अंतर / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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वह सो रही थी। वह गहरी नींद में थी। आवाज़ सिसकती हुई, कानों में घुसती हुई झिंझोड़ती है। उस आवाज़ के साथ ही, वह उठ बैठी। चारों तरफ़ धुप्प अँधेरा था। उसने बेड पर टटोल कर देखा। न वों था न उसकी आवाज। कहाँ गया होगा अर्पित? शायद बाथरूम ? वह कुछ देर वैसे ही बैठे बैठे अंधेरे में प्रतीक्षा करती है। बेहद छनी हुई सिसकियों की आवाज़ बंद थी, फिर भी...!

बिस्तर से उठकर बिजली का स्विच आन करती है। रात में सोते समय के अलावा उसे अँधेरा बर्दाश्त नहीं है। बाथरूम, किचन देखती हुई वह बरामदे में आकर खड़ी हो गई. सोचती है। आसार डराने लगे। फिर माँ के कमरे में आकर खड़ी हो गई।

धुंधले प्रकाश में एक नज़र से तौलते हुए उसने माँ को देखा। माँ पेट दर्द से कराह रहीं थी। वह अपनी पलंग पर बेचैनी से करवट बदल रहीं थी। वह कराह रही थीं और वह पलंग के पास में ज़मीन में बैठा, घुटनों पर ठुड्डी टिकाए, टांगों को बाहों में घेरे था... शायद वही सिसक रहा होगा। अनुमान सही था। उसने पलट कर गरदन उचकाई. दरवाज़े पर ताकने लगा। था।

अचरज हुआ। उसने पूरी सावधानी बरती थी कि काव्या को पता न चले। वह जानता था कि उसे नींद बहुत पसंद है। वह उसे सीधी आँखों से नहीं देख पाने के बावजूद उसे साफ़ दिखाई दी।

उसका सिर घूमने लगा। वहाँ का सारा दृश्य देखकर अबूझ-सी ठिठक गई। उसकी आँखें गीली थीं। फिर भी उसे लगा कि कोई अनहोनी बात नहीं है।

बजाय माँ के सम्हालने के वह उसके पास आई। उसकी व्यथा से वह विचलित हो आई थी। उसके काँधें पर हाथ रखकर ढाढ़स बढ़ाया। विवश-अवश घुटनों से मुंह मोड़, साँसे खींचता फफक पड़ा। उसका पसीने से लथपथ चेहरा थर्राने लगा। बल्कि पूरी देह पत्ते की तरह कांपने लगी। उसने उसे गले लगाकर आश्वस्त किया।

वह अपने कमरे जाकर लौटी और कोई टैबलेट और पानी के साथ थी। उसने ख़ुद माँ को जाकर आहिस्ता से उठाया और उन्हें खिलाकर धीरे से लिटा दिया।

माँ दर्द के मारे रात भर सोई नहीं थी। थोड़ी ही देर में उन्हें आराम मिला और वह सो गईं।

अविश्वास से भरा उसका भावुक हृदय कृतज्ञता से अवनत उसके पर झुक गया। विह्वल उसे यही प्रतीत हुआ कि क्षण भर पूर्व उससे डग भर दूर वह नहीं कोई सिद्ध खड़ी है।

गली में अभी सवेरा नहीं हुआ था। वह उसे बेडरूम में ले जाकर सो गई।

माँ को उसने बहुत पहले से ही अपना प्रशंसक कर रखा था। घर आए एक-दो दिन ही बीते थे कि उसने पहले बेड टी देनी शुरू की फिर उसने सुबह का नाश्ता और कुछ दिनों के बाद ही उसने रात का खाना ख़ुद बनाना प्रारंभ कर दिया था। माँ कृतकृत्य-सी अकसर कहती आजकल की नौकरी करने वाली लड़कियाँ खाना कहाँ बनाती है? किन्तु मेरी बहु ऐसी ही है। एकदम अस्मी बेटी जैसी.

बाथरूम से निकलते हुए काव्या को उसने कुछ झिझकते हुए रोक लिया, “सुनो!”

