अंतरयामी / अन्तरा करवड़े
मेरी दादी¸ पूजा पाठ¸ जप तप में दिन रात लगी रहती है। हमारे घर ठाकुरजी के स्नान प्रसादी के बगैर कोई भी अन्न मुँह में नहीं डालता। दादी फिर ठाकुरजी का श्रृंगार करती है¸ उनकी बलाएँ लेती है¸ लड्डू गोपाल को मनुहार से प्रसाद खिलाती है। उनके एक प्रभुजी महाराज है। बड़े तपस्वी¸ ज्ञानी संत है। ठाकुरजी के परम् भक्त । ठाकुरजी उनसे स्वप्न में आकर बातें करते है। ऐसा दादी हमें बताती है। कभी - कभी हमें भी अपने साथ मंदिर में ले जाकर उनसे आशीष दिलवाती है। वहाँ बड़े अच्छे - अच्छे पकवान मिलते है खाने को। लेकिन वो कितना ही जिद करो¸ रोज ले ही नहीं जाती।
दादी कहती है¸ प्रभुजी महाराज अंतरयामी है। मेरे पूछने पर उन्होंने हँसते हुए यह बताया भी था कि जो सामने वाले के मन की बातें जान ले¸ उसे अंतरयामी कहते है। बड़ी कठिन तपस्या से ये बल मिलता है। मैं आँखें फाड़े सुनती रही थी उनकी ये बातें।
फिर कुछ दिनों के बाद दादी ने बड़ा ही कठिन व्रत रखना शुरू किया। दिन भर बस फल और दूध और रात में नमक का फरियाल। ऐसा वे लगातार दो महीने तक करने वाली थी। उनकी तबीयत खराब होती¸ उपवास सहन नहीं होते लेकिन डॉक्टर के स्पष्ट मना करने के बावजूद वे किसी का भी कहा नहीं माना करती।
मैंने उनसे काफी पहले यह पूछा था कि कठिन व्रत उपवास आखिर क्यों किये जाते है? तब उन्होंने मुझे बताया था कि किसी मनोकामना की पूर्ति के लिये ही ऐसा किया जाता है। मुझे समझ में नहीं आया कि इस उम्र में उनकी ऐसी क्या मनोकामना हो सकती है जो वे इतना कठिन व्रत कर रही है।
मैंने माँ से पूछा। मां ने मुस्कुराकर जवाब दिया¸ "तेरी दादी को इस घर में एक कुलदीपक चाहिये है। तेरा छोटा भाई! तभी तो ये सब कर रही है वे।" मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। फिर व्रत की पूर्णाहूति पर मैंने उन्हें भोग लगाते समय ठाकुरजी से कहते सुना¸ "एक कुलदीपक की कृपा करो प्रभु। तुम्हारे लिये सोन की बंसरी बनवा दूँगी।"
यानी माँ की बात सही थी। लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई। यही कि प्रभुजी महाराज के जैसे माँ ने भी तो दादी के मन की बात जान ली थी। फिर दादी उसे अंतरयामी क्यों नहीं कहती?