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
एक अमीर था। अपने भंडार और उसमें रखी पुरानी शराब पर उसे बड़ा घमंड था। उसके पास पुरातन किस्म का एक सागर(शराब सुरक्षित रखने व कप में डालने वाला ढक्कनदार बर्तन) भी था जिसे खास मौकों पर वह अपने लिए इस्तेमाल करता था।
एक बार राज्य का गवर्नर उससे मिलने आया। अमीर ने उसके बारे में अनुमान लगाया और तय किया, "इस दो कौड़ी के गवर्नर के सामने सागर को निकलने की जरूरत नहीं है।"
फिर एक रोमन कैथोलिक बिशप उससे मिलने आया। तब उसने अपने-आप से कहा, "नहीं, मैं सागर को नहीं निकालूँगा। यह न तो उसका ही महत्व समझ पाएगा; और न ही उसमें रखी शराब की गंध की कीमत को इसके नथुने जान पाएँगे।"
राज्य का राजा आया और उसने उसके साथ शराब पी। लेकिन अमीर ने सोचा, "मेरे भंडार की शराब इस तुच्छ राजा से कहीं ज्यादा रुतबे वाली है।"
यहाँ तक कि उस दिन, जब उसके भतीजे की शादी थी, उसने अपने-आप से कहा, "नहीं, इन मेहमानों के सामने उस सागर को नहीं लाया जा सकता।"
साल बीतते गए और वह मर गया। उसे और एक बूढ़े को वैसे ही एक साथ दफनाया गया जैसे बरगद का बीज और किसी छोटे पौधे का बीज साथ-साथ जमीन में दफन होते हैं।
और उस दिन, जब उसे दफनाया गया था, रिवाज़ के मुताबिक सभी सागरों को बाहर निकाला गया। तब वह पुराना सागर भी दूसरे सागरों के साथ रख दिया गया। उसकी शराब को भी गरीब पड़ोसियों में बाँट दिया गया। किसी को भी उसके बेशकीमती होने का पता न चला।
उनके लिए, कप में डाली जाने वाली शराब सिर्फ शराब थी।