अंतरिक्ष छुट्टियां बिताने का नया ठिकाना / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 जून 2019
अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि अगले बरस से सामान्य नागरिक अपनी छुट्टियां मनाने इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन जा सकेंगे। ये छुट्टियां एक माह की होंगी और प्रतिदिन का किराया $35000 होगा। स्पष्ट है कि यह सहूलियत सामान्य नागरिक के नाम पर केवल धनाढ्य लोगों को ही उपलब्ध होगी। गोयाकि भारत में केवल मुकेश अंबानी सपत्नीक यह लाभ उठा सकेंगे। संभवत: राजनीति में सक्रिय लोग भी आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि वे भी इन छुट्टियों पर जा सकेंगे परंतु उन्हें हमेशा भय रहता है कि जिसे कार्यभार सौंपकर वे छुटिटयों पर जाएंगे लौटने पर वह कार्यभार लौटाने से इनकार न कर दें। सत्ता की कुर्सी में चिपके रहना एक अजीबोगरीब रसायन होता है। उनकी अंतिम-यात्रा भी कुर्सी पर बैठे हुए निकालनी पड़ सकती है।
भारत के अधिकांश हिल स्टेशन अंग्रेजों ने विकसित किए हैं, क्योंकि गर्मी सहन करना उनके लिए कठिन था। गर्मी के मौसम में सरकारी कार्यालय रमणीय पहाड़ों पर ले जाया जाता और इसी बहाने क्लर्क भी पहाड़ों की सैर कर लेते थे। किसी दौर में मध्य प्रदेश सरकार भी पचमढ़ी में शिफ्ट की जाती थी। पूंजीवादी प्रभाव सरकार और अवाम की जीवनशैली पर इस कदर पड़ा है कि ग्रीष्मकाल में इन पहाड़ों पर भारी भीड़ जमा होती है और ट्रैफिक जाम भी लग जाता है। दशकों पूर्व एक अमेरिकन फिल्म में अंतरिक्ष यात्रा कराने के ढोंग और धोखाधड़ी की कथा प्रस्तुत की गई थी। खबर है कि हिमालय पर टनों कचरा पाया गया है, जो उस पर चढ़ाई करने वाले छोड़ जाते थे। एक महानगर से दूर वहां का कचरा फेंका जाता है और कचरे का टीला 65 फीट का हो गया है। दूर से देखने पर वह नैसर्गिक पहाड़ ही लगता है। अब नासा द्वारा प्रस्तावित योजना के तहत अमीर लोग अंतरिक्ष यात्रा में भी अपना कूड़ा-करकट वहां छोड़ देंगे। गोयाकि पृथ्वी को लूटने और तबाह करने के बाद अब बारी है अंतरिक्ष की। मनुष्य की क्रूरता और विचारहीनता से कुछ भी बच नहीं सकता।
विज्ञान से पहले साहित्य क्षेत्र ने अंतरिक्ष पर विचार किया और यहां तक कहा गया कि पूरा ब्रह्मांड ही मनुष्य कल्पना द्वारा रचा गया है। मानवीय कल्पनाएं अंतरिक्ष के तथ्य बन जाती हैं और वहां का यथार्थ हमारे लिए हमेशा कौतूहल और कल्पना का क्षेत्र रहा है। फिल्म के गीतकार भी इससे प्रेरित रहे हैं। एक बानगी प्रस्तुत है 'चांद के डोले पर आई नज़र वो रात की दुल्हन चल दी किधर'। एक अन्य गीत इस तरह है-'कहता है दिल और मचलता है दिल मोरे साजन ले चल मुझे तारों के पार, लगता नहीं है दिल यहां'। सभी तरह के साधन संपन्न व्यक्ति को भी कभी-कभी लगता है कि जीवन में कहीं कोई कमी है। इस आशय का गीत भी फिल्म 'चोरी चोरी' में है। सारांश यह है कि साधन संपन्न और साधनहीन दोनों ही समुदायों को जीवन में कहीं कोई कमी महसूस होती है। यही कमी कुछ लोगों को सृजन की प्रेरणा देती है और कुछ लोग अपराध के रास्ते पर चले जाते हैं। रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' और आयन रैंड के 1939 में लिखे उपन्यास 'द फाउंटेन हेड' में भी यह खतरनाक विचार अभिव्यक्त किया गया है कि दंड विधान दो प्रकार के बनाए जाने चाहिए।
एक दंड विधान सामान्य वर्ग के लिए और दूसरा दंड विधान सृजनशाल लोगों के लिए। समस्या यह है कि अवाम भी अत्यंत सृजनशील है कि वह विषम हालात में भी जीने के बहाने खोज लेता है। उसकी अलिखित कविताओं से हम परिचित ही नहीं हो पाते। मुंबई के एक उम्रदराज टैक्सी ड्राइवर को बार-बार जल्दी चलाने के लिए कहा गया तो वह बुदबुदाया कि सबको जल्दी करते देखा है परंतु किसी को पहुंचते हुए नहीं पाया। अरस्तू, सुकरात और रामी से भी बड़ी बात इस टैक्सी ड्राइवर ने कही है।