अंतराल (कहानी) / मोहन राकेश
नदी का पुल पार करने के लिए सड़क ऊँची होनी शुरू हो गई थी। सड़क के दोनों ओर बीहड़ नज़र आने लगे थे। उसकी निगाहें उस टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी को ढूँढ़ रही थीं जो उन दिनों बीहड़ के बीच से ऊपर-नीचे होती हुई घाट तक जाती थी।
तब घाट के ठीक पहले तेज़ ढलान हुआ करती थी जिस पर नदी के किनारे-किनारे दूर तक बालू की चादर बिछी रहती थी। बालू की पर्त इतनी मोटी होती थी कि उसपर चलते हुए पैर धँस-धँस जाते थे। पर नीचे, धारा से लगे हुए किनारे की बालू पसीजकर सख्त हो गई रहती थी। वहीं बैठकर वे नाव का इंतज़ार करते थे जो दूसरे किनारे पर सवारियों को चढ़ाते-उतारते या धारा के बीच आते-जाते दिखाई पड़ती थी। अगर नाव को इधर का किनारा छोड़े देर हो गई होती तो बालू पर कुछ राहगीर गठरी-मोटरी लेकर बैठे नज़र आते। नहीं तो एक-एक कर वे आते रहते और नाव के वापस लौटने तक वहाँ कुछ चहल-पहल-सी हो जाती थी। राहगीरों में कभी कोई नई दुल्हन होती जो चटक पियरी के ऊपर चमकीली चादर डालकर घूँघट काढ़े रहती। पूरी ढकी देह के नीचे से झाँकते काले, मटमैले पैर जिनमें गिलट के झाँझ और लच्छे पड़े होते, अजीब अटपटे-से लगते थे। दुल्हन के साथ गठरी लिए हुए कोई अधेड़ या बूढ़ा आदमी होता जो पुरानी मटमैली धोती के ऊपर नया सिला और गैरधुला, सफेद, चमकदार कुरता पहने होता जिसमें बटन नदारद होते। कभी गोद में बच्चा लिए कोई औरत भी होती। घाट पर बैठते ही बच्चा रोने लगता और वह भीड़ से ज़रा दूसरी ओर मुँह फेरकर कुरती से स्तन निकालती और उसके मुँह में दे देती और बेपरवाही से उसके ऊपर आँचल डाल लेती। वहाँ औरतों में पहला ही बच्चा होने के बाद छाती को लेकर कोई खास शरम न रह जाती और वे उसके प्रति लापरवाह-सी हो जाती थीं।...वह कभी इस छोटी-सी भीड़ को देखता, कभी दूर सरकती नाव को तो कभी कगार के ऊपर फैले बीहड़ के विस्तार को। दोनों ओर लंबाई में दूर तक चमकती नदी की धारा और चारों ओर फैले बीहड़ों के बीच-बीच खड़े बबूल के पेड़ और सरपत के गुच्छे जो हवा में बहुत धीरे-धीरे हिलते, बहुत एकाकी लगते थे। इस सुनसान फैलाव के बीच घाट पर सिमटी छोटी-सी भीड़ निचाट ऊसर के बीच छोटे-से खेत में खड़ी लहराती फसल-सी लगती। दुनिया में ऊँच-नीच, दुख और जलालत से बेख़बर उसे वह सारा मंजर बड़ा सुहावना लगता था।
नाव पास आती तो केवट उतर जाता और खींचकर उसे किनारे लाता, तब सवारियाँ उतरनी शुरू होतीं। फिर भी किसी-किसी का पैर पानी में पड़ जाता। सर-सामान के साथ सारी सवारियाँ उतर जातीं तो इधर के लोग चढ़ना शुरू करते। चढ़ते समय नाव वाला उसका हाथ पकड़कर ऊपर खींचता तो नाव डगमगा जाती। उसे डर लगता और वह जल्दी से सिमटकर बैठ जाता। नाव आगे बढ़ती तो तेज़-तेज़ बहते पानी के चौड़े पाट को देखकर उसका मन उत्साह से भर उठता। धारा के बीच नाव के एक ओर झुककर भँवर मारते साफ चमकते पानी को अंजुरी में उठाने का बहुत मन होता पर डाँट पड़ने के डर से वह जज्ब किए बैठा रहता।
