अंतहीन यात्रा / प्रमोद यादव

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न मालूम कैसे उस दिन अप्रत्याशित ही नमिता पर मेरे हाथ उठ गए. वह भी एकदम स्तब्ध रह गयी थी.जिसके चेहरे पर उदासी की एक खरोंच तक कभी गवारा न था , जिसे सारी दुनिया में सबसे ज्यादा मुहब्बत करता, जो कभी सपने तक में मुझसे ऐसे व्यव्हार की उम्मीद न रखती थी..उसे जोरों का तमाचा देकर मेरे हाथ भी एकबारगी शर्मिंदगी से जड़ हो गए थे. उसी वक्त अपने को संयत कर मैंने उससे ह्रदय से क्षमा मांग ली.तब तक नमिता की आँखों में नमीं सी छलक आई थी..फिर भी वह मुस्कुराकर शायद औपचारिकता निभा रही थी- ‘ छि..रज्जू...मुझसे क्षमा मांग के शर्मिंदा न करो...शायद मैंने ही कोई गलत बात कही है..’

‘ नहीं नम्मी...तुमने कोई गलत बात नहीं की..पर तुम्हारी बातों से बरसों पुरानी एक घटना दिमाग में कौंध आई...इसलिए अचानक ही हाथ तुम पर उठ गए..’

बात उस दिन कुछ यूं हुई थी कि नम्मी घर आई तो ढेर सारे मेहमान मेरे कमरे में बैठे थे इसलिए उसे लेकर मैं शहर से कुछ दूर एकांत की ओर निकल गया. रेल की पांतों के बीचो-बीच दोनों बतियाते चल रहे थे कि एकाएक नम्मी बोली- ‘ रज्जू..अगर कहीं अभी ट्रेन आ जाए और मैं मर जाऊं तो तुम्हें कैसा लगेगा ? ‘

उसकी बातें पूरी भी न हो पाई थी कि मेरे हाथ एकबारगी उसके गाल पर ‘तडाक’ से पड़े थे. मैं बार-बार शर्मिंदगी से माफ़ी मांगता रहा, वह बार-बार कहती रही- ‘माफ़ी मांगकर मुझे शर्मिंदा मत करो..’ अंत में हारकर बोली- ‘ अच्छा बाबा..चलो माफ किया..लेकिन एक शर्त पर...क्या उस घटना के विषय में मुझे नहीं बताओगे ? ‘

रेल की पांतों के एक किनारे बैठ मैंने उसे सुनाना शुरू किया—

‘ पांच-छः साल पहले की बात है..शाम का सूरज अपनी लाली बिखेर अँधेरे की गोद में जाने को लगभग तैयार था..शाम की रक्तिम रोशनी से पंचनगर का मैदान जिसमे हरी-भरी, छोटी- छोटी घास फैली थी, नहाया सा लग रहा था. अनुज...मेरा एक बहुत ही करीबी और आत्मीय दोस्त..जो अंचल का नामी कवि और गायक था...टी.वी.-रेडियो में जिसके कार्यक्रम लोग हमेशा देखते-सुनते...जिसे तुम भी अच्छी तरह जानती हो..वह भी पंचनगर से चार-पांच फर्लांग की दूरी पर एक छोटे से मकान में रहता था.. उस मैदान में हर शाम टहलना उसकी आदत थी. पूरे दिन वह घर की चारदीवारी के अंदर लिखता-पढता..और अधिकाँश समय ‘टेंशन’ में दिखता. नौकरी छोड़ जबसे यहाँ आया, किसी ने उसे हंसते नहीं देखा था.

उस शाम जब अनुज आदतन चहलकदमी कर रहा था तो एकाएक सामने ‘ अमी’ दिखाई दी. अमी का परिचय उसी के शब्दों में दे रहा हूँ- ‘ मुझे अमी कहते हैं..पूरा नाम अमिता पाण्डेय..सामने पंचनगर में वो जो आखिरी लाइन में आखिरी मकान है..वही रहती हूँ ...प्राइवेट एम.ए. कर रही हूँ..हिन्दी में...साहित्य में मेरी बड़ी रूचि है...आप तो इस क्षेत्र में काफी लब्ध-प्रतिष्ठित हैं..कौन आपको नहीं जानता ? एक अरसे से आपसे मिलने की तमन्ना थी..पर अवसर न मिला..आज खुद मैं अपना परिचय दे रही हूँ..रेडियो में सुनती तो अक्सर कल्पना करती कि आप कैसे दिखते होंगे ?आज रूबरू देख रही हूँ तो वही तस्वीर सामने है जो मेरे कल्पना में थी. हुबहू आप वैसे ही निकले..’

अनुज को बिना कोई मौका दिए अमी इतना कुछ एक सांस में, बेझिझक , बिना किसी संकोच के बोल गयी और अनुज अपने ‘ रिजर्व नेचर ‘ के चलते सिवाय नमस्ते की मुद्रा में हाथ उठाने और गिराने के कुछ न कर सका. उडती निगाहों से उसने सामने इतना ही देखा- बीस-इक्कीस साल की, चौड़े पट्टे वाली बंदनवार साडी में लिपटी एक सांवली-सलोनी युवती जिसके मांग में दूर तक सिन्दूर की लाली खींची थी.. कानों में छोटे-छोटे सुनहरे लटकते कर्णफूल..और बड़ी-बड़ी दो पनियल आँखें..