“कहिए?” उसने प्रश्न भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा।

“मेरा मतलब है... ।“

“मैं ख़ूब तुम्हारा मतलब समझती हूँ। मैं आज छुट्टी नहीं ले सकती।“

“छुट्टियाँ तो काफ़ी बची है।“ वह परेशान दिखा।

‘तो क्या ?” व्यस्त भाव से वह लहराती हुई, तैयार होने चल दी।

वह एकदम से सामने आ गया। तय करना ज़रूरी था। पास के नर्सिंग होम का डॉक्टर उसका परिचित था। वह रुक नहीं सकती?

“बैंक में अचानक छुट्टी नहीं ले सकते। मैंने डॉ सक्सेना को फ़ोन कर दिया है। वह देख लेंगे।” उसने कहा और बिना उसकी प्रतिक्रिया देखे सुने चल दी।

परंतु इससे अधिक गिड़गिड़ाना उसके बस में नहीं था। आख़िर में उसे पति की बात माननी चाहिए थी। व्यर्थ ही रहा, उसका काव्या को रोकना। उसे लगा कि वह उसकी सहयोगी नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धी है।

अर्पित के उदास चेहरे पर सघन होती उसके असहयोग की कालिख गहरा गई। वह कहना चाहती थी, ”रुक न पाने के लिए क्षमा कर देना अर्पित!” किन्तु कह नहीं पाई.

उसे रुकना पड़ा, हालांकि वह जानता था कि प्राइवेट स्कूल में छुट्टी पूछना, मांगना और लेना काफ़ी महंगा पड़ता है। कभी कभी तो नौकरी जाने की हद तक घातक। उसका प्रवन्धक, मालिक बड़ी ऊँची पहुँच का है, भूत-पूर्व विधायक। किन्तु माँ को वह इस हालत में बिना इलाज के छोड़ नहीं सकता था। काव्या की दी हुई टैबलेट से तत्काल राहत ज़रूर मिल गई थी, किन्तु इस समय पुनः दर्द चालू हो गया था।

तनाव से उसकी नसें तड़कने लगी। भावी अनिष्ट की आशंका से उसका जी धड़कने लगा, ’क्या होगा माँ का?” सोचकर वह जड़ हो गया। उसे लगा कि वह मूर्छित हो रहा है...

वह माँ को लेकर पास वले नर्सिंग होम में गया। जहाँ डॉ सक्सेना ने पहुँचते ही इलाज चालू कर दिया। नर्सिंग होम से ही उसने स्कूल फ़ोन किया और माँ की स्थिति के विषय में बताया और ना आने की असमर्थता व्यक्त की। “तुम्हारी पत्नी भी तो है...!” फिर विधायक जी ने कुछ नहीं कहा। उनका मौन उसे अखर गया। पता नहीं उनकी चुप्पी क्या कहर बरसाए। हे! भगवान सिर्फ़ वेतन कटौती से ही मामला सुलट जाएँ।

काफी तरह के टेस्ट करने के बाद डॉ ने भर्ती करने को कहा। माँ को अपेंडिक्स का ऑपरेशन करना पड़ेगा। वह माँ को दाखिल-वाखिल करने की मूर्खता नहीं करना चाहता था। कौन रहेगा माँ के पास? कम से कम तीन-चार दिन तो लगेंगे ही। उसने डॉ से ऐसे ही इलाज करने को कहा। डॉ माँ के तेज बुखार देख कर घबरा गए और तुरंत इलाज करने लगे। डॉक्टर की दवाई असर करने लगी थीं। माँ का पेट-दर्द कम से कमतर होने लगा। उन्होंने कठनाई से आँख खोलकर निष्प्रभ दृष्टि से देखते हुए उसकी बात का अनुमोदन किया।

डॉ सक्सेना ने काव्या को फ़ोन किया। उसे सारी परिस्थिति समझा दी। मिस्टर अर्पित भर्ती करने को राजी नहीं। उसने डॉ को रुकने और रोकने को कहा।

एक क्षण के लिए वह विचलित-सा हो गया। बाहर आकर वह एक सिगरेट लेता है। यह उसके निराश होने की शुरुवात है।

