अंतर्दृष्टि / उपमा शर्मा
कला प्रदर्शनी में लगी अनगिनत चित्रों की भीड़ में वह चित्र बरबस ही अपना ध्यान खींच रहा था॥चित्रकार की कल्पना के अनूठे भाव उस चित्र में दिख रहे थे। आसमान से गिरती हुई बूँदें अपनी नियति के अनुसार अलग-अलग स्थान पर गिर रहीं थीं। कुछ चातक की प्यास बुझा रहीं थीं। कुछ धरती पर गिर उसे हरीतिमा प्रदान करने के उपक्रम में लगी थीं। प्रकृति के अनुपम रंगो की छटा उस चित्र में अलग ही खूबसूरती बिखेर रही थी। लेकिन अन्य चित्रों पर जहाँ भीड़ लगी हुई थी यह चित्र अकेला। क्या एक भी दर्शक को इसकी कला समझ नहीं आई? सलौनी के कदम भीड़ से इतर उस चित्र की ओर मुड़ गये।
"वाह! अनुपम, अद्वितीय। प्रकृति के कितने रूप और हर रूप अनूप।"
"जी शुक्रिया।" चित्रकार ने निर्विकार भाव से कहा
"कलर स्कीम बहुत सटीक और सुंदर है। ऐसा लगता है ये नदियाँ बह रही हैं। ये पंछी बस बोलने ही वाले हैं।" चित्रकार अभी भी शांत था।
"आपने बूँदों के संकेत से संगत के असर का बहुत सार्थक चित्र बनाया है।"
चित्रकार के अधरों पर स्मित नेअब अपनी जगह बना ली। वह कुछ बोलता उससे पहले ही सलौनी बोल पड़ी।
"लेकिन आश्चर्य! इतने सार्थक और सुंदर चित्र पर एक भी दर्शक नहीं। जबकि हर जगह भीड़ ही भीड़ है। तुम पहली बार यहाँ आये हो क्या?"
"जी! मैं पहली बार ही आया हूँ। अभी नवोदित कलाकार हूँ।"
"तुम्हें अपनी कला की उपेक्षा देख बुरा नहीं लग रहा चित्रकार!"
"बिल्कुल नहीं!" चित्रकार के चेहरे पर अब भी वही चिरपरिचित स्मित खेल रही थी।
"ऐसा कैसे हो सकता है? यह तो ह्यूमन विहेवियर है।"
"क्योंकि मेरे गुरु ने मुझे सच्चे प्रशंसक और प्रपंच का अर्थ भली-भाँति समझाकर ही मुझे इस जगत की आँच में पकने के लिए छोड़़ा है। वह कहते हैं अगर तुम्हारी कला का एक ही सच्चा प्रशंसक हो तो समझना तुम्हारी कला सार्थक हो गई।"
चित्र में बहती हुई बूँद सीपी के अंदर गिरी पड़ी थी जो मोती बनने की प्रक्रिया में थी।