दूसरी बार फिर उसी मैदान में जब अमी अनुज के सामने हुई तो अनुज को विस्मय हुआ..अमी उसके तारीफ़ के पुल बांधती रही..साहित्य और गीत-काव्य पर चर्चा करती रही. और अनुज केवल ‘हूँ-हाँ’ ही करता रहा.. ‘अच्छा ..अब मैं चलूँ ? ‘ अनुज घर जाने के लिए मुडा तो अमी की आवाज ने रोक दिया- ‘ एक बात कहूँ...मैं आपके साथ कुछ दूर और चलना चाहती हूँ....फिर वहीँ से सीधे घर चली जाउंगी..आपको कोई आपत्ति तो नहीं ? ‘

‘ मुझे भला क्या आपत्ति ‘ वाली मुद्रा में अनुज ने कहा- ‘ चलिए..’

अमी जब अपने घर की सीध में आई तो कहने लगी- ‘थोडा सा और चलूंगी आपके साथ..फिर लौट जाउंगी..’

अनुज कुछ न बोला, चलता रहा और अमी उसके कृतित्व पर, उसके व्यक्तित्व पर धारावाहिक बोलती रही..सूरज लगभग दूब गया था. घर करीब आया तो अनुज ने कहा- ‘ अब आप घर जाइए. आपको देर हो जायेगी..’

अनुज के शब्दों से व्यथित हो अमी बोली - ‘प्लीज..चलिए न..उस तालाब तक चलते हैं..मात्र दस कदम ही तो है..वहाँ से आप भी चले जाना, मैं भी लौट जाउंगी..प्रामिस..’

तालाब से पहले रेलवे क्रासिंग के पास अमी अनुज के कुछ करीब हो, चलते-चलते बोली - ‘अगर अभी ट्रेन आ जाए और मैं मर जाऊं तो आपको कैसा लगेगा ? ‘

‘ क्या पागलों सी बकती हो...’ अनुज चौंक जाता है..’ चलिए..आपको घर तक छोड़ आता हूँ..’ और पीछे मुड़कर अनुज तेज-तेज क़दमों से चलने लगता है. तभी अमी कहती है- ‘ प्लीज..धीरे चलिए न..पता नहीं अब किस जनम में आपसे मुलाक़ात हो.. न हो..आज को मैं जी भर के जीना चाह रही हूँ..खैर... क्षमा चाहती हूँ..आपको काफी तकलीफ दी..अब यहाँ से मैं अकेली चली जाउंगी..’

अनुज के रुकते ही उसने तेजी से उसके पैर छुए.अनुज घबरा गया..कुछ बोलना चाहा लेकिन अमी काफी आगे निकल चुकी थी. एक- दो बार पीछे पलटकर उसने देखा. अनुज उस रहस्यमयी लड़की के विषय में सोचते-सोचते कब घर पहुंचा, पता ही न चला.

दूसरे दिन सुबह पड़ोस की काकी ने आकर जब बताया कि पंचनगर की एक युवती रात को अग्नि -स्नान कर आत्महत्या कर ली . अनुज को जैसे काठ मार गया. काकी ने जब कहा कि कुछ औरतों बता रही थी कि कल शाम तुम उसके साथ दिखे थे..क्या यह सच है ? तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और तुरंत बाहर चला गया. उस दिन से जो गया तो आज तलक नहीं लौटा..न मालुम वो कहाँ है..उसे ढूंढने की मैंने काफी कोशिश की पर नहीं मिला..

‘ बस नम्मी..यही घटना है..तुम्हारी आज की बातों से अमी का ख्याल आ गया..और गुस्से के आवेग में मेरे हाथ उठ गए..’अनुज ने संजीदगी से कहा.

‘ अच्छा रज्जू..अब बीती बातों को छोडो..और मुस्कुराओ..मैं वादा करती हूँ.. अकेली नहीं मरूंगी..बस ..अब तो खुश हो न..और फिर यार..जब तक तुम साथ न हो तो मरने का भी क्या मजा है.. ‘ नम्मी ने मजाक के मूड में हँसते कहा...और दोनों वापस लौट आये थे उस दिन.

दूसरे दिन सुबह जब सुना कि रात ग्यारह बजे रसोई में गैस सिलिंडर के भर्स्ट हो जाने से नम्मी चल बसी तो वह स्तब्ध रह गया..पागल हो गया..उसके भाई ने बताया कि हड़बड़ी और हास्पिटल के चक्कर में ‘इंफार्म’ न कर सका. उसने बताया कि बेहोशी में वह बडबडाती रही- ‘ मैंने वादा किया है...मैं मरना नहीं चाहती...वादा किया है..’ घरवाले उसकी बातों को नहीं समझ सके पर उसका भाई जो मेरा दोस्त भी था और जो हमारे संबंधों से वाकिफ था, उस रात चाहकर भी, जानकर भी कुछ न कर सका था..सिवाय रोने के. आज नम्मी नहीं है लेकिन उसकी बातें हर वक्त कानों में गूँजती रहती है- ‘ यार..जब तक तुम साथ न हो ..मरने का क्या मजा ? ‘

एक बात का मलाल मुझे आज तक है कि मैं कभी उसे न कह सका- ‘ यार..जब तक तुम साथ न हो ..जीने का भी क्या मजा ?’

मेरी ट्रेजडी यह है कि मैं चाहकर भी अनुज की तरह गुम न हो सका... एक अंतहीन यात्रा को विवश हूँ..और उन यादों से कभी मुक्त न हो सका जिसमें केवल एक वाक्य है- ‘ यार..जब तक तुम साथ न हो...’