बहुत छोटा था वह जब उसके पिता गुजर गए थे। शायद ग्यारह साल का और उसकी बहन अस्मिता नौ साल की थी। वह प्राथमिक स्कूल के अध्यापक थे। क्षतिपूर्ति आधार पर उसकी माँ की नियुक्ति चपरासी के पद पर हुई थी। क्योंकि माँ बहुत कम पढ़ी थी सिर्फ़ पाँचवां दर्जा, जिसका भी उसके पास कोई सबूत नहीं था। माँ सब कुछ ख़ुद देखती थीं घर बाहर और स्कूल। वे दोनों अच्छे बच्चे से उसकी हर बात मानते थे। पढ़-लिखकर बड़े होने पर वह नौकरी में लग गया और अस्मिता की शादी कर दी। असी खुसी और पसन्न है। यह सोचकर वह और माँ भी प्रसन्न रहते कि उसे ठीक घर और अच्छा लड़का मिला है। किन्तु वह जल्दी घर नहीं आ पाती। वह वह माँ को छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहता था। इस कारण यही इसी शहर में नौकरी की तलाश में रहता था, क्योंकि माँ जीते जी पिता का घर छोड़ना नहीं चाहती थी।

काव्या भी माँ की ही पसंद थी। उसे ऐसी बहूँ चाहिए थी जो चंद्रमा की तरह खूबसूरत हो और पीढ़ियाँ सुधर जाएँ, घर रोशन कर दे। अर्पित साधारण रंग रूप का सामान्य लड़का था।

विवाहोपरांत उसने काव्या से स्पष्ट कहा था कि वह अपनी माँ के लिए ही जीता है और उसकी देखभाल, उसकी पसंद सर्वोपरि है। यही उसका संकल्प है, उद्देश्य है और उसके जीवन की सार्थकता। अपनी पसंद ना पसंद गौण है।

“तुम मुझे अपने मायने की परिभाषा मेरे ऊपर लाद नहीं सकते।“ तब तुरंत प्रति उत्तर में उसने यही कहा था।

“यह आपकी ज्यादती है!” आप मेरी स्थिति देखना नहीं चाहती।“

“मेरे लिए इन बातों का कोई महत्त्व नहीं है।“ उसने निरपेक्ष भाव से कहा।

काव्या ने विवाह पूर्व एकांत में मिलने पर उसने उसे उकसाया था कि वह इस सम्बंध को मना कर दें। किन्तु वह उसके माँ की पसंद थी और उसकी... यही है राइट चॉइस बेबी ! का शोर हृदय से उठता हुआ उसके कानों को मीठे मीठे स्वर में गूंजने लगा था और अब तक स्थायी भाव धरण किए रह रहा था। उसे अपनी माँ की पसंद पर गर्व हुआ था। वह उसकी कमनीय, एकहरी और सुंदर काया पर रीझ उठा था और उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया, ’मुझे तो तुम बेहद पसंद हो।.. और तुम्हें मैं...?”

“मुझे तुम पसंद नहीं हो।“ किन्तु उसके स्वर में तिरस्कार नहीं था।

उसका दिमाग़ सन्न से चौका। मस्तिष्क पर पड़ी चोट ने संभ्रम पैदा किया। वह स्वतः बुदबुदाया, ”तो मना करोगी?”

“नहीं यह काम तुम करोगे?”

“क्यों? जबकि मुझे तुम पसंद हो और क्या मैं तुम्हारी नापसंदगी की वजह जान सकता हूँ?”

“तुम उस तरह के व्यक्ति नहीं हो जिस तरह के जीवन साथी की कल्पना मैंने की थी।”

“यह आपके कारण है, मेरे नहीं !”

उसे याद है तब उसने कहा था, ‘जानते हो मैं तुमसे 6 वर्ष बड़ी हूँ। तुम्हारी माँ को मेरी उम्र ग़लत बताई गई थी। इस आधार पर तुम मना कर सकते हो!”

‘नहीं, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ! सफल जीवन जीने के लिए किसी एक का छोटा, बड़ा या बराबर होना मायने नहीं रखता है, गांधी, सचिन, मैक्रो इन सब की पत्नी काफ़ी बड़ी है और फ़िल्मी प्रियंका, ,फरहा के पति भी 11 साल छोटे है और वे सुखी है।”

फिर उसने कहा, “मेरे कई प्रेम प्रसंग रहे है।“

“क्या फ़र्क़ पड़ता है। वह आपका भूत है वर्तमान में आप मुझे ही चाहोगी।“

“अगर ऐसा ना हुआ तो ?”