सड़क अब एकाएक ऊँची हो गई थी और दूर पुल की रेलिंग नज़र आने लगी थी। उसके पहले चुंगी का बैरियर था जो ऊपर उठा हुआ था। बगल में एक झोंपड़ी थी जिसके सामने अलाव जल रहा था। तीन लोग उसके इर्द-गिर्द बैठे थे। उनके कपड़े वैसे ही मैले-कुचैले थे जैसे घाट पर केवट और ज्यादातर मुसाफिरों के हुआ करते थे। उनके चेहरे का भाव तो उसे अब याद नहीं लेकिन उनके चेहरे पर गहरी ऊब, उदासी और दयनीयता थी। अभी सुबह का वक्त था और सड़क पर दूर-दूर तक कोई सवारी नहीं थी। चारों ओर पहले के घाट-जैसा ही सुनसान एकांत था और उसकी गिरफ्त में पड़े अलाव तापते चेहरे कुदरती विस्तार का ही निर्जीव हिस्सा लग रहे थे। माहौल में अभाव और गरीबी की वही पुरानी गंध थी जिसके बीच सड़क की काली चमकती कोलतार पैबंद जैसी लग रही थी।
उसकी गाड़ी देखकर एक आदमी अँगड़ाई लेकर उठा और जल्दी-जल्दी रस्सी खींचकर बैरियर नीचा करने लगा। गाड़ी रुक गई तो वह बैरियर के सिरे को खूँटे से बाँधकर ड्राइवर की खिड़की के पास आया। उससे कुछ गुफ्तगू करने के बाद ड्राइवर ने इधर-उधर खोजकर पाँच रुपये का नोट निकाला जिसे उसने लपककर ले लिया और वापस जाकर बैरियर खोलने लगा। बैरियर ऊपर हो गया तो ड्राइवर आगे बढ़ने के बजाए उससे पर्ची की जिद करने लगा। पहले तो उसने ठिठककर ड्राइवर को अजीब निगाह से घूरा, फिर भकुआ-जैसा मुँह बनाकर अलाव तापते दूसरे आदमी की ओर देखने लगा। वह बहुत बेमन से उठकर झोंपड़ी के भीतर गया और काफी देर की खटर-पटर के बाद एक सड़े-से कागज का पुरजा लेकर आया जिस पर गलत-सलत वर्तनी में कुछ छपा हुआ था। उसने ड्राइवर को उसे देकर खुद उसपर गाड़ी का नंबर लिख लेने के लिए कहा क्योंकि ठेकेदार बाबू घर गए हुए थे। ड्राइवर ने पुरजा लेकर खिड़की का शीशा उठाया, गाड़ी स्टार्ट की और रफ्तार बढ़ाते हुए एक भद्दी-सी गाली देकर गेयर बदलने लगा।
शाम तक लौट आने के इरादे से वह मुँह-अँधेरे ही घर से चल पड़ा था। अब सूरज निकल आया था और धूप फैल रही थी लेकिन अभी भी इतनी जल्दी थी कि किसी के यहाँ अचानक पहुँचने पर वह अचकचा जाता। और गंतव्य था कि तेजी से करीब आता जा रहा था। उसके दिमाग में आया ही नहीं था कि गाड़ी से इतनी जल्दी पहुँच जाएगा।
नदी के उस पार के बीहड़ खत्म होने पर सड़क के दोनों ओर कुछ देर तक खेत मिलेंगे और तब बागों का सिलसिला शुरू होगा और उनमें से आखिरी बाग मामा का ही तो है। उसी के बीच से होकर तो सड़क से निकलकर उनके गाँव की बस्ती के लिए रास्ता जाता है। सड़क से देखने पर पेड़ों के बीच से बस्ती झलकती है। दरअसल नदी पार करने पर पहला गाँव उन्हीं का पड़ता है।
