अंतिम गांधीवादी !/ भारत यायावर

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स्वाधीन भारत में गांधी की परंपरा को आगे तक ले जानेवाले और गांधी की तरह ही अपने जीवन को एक आंदोलन बना लेने वाले उनके सच्चे दो प्रतिनिधि थे - जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया। 13 अप्रैल, 1946 ई. को गांधी ने इनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कहा था - 'श्री जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया दोनों विद्वान हैं। उन्होंने अपनी विद्वता का इस्तेमाल पैसा कमाने के लिए नहीं किया। देश की गुलामी को देखकर वे अधीर हो उठे। उन्होंने अपना सब कुछ देश को अर्पण कर दिया और उसकी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने में लग गए। सरकार को उनसे डर लगा और उसने उन्हें जेल में डाल दिया। अगर मैं साम्राज्य चलाने वाला होऊँ तो शायद मैं ऐसे लोगों से डरूँ और जेल में रखूँ।' यहाँ गांधीजी, जयप्रकाश और डॉ. लोहिया के प्रखर और तेजस्वी व्यक्तित्व को रेखांकित कर रहे थे। इन दोनों महापुरुषों की विद्वता, त्याग, अपार देश-प्रेम, जन-जीवन के प्रति समर्पण और आंदोलनकारी व्यक्तित्व ने महात्मा गांधी को बहुत गहराई तक प्रभावित किया था। इसके प्रमाणस्वरूप मैं गांधीजी के एक दस्तावेजी पत्र का जिक्र करना चाहूँगा, जो जयप्रकाश नारायण के संदर्भ में है।

ब्रिटिश सरकार ने 5 मार्च, 1943 को अगस्त क्रांति की घटनाओं के बारे में 86 पृष्ठों की एक पुस्तिका - 'उपद्रवों के लिए कांग्रेस की जिम्मेदारी' प्रकाशित की। इस पुस्तिका की सरकार के अतिरिक्त सचिव सर रिचर्ड टोटेनहम ने भूमिका लिखी थी। गांधीजी तब आगा खाँ के महल में नजरबंद थे। यह पुस्तिका उन्हें वहीं 13 अप्रैल को मिली। उन्होंने 15 जुलाई 1943 को इस पुस्तिका के आरोपों का जवाब अपने 77 पैराग्राफ के एक लंबे पत्र के द्वारा सर रिचर्ड टोटेनहम को दिया। इस पत्र के 73वें पैराग्राफ में उन्होंने लिखा - 'कुछ लोगों का इस तरह पीछा किया जा रहा है कि मानों वे खतरनाक अपराधी हों। मेरा आशय जयप्रकाश नारायण और उनके साथियों से है। जो जयप्रकाश का पता बताएगा, उसे पाँच हजार रुपये का इनाम देने की सरकार ने पहले घोषणा की थी। अब इसने इनाम की रकम दुगुनी कर दी है। मैंने यहाँ जयप्रकाश नारायण की चर्चा जान-बूझ कर की है। क्योंकि उन्होंने (जयप्रकाश ने) कहा है कि वह मुझसे कई बुनियादी बातों पर असहमत हैं। मेरे उनसे मतभेद हो सकते हैं, पर इनके कारण मैं उनके अदम्य साहस और देश के लिए अपना सर्वस्व त्याग करने की उनकी इच्छा को अपनी आँखों से ओझल नहीं कर सकता। मैंने उनका (जयप्रकाश का) घोषणा-पत्र पढ़ा है, जो पुस्तिका के परिशिष्ट में दिया गया है। घोषणा-पत्र की कुछ बातों से मैं सहमत नहीं हूँ, पर यह घोषणा-पत्र क्या है? उसके हर अक्षर में देश-प्रेम की आग धधकती है और विदेशी शासन को बरदाश्त करने का अधैर्य प्रकट होता है। यह तो ऐसे गुण हैं जिन पर किसी भी देश को गर्व हो सकता है।'

ऐसा था जयप्रकाश का व्यक्तित्व! यही कारण है कि 1942 की क्रांति को गांधी के बाद जन-जन तक फैलाने वाले जयप्रकाश नारायण को ब्रिटिश सरकार की पुलिस बहुत लंबे समय के बाद गिरफ्तार कर पाई। उन्हें हजारीबाग के सेंट्रल जेल में रखा गया। किंतु एक रात जब जयप्रकाश जेल से फरार हो गए तो यह उस समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी गई। 42 के आंदोलन में शरीक लाखों देशवासियों में एक नई स्फूर्ति, नई चेतना आ गई और आंदोलन और उग्र हो उठा। उस समय समाजवादियों द्वारा बनाए गए 'आजाद दस्ता' के द्वारा कई थानों को जला दिया गया, रेल की पटरी उखाड़ी गई, सरकारी दफ्तरों पर कब्जा किया गया। अंग्रेजी साम्राज्य की मजबूत नींव को जड़ से हिलाकर कमजोर कर दिया गया। यह सब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व एवं प्रेरणा से हुआ था। गांधीजी के 'करो या मरो' के मंत्र में उन्होंने हिंसा को भी प्रश्रय देकर तब उसे एक उग्ररूप दे दिया था। वे 42 की क्रांति के 'हीरो' हो गए थे। इसीलिए गांधी ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए कहा था - उनके हर अक्षर में देशप्रेम की आग धधकती है और उन पर किसी भी देश को गर्व हो सकता है।

