अंतर्धर्म / हरिनारायण सिंह 'हरि'
Gadya Kosh से
मुहर्रम का दिन। ताजिए का जुलूस। डंके की आवाज के ऊपर गूँजता नारा 'नारे तकबील अल्लाहो अकबर।' लोगों का उफनता जोश। नेजे, तलवार और लकड़ियों के खेल में उत्साह कि सवेरे से घिरा बादल बरसने लगा। लोग भाग-भागकर साये की शरण लेने लगे। लेकिन बड़े ताजिए को कहाँ ले जाया जाए। पानी से कागज और पन्नियाँ गलने लगीं, रंग धुलने लगा। हसन और हुसैन की जुड़वा कब्र पर की चादर भींगने लगी। एक बुढ़िया पानी से बचने के लिए मंदिर के बरामदे में जा खड़ी हुई थी। उसके मुँह से प्रार्थना के स्वर फूटे 'कुछ देर को यह बरसा रोक दो इन्नर भगवान्! दया करो। इमाम साहब का ताजिया निकल जाने दो।'
मैं बुढ़िया का मुँह देखता असमंजस में खड़ा रहा बुढ़िया हिन्दू थी कि मुसलमान!