तब सड़क कच्ची हुआ करती थी और उस पर इक्के के अलावा और कोई सवारी नहीं चलती थी। इक्का भी नियमित नहीं मिलता था और उसे पहले से तय करना पड़ता था। वह भी नदी के बीहड़ शुरू होने से पहले एक छोटे-से बाजार में उतार देता था। वहाँ से पैदल ही चलना पड़ता था। दूरी तो ज्यादा नहीं थी लेकिन नदी पार करने में जो ताम-झाम था उसको ध्यान में रखकर लोग बहुत भोर में निकल लेते थे ताकि दोपहर का भोजन बनना शुरू होने से पहले ही वहाँ पहुँच जाएँ और मेहमानदारी के लिए मेजबानों को शर्मिंदा न होना पड़े। एक ही दिन में वहाँ जाकर लौट आने का दबाव उसपर इस कदर हावी था कि वह कुछ ज्यादा ही जल्दी चल पड़ा था। उसका मन अतीत से इस कदर रमा हुआ था कि समय और उसके साथ-साथ चीजों में आए बदलाव का उसे ठीक-ठीक भान नहीं हुआ था। पहले के हिसाब से तो यह पाल्हा छूकर लौट आने वाली बात होती जो निश्चय ही लोगों को नागवार गुजरती और, हो सकता है, सब कुछ अनसुनी कर वे उसे रात में रोक ही लेते। इतने दिनों बाद जिसके दौरान इतना सब कुछ बदल चुका था, मामा के यहाँ जाने का मन बना पाने और फिर पहले ही दिन शहर लौटने की मजबूरी से वह इतना संकुचित था कि उसे एहसास ही नहीं हुआ कि चीजों के सारे गणित बदल चुके हैं।
पुल के ऊपर और उसके दोनों ओर नदी के पाट पर अभी भी कुहरा छाया था जिसे काटकर गाड़ी कब आगे बढ़ गई, पता ही नहीं चला। उसे याद आया, उन दिनों घाट पार करने के बाद बीहड़ों के बीच से ऊपर उठती बैलगाड़ी की लीक थी जो काफी दूर चलने के बाद चौरस जमीन आने पर कच्ची सड़क में बदल जाती थी, जिसके दोनों ओर दूर तक खेत दिखते थे। सड़क शुरू होते ही बाईं ओर ऊँची जगत और बारह छुहियों वाला वह मशहूर कुआँ था जिस पर छः-छः पुर एक साथ चलते थे। अगर पुर चल रहे होते तो वहाँ खासी रौनक होती थी जिसे देखकर राहगीर कुछ देर के लिए ठिठक जाते थे। कई बार वहाँ रुककर उसने हाथ-पैर धोया था और पानी पीकर फिर आगे बढ़ा था।
पुल पार करते ही वह खिड़की के शीशे से उस ओर देखने लगा था। कुछ ही लमहों के बाद एक टूटी-फूटी जगत और ढही हुई छूहियाँ सर्राटे से निकल गईं और वह सोचता रह गया कि क्या वह वही कुआँ था। अब उसकी निगाहें उन बागों को ढूँढ़ रही थीं जिनकी सघन अमराई उसके जेहन में अभी तक खुबी हुई थी। लेकिन वे कहाँ थे ? वहाँ तो खेत ही खेत थे जिनमें गेहूँ और गन्ने की फसलें खड़ी थीं जिनके बीच कहीं-कहीं छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ थीं जिनमें निजी ट्यूबवेल लगे थे। उनमें से कुछ उस समय भी पानी की मोटी धार फेंकते हुए चल रहे थे जो अपने-आप में बिल्कुल अजनबी दृश्य था। बीच-बीच में कुछ खंखड़, लकड़ाए पेड़ जरूर दिखे। तो क्या वही उन बागों के अवशेष हैं ?...उसके भीतर लगातार कुछ ऐंठता रहा।