“अगर तुम वह नहीं रही हो तो तुम्हारे कुछ और होने की कोई संभावना नहीं है। वरना आप यहाँ तक ना आती।“

“ऐसे कैसे हो सकता है?” ऐसा कदापि नहीं होगा। ऐसा मेरा विश्वास है।“ उसने कहा।

“यह आप कैसी बहकी बहकी बातें कर रही है? आप होश में है?” वह तीक्ष्ण हो उठा।

फिर वह अनायास अपने चेहरे पर फैलती अर्थपूर्ण मुस्कराहट को बड़ी देर तक ख़ुद ही महसूस करती रही। अपने पर विश्वास करने के लिए उसने अपने मन और शरीर को सप्रयास समेटा और अपनी ज़िद को। वह शांत, सौम्य, साफ़ सुथरे मनुष्य अर्पित को मना नहीं कर पाई। अन्यों की तरह वह उसे अस्वीकृत करने का प्रयास निष्फल रहा।

अर्पित को चुनकर उसने एक फ़ैसला रख लिया था और अपनी भावनाओं को अप्रकट रहने देकर उसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था,... -तुम पाओगी वह जो कुछ कह रहा है मात्र उसका सोचना भर नहीं है, ना कोरी भावुकता कि उड़ान। यह जीवन की हर पक्ष की भागीदारी का ऐलान है। आदमी बदलता है, जब परिस्थितियाँ बदल जाती है।... उसने मन ही मन आश्वस्त किया स्कूल कालेज या पहले दिनों के संपर्क, सम्बंध शायद स्थायी प्यार नहीं होते, क्योंकि वह भावना, स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा के बीच पनपते है। बाद के दिनों के प्यार ही समय की कसौटी पर वास्तविक और चिरस्थायी होते है।

प्रथम दिवस ही वह उसके आधिकारिक रवैये से ख़फ़ा हो गया था। वह कभी कभी ही पान खाता था जब वह अत्यधिक प्रसन्न होता है और सिगरेट जब वह अत्यधिक तनाव में । आज वह बेहद प्रसन्न था। परंतु उसे पान खाए व्यक्ति सामंती मानसिकता के लगते थे। उससे बात करने की अनिच्छा जाहिर की। टालने की अनिच्छा से मुंह घुमा लिया। शायद... कुछ कहा भी। जो बेहद धीमा और अस्पष्ट था। उसे बुरा लगा था। कहीं भीतर खटकने लगा था। फिर, उसकी लगातार चुप्पी से उसे गहरी ठेस लगी। उसने पूरी कोशिश की इस अकल्पनीय दृश्य और वाक्य की वास्तविकता को तौलने परखने की।

वह समझ गया था। उसकी बात जायज थी। वह मान गया था। उसने उसके बाद कभी पान का सेवन ही नहीं किया।

बीच एक रात को वह सो रही थी। उसने उसे झिंझोड़ा। उसकी आवाज़ के साथ वह उठ बैठी। चारों तरफ़ अँधेरा था धुप्प अंधेरा। हड़बड़ाकर उठ बैठी और विमूढ़ भाव से उसे खोजने लगी। सिर्फ़ आकृतियाँ थीं। उसकी आँखें अजीब-सी आतंकग्रस्त और प्रश्नाकुल लगीं। उसे पास पाकर वह आश्वस्त होती है।... वह कुछ नहीं जानता। पहल करते सदैव वह डरता। अस्वीकार का दंश उसे प्रताड़ित करता है। वह जल्दी से निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कैसे अपने को प्रस्तुत करें। काव्या ने फौरन उसका संकोच ताड़ लिया। मुलायम स्वर में बोली, “संकोच करोगे तो किसी नजीते पर पहुँच पाना मुश्किल होगा। वह दुहराती है। उसे तसल्ली आती है। फिर वे खाली होते है। बेमन से वह परहेज करती। अब जब वह उसके साथ होती है, तब उसका प्रतिरोध नगण्य रहता है।

आज रविवार है। कुर्सी पर अधलेटी सी। उसने आँखें बंद कर रखी थी। वह उसी के विषय में सोच रही थी कि इतना अच्छा एकडेमिक कैरियर होने के बावजूद वह अभी तक क्यों साधारण-सी प्राइवेट नौकरी कर रहा है। उसे यह तो पता चल गया था कि वह अपनी माँ के खातिर दूसरे शहर की पोस्टिंग के लिए अनिच्छुक है और माँ इस घर को तक मरते दम छोड़ने के लिए राजी नहीं है। क्या ऐसा किया जाए कि वह सम्मान जनक नौकरी में आ सके। मैं कुछ कर सकती हूँ क्या ...?