आगे पत्थर की छोटी सी पटिया पर शायद उस गाँव का नाम लिखा था जो बीच-बीच में कोलतार निकल जाने से दौड़ती गाड़ी से ठीक से पढ़ने में नहीं आया। उसके बाद दोनों ओर सड़क से लगे हुए ईंटों के कुछ बने-अधबने मकान थे और कच्चे गारे से जुड़ी ऊबड़-खाबड़ दीवारों वाली चीकट-सी दुकानें जिनके शटर अभी बंद थे। उनके बाद फिर वही खेत और बीच-बीच में खंखड़ पेड़। तो क्या वह आगे बढ़ आया ? गाड़ी रोककर एक आदमी से पूछना पड़ा। गाड़ी वापस मोड़ते हुए ड्राइवर के चेहरे पर हल्की-सी खीझ थी।
उसे याद आया, बाग से बस्ती जाने वाली पगडंडी के बगल में एक तालाब था जिसमें नागपंचमी के दिन बच्चे गुड़िया पीटते थे और जिसमें शादी-विवाह के बाद औरतें झुंड बनाकर गीत गाते हुए मौर सिराने जाती थीं। उसके किनारे एक बहुत बड़ा आम का पेड़ था जो खूब जमकर फलता था और बाग के पेड़ों से थोड़ा पहले पकना शुरू हो जाता था। वह और बच्चों के साथ मुँह-अँधेरे ही उठकर उस पेड़ के नीचे सींकरि खोजने जाता था। पास में कहीं सियारों की माँद थी और वे रात में गिरे आमों को काटकर जूठा कर देते थे। इसी से उस पेड़ का नाम सियरखौववा पड़ गया था। बाग में आम पकना शुरू होने के पहले बच्चे दिनभर उसी के नीचे जमे रहते और धमाचौकड़ी मचाया करते। जब हवा चलती या पेड़ पर तोते बैठते तो भद-भद आम गिरने लगते। बाग की तरह वह पेड़ भी साझी था पर उसके आम बँटते नहीं थे। वह बच्चों के लिए छोड़ा हुआ था, जो जितना उठा लेता, उतना उसका हो जाता था। हवा बंद होती और आम न गिर रहे होते तो वे उसकी छाया में साफ जमीन पर खाने खींचकर गंटी या चौवा खेलते। चारों ओर धूप मनमनाती और फसल-कटे खेतों में रह-रहकर बगूले उठते। बार-बार घर से कोई खाने के लिए बुलाने आता पर वे खेल में मगन रहते। इतने सालों बाद क्या वह उस जमीन को पहचान लेगा जिस पर खेल शुरू होने की उमंग में उसने कितनी-कितनी बार खाने खींचे थे ? उसके अंदर एक सिहरन-सी दौड़ गई।
अब वह पगडंडी कहाँ थी ? दो दुकानों के बीच से एक सँकरा गलियारा निकलता था। पहले से मालूम न होने पर सड़क से उसका दिखना नामुमकिन ही था। बड़ी मुश्किल से गाड़ी उस पर मुड़ी थी। कुछ दूर उस पर खड़ंजा बिछा था जिसकी ईंटें बीच-बीच में नीचे धँस गई थीं और कहीं-कहीं इतना ऊपर उठी थीं कि पेट्रोल की टंकी में लगने से बचाने के लिए ड्राइवर को गाड़ी बहुत धीमी चलानी पड़ रही थी। गलियारा आगे एक चकरोड में मिल गया था। उसके बाईं ओर एक गढ्डा-सा था जिसका एक किनारा निचले खेत में बदल गया था और बाकी जलकुंभियों से भरा था। उस पेड़ का तो कहीं नामों-निशान नहीं था।
बस्ती में घुसते ही गाड़ी देखकर कुछ बच्चे सिमट आए थे। गाड़ी रुकते ही वे उसे घेरकर खड़े हो गए थे और बीच-बीच में गाड़ी को छूकर देखने लगे थे। ड्राइवर के झिड़कने पर वे थोड़ा इधर-उधर हुए लेकिन फिर धीरे-धीरे उसके पास सरकने लगे थे। उसे गाड़ी से उतरकर मड़हे में घुसते हुए अजीब-सा संकोच हो रहा था। अंदर मामा एक चारपाई पर लेटे थे। एक गंदा-सा बिस्तर लपेटकर उनके सर के नीचे रखा हुआ था। चारपाई के सिरहाने एक डंडा पड़ा था। उसे देखकर वे डंडा सँभालकर उठने लगे। तब उसे मालूम हुआ, उनकी आँखों में मोतियाबिंद है। उसने अपना परिचय बताया तो वे एकदम-से हड़बड़ा उठे थे। पास में कोई चारपाई नहीं थी। उन्होंने आवाज देकर किसी को बुलाया था पर देर तक कोई घर से बाहर नहीं निकला था। मड़हे के सामने धूप में कुछ चारपाइयाँ पड़ी थीं। मामा उसके साथ बाहर धूप में बैठकर बातें करने के इरादे से डंडे के सहारे चलकर मड़हे से बाहर आ गये थे। उसकी यादों का सारा तिलिस्म टूट चुका था और वह अब तक वहाँ बहुत अटपट-सा महसूस करने लगा था।
मामा उसे बता रहे थे कि कस्बे में आँख के एक डॉक्टर का कैंप लगा था तो वहाँ उन्होंने एक आँख का ऑपरेशन किया था। लेकिन पहले उस आँख से जो थोड़ा-बहुत दिखता था, ऑपरेशन के बाद वह भी बंद हो गया था। फिर वह पट्टीदार के साथ आबादी को लेकर चल रहे किसी मुकदमे की बात करने लगे थे। उन्हें आशा थी कि इस मामले में हाकिम से कह-सुनकर वह उनकी कुछ मदद कर सकेगा। पर वह चुपचाप सुनता रहा था और हाँ-ना कुछ नहीं किया था। मामा निराश होकर चुप हो गए थे।
कुछ देर बाद एक नंग-धड़ंग बच्ची कटोरी में कुछ लेकर खाती हुई घर से बाहर निकली थी। कुछ देर कटोरी लिए-लिए घुमरी-परैया खेलने के बाद वह उसके पास आ गई थी और हाथ-मुँह में जूठन लगाए उसकी चारपाई पर बैठने की कोशिश करने लगी थी। मामा ने उसे डाँटकर भगाना चाहा था पर वह पास ही मँडराती रही थी। बस्ती में कहीं दो औरतें आपस में झगड़ती हुई ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ बक रही थीं। उनकी भद्दी गालियों की आवाज़ उसके कान में हथौड़े-सी लग रही थी। मामा उसे अनसुनी कर इधर-उधर की बातें करने लगे थे पर उनका चेहरा शर्म और खीझ से फक पड़ गया था। जब उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह उठकर गाड़ी के पास चला गया और उसमें से मिठाई का पैकेट निकालने लगा था।
मामा ने फिर जोर से आवाज लगाई थी। थोड़ी देर बाद एक औरत घर के बाहर निकली थी और उसे देखते ही झट से घूँघट लेकर वापस चली गई थी। फिर एक लड़का लोटे में पानी और कटोरी में कुछ बिस्कुट लेकर बाहर आया था। सुबह-सुबह उसे प्यास नहीं थी पर कटोरी से एक बिस्कुट लेकर वह कुतरने लगा था। लोटे के भार से उसके हाथ की मांस-पेशियाँ तनी हुई थीं और वह टेढ़ा होता जा रहा था। उसने जल्दी से लोटा उसके हाथ से ले लिया था। पानी पीने के बाद उसने ड्राइवर की ओर इशारा कर बच्चे से उसके लिए भी पानी लाने के लिए कहा था। और कटोरी के बाकी बिस्कुट ड्राइवर की ओर बढ़ा दिए थे। लड़का अंदर गया था पर वहाँ से खाली हाथ वापस आ गया था।
‘‘अम्मा पूछ रही हैं कि डरायवर कौन जात है ?’’