“अंदर आ सकता हूँ... काव्या ?” उसे हंसी सूझी।

चौककर वह सीधी हो आई। उसने प्रश्न भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा।

‘लगता है... किसी पुराने को याद कर रही हो?”

“क्यूँ प्राण लेना चाहते हो?” उसने अपने पर नियंत्रण खो बैठी।

“तुम्हारा भूत क्यों नहीं पीछा छोड़ता ?”

“गलत है, यह सब तुम्हारी सोच और मानसिकता।“

“मगर क्यू ? अकसर तुम ख्वाबों और ख्यालों में खोई दिखती हो।“ उसने तंज कसा।

“सब्र की भी एक सीमा होती है...।“

“होती है निश्चित...! और मेरे भीतर वह अब चूक गई है।“

“यह सब तुम्हारे संशय की अनगिनत दीवालें है जिन्हें तुम अभी तक क़ायम रखे हों।“

“क्या बकती हो?” उसका स्वर अत्यधिक तेज हो गया था।

“एक बार और कहो... ” - उसने कहा।

“क्या ?

“जो अभी कहा था।“ एक फुफकारती-सी आवाज।

वह डर गया। कुछ देर तक चुपचाप उसे घूरता रहा। उसने कभी इस तरह नहीं सोचा था। उसने सोचा चुपचाप उठकर चले जाना चाहिए।

लेकिन वह रुक जाता है। ... न... डर नहीं। वह शांत है।

वह कुछ हैरान होकर हवा में ताकती रही। फिर,...विस्मय से उसे देखती है।

“तुम मुझे बाहर आने को कह रहे हो!...यही सच है...! जो व्यक्ति मेरे जीवन से निकल गये है, उनका दुबारा प्रवेश नामुमकिन है। हक़ीक़त तो यही है कि तुम मेरी साफगोई को अभी तक पचा नहीं पाए हो। जो शक का नाम का कीड़ा जो तुम्हारे भीतर स्थायी रूप से स्थापित हो गया है। वह अकसर तुम्हें कोंचता रहता है।“

“मेरा आशय यह नहीं था...” किन्तु वह रुकी नहीं...

“सत्य कहने के लिए जितना साहस जुटाना होता है, सुनने वाले को उससे कहीं अधिक झेलना दुष्कर होता है।“

बड़ी मुश्किल से वह अपने को समेटकर वहाँ से अपने को निकाल पाया। एक तरह से उसके वाक्य बाणों के अनवरत प्रहार से रण छोड़ आया। परंतु उसने...

उस दिन से उसने बोलना बंद कर दिया। पिछले दों हफ्तों से बोलचाल बंद लेकिन उसकी पूरी सतर्कता और संकोच के बावजूद स्थिति ठीक नहीं हो रही थी। उसने कई बार कोशिश की किन्तु असफल रहा...।

सोने की तैयारी में वह पलंग पर अधलेटी हो पत्रिका के पन्ने पलट रही थी। अर्पित ब्रश करने गया था।

अर्पित ने निरीहता झटकी। उससे प्यार का इज़हार भी एक चुनौती है। उस दृष्टि से आमंत्रित-निमंत्रित करते हुए जी से भरकर उसे निहारा।

उसके प्रति उसके चेहरे पर अलिप्तता स्थायी हो आई थी, जिसे उसने दूर करने की कोई कोशिश नहीं की। काव्या ने उसे टालने की अनिच्छा से मुँह और पत्रिका में घुसा लिया...

काव्या अजनबी नहीं रही है, उसे उससे डरना नहीं चाहिए। कितना आसान है...? गर्मी अचानक बढ़ गई थी। वह उसके पास जाने का इरादा कर ही रहा था कि तभी उसे आभास हुआ कि वह अकेला नहीं है – उसकी तरफ़ से हल्की-सी सरसराहट हुई है। वह पास आकर लेट जाता है और पत्रिका को परे कर देता है।

उसे देखती है... जो उसके अंदर है।

वह सुन्न-सा होकर उसकी तरफ़ देखने लगता है। उसके सुन्न हो जाने से वह डरने लगती है। उसे डर लगता ही कि कहीं वह उसे खो न दे जैसे उसने अन्यों को खोया है। तब तक वह और पास खिसक आया, इतना कि उसकी प्रेम-साँसे उससे टकराने लगीं।