वह सकपका गया था। इस सवाल के लिए वह तैयार नहीं था। दरअसल ड्राइवर की जाति तो उसे भी नहीं मालूम थी। बच्चे ने निधड़क होकर इतने ढीठ स्वर में पूछा था कि ड्राइवर ने जरूर सुन लिया होगा। कटोरी से बिस्कुट उठाते हुए उसके हाथ रुक गए थे। वह सिटपिटाकर रह गया था। फिर धीरे से बोला था कि उसे प्यास नहीं है और अनायास गाड़ी का दरवाजा खोलने-बंद करने लगा था।
उसने सुना था, मामी के मरने के बाद से ही मामा के दोनों बेटों में अनबन रहने लगी थी। छोटा मुंबई में टैक्सी चलाता था। बड़ा सड़क पर सरिया और रेती की दुकान करता था। उधार बिक्री की वसूली और पूँजी की किल्लत के कारण दुकान कभी पनप नहीं पाई थी। खेती कुछ खास थी नहीं। दूकान से जो निकलता वह खाद-पानी के जुगाड़ में सर्फ हो जाता था। फिर दुकान बंद कर वह भी मुंबई चला गया था। वहाँ रुककर उसने भी टैक्सी चलानी सीखी थी लेकिन बैज बनवाने के लिए रिश्वत का इंतजाम नहीं कर पाया था। खान-खोराकी के अलावा भाई से भी कुछ सहायता नहीं मिली थी। चार महीने इधर-उधर भटकने के बाद वह वापस आ गया था और आते ही अलगौझी के लिए झगड़ा करने लगा था। उसके छोटे-बड़े कई बच्चे थे, सबसे बड़ी लड़की शादी लायक हो गई थी। वह चाहता था, छोटा भाई कुछ मदद करे तो किसी तरह शादी का इंतजाम हो जाए। लेकिन वह निजी टैक्सी खरीदने और बीवी-बच्चों को मुबंई ले जाने की फिक्र में पैसे जोड़ रहा था। अंततः दोनों में अलगौझी हो गई थी। दोनों की रसोई अलग बनने लगी थी। कुछ दिन खलिहान में फसल निपटने के बाद अनाज और भूसा बँटता रहा था। फिर खेत भी बँट गए थे। छोटे भाई की बहू लाज-शरम छोड़कर अपने हिस्से की खेती सँभालने लगी थी। बड़े का कभी खेती में मन लगा ही नहीं था। वह बीच-बीच में कहीं गायब हो जाता था। एक-एक कर उसकी बहू के गहने-गुरिया सब बिक गए थे। अब खेत बिकने की बात चल रही थी। यह तो कहो, अभी वे मामा के नाम थे नहीं तो अब तक बिक भी चुके होते। लड़की की शादी अभी भी जहाँ की तहाँ थी। अब मामा पारी-पारी से एक-एक महीने के लिए दोनों के साथ रहने लगे थे। घर में कोई मेहमान या अतिथि-अभ्यागत आता तो उसकी बड़ी बेकदरी होती थी क्योंकि दोनों के परिवार उसे एक-दूसरे पर डाल देते थे। अंत में यह तय हुआ था कि मामा उस समय जिसके पास रह रहे होंगे उसी पर उसकी खातिरदारी का जिम्मा होगा। पट्टीदार के साथ चल रहे मुकदमे का खर्च देने में भी दोनों आना-कानी करते थे। मामा को ही उसकी चिंता रहती थी।
मामा कितने टूटे हुए, उदास और निरीह लग रहे थे। माहौल में विपन्नता और बिखराव की कैसी गहरी साया थी। उसके मुँह का स्वाद कसैला हो आया था और अतीत की सारी नरमाहट सूखकर उड़ गई थी। उन दिनों मामा का परिवार कैसा भरा-पूरा और संपन्न लगता था। नाना बाहर कोई नौकरी करते थे और मामा ने जो भी खेती थी, ठीक से सँभाल रखी थी। दरवाजे पर कोई न कोई दुधारु गाय या भैंस हमेशा बँधी रहती थी।, आम महुआ और कटहल के बाग थे, चारों ओर सायर-मायर था। उसके अपने गाँव की मिट्टी में कटहल नहीं होते थे, उनके पकना शुरू होने पर हर साल मामा के यहाँ से एक आदमी बँहगी में दोनों ओर बड़े-बड़े कटहल लटकाए, उनके भार से झुका, तेज़-तेज़ चलता उसके घर आता था। जिस कमरे में कटहल रखे जाते थे वह एक नशीली गंध से गमक उठता था। वह बड़ी बेसब्री से उनके फोड़े जाने का इंतजार करता था। फिर तो हफ्ते भर कटहल फोड़ने, उसके कोए निकालकर खाने और उन्हें थाली में सजाकर पास-पड़ोस में बाँटने का सिलसिला चलता रहता था।
नाना का हाथ खुला हुआ था और उन्हें भविष्य के लिए कुछ जोड़ने की फिक्र कभी नहीं रही। बस रिटायर होने के बाद फंड वगैरह से जो पैसा मिला था उससे उन्होंने नई बखरी और दालान बनवा लिया था। लेकिन उसमें रहने का सुख बहुत दिन तक नहीं देख पाए थे। उनकी नियमित आमदनी बंद होते ही अभाव की खरोंचें लगनी शुरू हो गई थीं। मरने के पहले उन्होंने परिवार के बढ़ते हुए आकार के साथ-साथ धीरे-धीरे पैर जमाती गरीबी की दस्तक जरूर सुन ली होगी।
पानी पीने के बाद उसे ऐसी ऊभ-चूभ होने लगी थी कि वहाँ बैठा नहीं रहा गया था। उसने घर के कुछ बच्चों को साथ लिया था और बस्ती की ओर निकल गया था। उसे याद आया था, तब मामा के घर के पिछवाड़े एक बनिए का घर हुआ करता था जिसके सामने एक ऊँट बैठा पगुराया करता था। बगल में एक पुराना पछरिया कोल्हू था जो उस घर की पुराने दिनों से चली आ रही संपन्नता की याद दिलाता था। पास में कटहल के कुछ पेड़ थे जो गरमी के दिनों में जड़ों तक बड़े-बड़े फूलों से लदे रहते थे और चोरों से बचाने के लिए उन्हें चारों ओर से बबूल की सूखी टहनियों से रुँध दिया जाता था। अब वहाँ एक पक्का मकान खड़ा था। पर न ऊँट दिखा, न पथरिया कोल्हू, न कटहल के पेड़। घर एकदम सुनसान था। मालूम हुआ, बनिए का परिवार कस्बे में जाकर के बस गया था जहाँ उसकी सीमेंट की एजेंसी और कई और दुकानें खुल गई थीं। सड़क पर भी उसका एक मकान था। गाँव के इस मकान में वह कभी-कभी ही आता था और उसमें कुछ नौकर-चाकर ही रहते थे।
आगे नूर मुहम्मद दर्जी का घर था जिसके बरामदे में तब एक सिलाई मशीन रखी रहती थी। उसकी रह-रहकर गूँजती आवाज गाँव में एक शहरी फिजा पैदा करती थी जो उसे बहुत अच्छी लगती थी। उसके अपने गाँव में कोई दर्जी का घर नहीं था। नूर मुहम्मद के यहाँ वह कई बार कपड़े की नाप देने गया था। शादी-विवाह के मौके पर तो सभी की एक साथ नाप लेने नूर मुहम्मद खुद ही घर आ जाया करता था। उसके यहाँ से कपड़े सिलकर आते तो अक्सर बटन गायब रहते थे और जल्दी में भाग-दौड़कर बटन टँकवाने पड़ते थे। कभी-कभी तो वह काज बनाना ही भूल जाता था और दौड़कर उसके यहाँ कपड़ा वापस देना पड़ता था। नूर मुहम्मद का घर जहाँ-का-तहाँ खड़ा था लेकिन पहले से काफी टूट-फूट गया था। बरामदे में मशीन नहीं थी। वहाँ एक झिंलगा चारपाई पड़ी थी जिस पर एक बूढ़ा आदमी खाँसता हुआ लेटा था। क्या वह नूर मुहम्मद था ?
नूर मुहम्मद का बेटा अल्ताफ उसका हमउम्र था और उन दिनों वह उसके साथ बागों में घूमा करता था। उसका निशाना बड़ा अचूक था और वह लबेदा फेंककर ऊँची-ऊँची टहनियों का आम गिरा दिया करता था। पेड़ पर चढ़कर खेले जाने वाले चील्हर के खेल में भी वह बड़ा उस्ताद था। बस सिलाई सीखने में उसका मन नहीं लगता था। इसके लिए घर में सभी उसे उललाते रहते थे। दर्जी का बेटा होने पर भी कभी उसके बदन पर साबुत कपड़े नहीं दिखे।...कहाँ होगा वह इस समय ?