“तुम ऐसे ही ठीक हो !” वह धीरे से फुसफुसाती है।.. और वह उसे खींच लेता है। बच्चों-सी निरीह देह जो विवाहित होने पर भी कुंवारी जान पड़ती है। वे एकाकार हो गए। उसके चेहरे पर शर्म और सहानुभूति के अजीब से घुले -मिले भाव थे, सहानुभूति उसके लिए और शर्म ख़ुद के लिए। प्रत्युत्तर में वह कृतज्ञता से दोहरा होने लगा।

उसके भीतर मचलती, उबलती, खौलती, तमतमाती और धमकाती कई ऐसी स्थितियाँ की भीड़ इकट्ठा हो गई थी। वे सब उसे ललकार रही थीं, धमका रही थीं, धिक्कार रहीं थीं चुनौती दे रहीं थीं, उसके पत्नी होने का मकसद तलाश रहीं थीं। जिन्हें उसने अपने से बाहर किया।

उसकी काल आई कि “वह आ रही है।“

“घर बंद है। अभी वह नर्सिंग होम में ही है। अभी छुट्टी नहीं मिली है।“ अर्पित ने कहा।

“अभी रुकिए, मैं आ रही हूँ प्रतीक्षा करिए।

काव्या आई और सब कुछ बदल गया। उसने बताया कि मैं बैंक से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आई हूँ। उसने तुनक कर अपना तर्क प्रस्तुत किया। “माँ अब यहाँ से पूर्णतया ठीक होकर ही जाएँगी। मैं देख लूँगी। तुम अपने स्कूल जाते रहिए!”

चार रोज़ में सब कुछ हो गया, आपरेशन और माँ ठीक होकर घर भी आ गई। इस बीच वह भी स्कूल नहीं गया और ना ही काव्या ने कुछ कहा। घर में आकर माँ भली चंगी लग रहीं थीं। उन्होंने ढेरों आशीषों से उन दोनों पर वर्षा कर दी।

वह एक हफ्ते बाद अपने स्कूल जा रहा था। वह वहाँ लिपिक था। घर से निकलने के पहले ही काव्या ने उसे पकड़ा। उसने बेहद बिंदास अंदाज़ में उसे हिदायत दी, “ज्यादा गिड़गिड़ाने और दबने की ज़रूरत नहीं है। अभी तुम ओवरऐज नहीं हुए हो। अभी बड़ी अच्छी सरकारी सम्मानजनक नौकरी मिल सकती है। तुम्हारे पास तीन वर्ष अब भी बाक़ी है। उसमें ध्यान दो और प्रयत्न करो।“ यह कहकर वह उसे टोहने लगी।

“मगर...? माँ... छोड़कर...? मैं नहीं जा सकता।“

“मैं यही रहूँगी...माँ के लिए। तुम मेरा इतना विश्वास नहीं करते?” इस बार उसके होंठ अप्रत्याशित हंसी में फैल गए।

अर्पित खड़ा रहा। फिर उसकी ओर देखा। काव्या की तरफ़ से उठती आवाजों की लहरें उठ कर, उससे टकराकर उसे बेहतर गंतव्य की तरफ़ ठेल रहीं थीं। घनिष्ठता अधिकार को साथ लाती है।

उसे यह सोचकर विस्मय होता है कि वे इतने दिन से साथ है,लेकिन अभी तक आपस में खुले नहीं। वह एक दूसरे के लिए बंद लिफाफे की तरह हैं जिनका पता तो पढ़ा जा सकता है, किन्तु भीतर क्या है सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता और अनुमान विपरीत भी हो सकता है। उस दिन के बाद पहली बार लगा कि वह उम्र में हास्यास्पद रूप में न केवल छोटा है बल्कि अनजान भी। उसे आज भी यह सोचकर हैरानी होती है कि वह क्या उसे जान पाया है?

वह चलने लगा। बाहर निकल कर उसने फ्रेश होने के लिए अपने चेहरे पर अनायास हाथ फिराया। उसे कुछ गीला लगा। अरे ! यह क्या आँसू थे? सहसा उसे विश्वास नहीं आता है। उसे लगा कि वह बहुत ही जटिल रहस्यमय ढंग से उस पर आश्रित है, जैसे उसके न होने से वह सब कुछ खो देगा।