आगे बढ़ते ही एक आदमी सर पर गन्ने की सूखी पत्तियों का बोझ लेकर आता दिखा। वह चारखाने का गंदा-सा तहमद और उसके ऊपर कई जगहों से फटा पुराना स्वेटर पहने था। बोझ से ढका होने के कारण उसका चेहरा नहीं दिखा। उसने जरा ठिठककर उसे देखा और आगे बढ़ गया। नूर मुहम्मद के घर के सामने जाकर उसने बोझ गिराया और मुड़कर फिर उसकी ओर देखने लगा। वह भी उधर ही देख रहा था। उसके चेहरे पर पहचान की चमक-सी उभरी और वह जल्दी से उसकी ओर लपका। पास आने पर मालूम हुआ वही अल्ताफ था। वह बड़े उत्साह से उससे बातें करने लगा। वह सुबह-सुबह किसी के खेत में गन्ना छीलने गया था और दस्तूर के मुताबिक गन्ना काट-छीलकर खेत से कोल्हुआर तक पहुँचाने के बाद पत्तियाँ लेकर वापस लौटा था।
अल्ताफ के सर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। गाल पिचक गए थे। आँखों में बर्बाद जिंदगी और टूटे भविष्य की निराशा थी। कुछ सालों पहले मामा के छोटे लड़के के साथ वह मुंबई भाग गया था। कुछ दिन इधर-उधर भटकने के बाद उसे एक गार्मेंट फैक्टरी में सिलाई का काम मिल गया था। पर उन्हीं दिनों वहाँ दंगे भड़क उठे थे। उस दिन वह अपने एक मुसलमान दोस्त की टैक्सी में उसके साथ कहीं जा रहा था कि अचानक दंगे के चपेट में आ गया था। उसी की आँखों के सामने उसके दोस्त को चाकू घोंप दिया गया था। टैक्सी जला दी गई थी। वह किसी तरह भाग निकला था और छिपते-छिपाते अपने इलाके के हिंदुओं की झुग्गी में पहुँच गया था। एक हफ्ते वहीं छिपा रहा था। इधर के सारे मजदूर, कारीगर और टैक्सीवाले टाइगर के डर से सँसे हुए थे और एक-एक कर मुंबई छोड़ रहे थे। उसके पास किराए की कौन कहे, खाने तक को पैसे नहीं थे। इलाके के हिंदू मजदूरों और टैक्सीवालों का ही उसे सहारा मिला था। उन्हीं के यहाँ जगह बदल-बदलकर वह किसी तरह एक-एक रात काट रहा था। तमाम डर और दहशत के बावजूद वे अपने गाँव-देश का नाता नहीं भूले थे। उन्होंने ही कड़की में उसे खिलाया-पिलाया था और उसके लिए मुलुक का टिकट निकलवाकर दिया था। कुछ लोग उसे स्टेशन तक छोड़ने भी आए थे। कैसी काली-डरावनी रात थी वह ! हर पल मौत सामने नाच रही थी। हर आदमी दूसरे पर शक कर रहा था। जब तक गाड़ी शहर से बाहर नहीं आ गई, अपने बच निकलने का भरोसा नहीं हुआ था।
लौटकर फिर वही ढाक के तीन पात। गाँव के पुश्तौनी पेशे में अब क्या रखा है ? अब तो अब्बा को भी काम नहीं मिलता। यह तो रेडीमेड का ज़माना है। जिसे सिलाना भी होता है वह कस्बे में जाकर सिलवाता है। अब्बा को नए फैशन की चीज़ें सिलनी कहाँ आती हैं ! इधर तो बहुत दिनों से बीमार ही चल रहे हैं। खाट पकड़ ली है। खाँसी बंद होने का नाम नहीं लेती। धीमा-धीमा बुखार भी रहता है। अब किसको दिखाएँ ? दो-एक बार कस्बे में जाकर सुई लगवाई थी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।....उमर भी तो हो गई है।...एक ही बार में इतना कर्जा-कुआम हो गया और जान के ऐसे लाले पड़े कि अब दुबारा मुंबई जाने की हिम्मत नहीं होती। अब वह कारीगर से खेतिहार मजदूर बन गया है और अपनी और अपने कुनबे की गाड़ी जैसे-तैसे खींच रहा है। उसने पड़ोस के गाँव के एक आदमी से बात की है जो सऊदी में रहता है। लेकिन वीसा वगैरह में बड़ा खर्च है। अल्लाह को जैसा मंजूर होगा।