गांधी की कई बातों से तब जयप्रकाश असहमत थे, जिनका जिक्र गांधी ने किया है। उसका कारण है। जयप्रकाश तब मार्क्सवादी थे। उन्होंने अपने बारे में लिखा है - 'अमरीका में मैंने खदानों, कारखानों और बुच्चड़खानों में काम किया। मैंने जूतों में पॉलिश की और होटलों मे पाखाने साफ किए। ...अमरीका में मैं कम्युनिस्ट बना, पर स्टालिनवादी नहीं बना। मैं कम्युनिस्ट बनकर स्वदेश लौटा था। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी में भरती नहीं हुआ, कांग्रेस में हुआ। इन लोगों ने कहा, गांधी पूँजीपतियों का एजेंट है। लेकिन मैंने लेनिन से ही सीखा था कि उपनिवेशवादी देशों में कम्युनिस्टों को किसी भी हालत में आजादी की लड़ाई से अलग नहीं रहना चाहिए, भले ही उसका नेतृत्व बुर्जुवा वर्ग और पूँजीपतियों के हाथों में क्यों न हो।'

यह ध्यान देने की बात है कि जयप्रकाश कम्युनिस्ट होते हुए भी गांधी के नेतृत्व के साथ क्यों थे और इस कारण कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से उनका मतभेद था। गांधी से भी मतभेद था, कारण वे कम्युनिस्ट विचारधारा के थे। किंतु आजादी के बाद वे धीरे-धीरे गांधीमय होते गए और विनोबा भावे के सर्वोदय और भूदान आंदोलन में सक्रिय हो गए। उनके इस फैसले से समाजवादी खेमे में एक निराशा का माहौल व्याप्त हो गया। समाजवादी आंदोलन ही बिखर गया। जयप्रकाश का तेजस्वी, आक्रामक व्यक्तित्व ही मानो लुप्त हो गया। सर्वोदय आंदोलन की विफलता से जयप्रकाश भी हताश हुए। फिर उनका एक अलग ही स्वरूप दस्यु उन्मूलन में उजागर हुआ। 1970 ई. में मुसहरी नामक गाँव में उन्होंने आतंकवाद की ओर अग्रसर नवयुवकों को ग्राम-निर्माण की ओर उत्प्रेरित किया। मुसहरी से उन्होंने प्रसिद्ध कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु को एक लंबा पत्र लिखा - 'यहाँ आकर देखो, तुम्हारा 'मैला आँचल' और मैला हो गया है।' और फिर बिहार आंदोलन में उनका तेजस्वी स्वरूप पुनः प्रकट हुआ।

उन्होंने अपनी पुस्तक 'टुवर्ड्स टोटल रिवोल्यूशन' की प्रस्तावना में अपने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव और परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए लिखा है - 'मुझ पर अक्सर अपने विचारों और कार्यक्रमों को बदलने का आरोप लगाया गया है। मेरा दावा है कि इन बाहरी परिवर्तनों के बीच मैं एक निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा हूँ, एक निश्चित प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ता रहा हूँ : भारत को कैसे स्वतंत्र किया जाए। यह तलाश मुझे कई मतवादों एवं राजनीतिक दलों में ले गई, जब तक मैं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा कि इसका उत्तर गांधीजी के पास है, गांधी के विचारों का बुद्धिहीन उपयोग नहीं, बल्कि उसका गतिशील एवं क्रांतिकारी रूपांतर।'

जयप्रकाश ने अपने जीवन और अपनी विचारधारा को स्पष्ट करने के लिए 'समाजवाद, सर्वोदय और लोकतंत्र' नामक पुस्तक के पृष्ठ 157-58 पर लिखा है - 'अपने युवाकाल में, मैं एक उग्र राष्ट्रवादी था और मेरा झुकाव क्रांतिकारी पथ की ओर था, जिसकी शानदार अगुआई उन दिनों बंगाल कर रहा था। परंतु उस समय भी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह ने मेरे युवक-हृदय को आकृष्ट किया था। मेरी क्रांतिकारी प्रवृत्तियों के प्रौढ़ होने के पूर्व गांधीजी का प्रथम असहयोग आंदोलन एक अजीब, ऊपर उठानेवाले झंझा की तरह इस देश में छा गया था। मैं भी उस समय के उन हजारों नवयुवकों में था, जो उस झंझावात में पत्तों की तरह, क्षणभर के लिए आसमान तक उठ गए थे। एक महान विचार की आँधी के साथ ऊपर उठने की अल्पकालिक अनुभूति ने उस समय मेरे जीवन पर जो छाप छोड़ी, उसे काल तथा वस्तुस्थिति की कुरूपता का अति परिचय भी मिटा नहीं पाया। यही वह समय था, जब स्वतंत्रता मेरे जीवन का संकेत-दीप बनी, और तब से वह उसी रूप में रही है। कालांतर में उस स्वतंत्रता ने मात्र स्वदेश की स्वतंत्रता से आगे बढ़कर, प्रत्येक देश में, प्रत्येक बंधन से मानव-मुक्ति की भावना को आत्मसात किया। ...यह स्वतंत्रता मेरे जीवन की वासना बन गई है और मैं कभी भी उसका सौदा रोटी के लिए, सत्ता के लिए, सुरक्षा के लिए, समृद्धि के लिए, राष्ट्र के गौरव के लिए या किसी अन्य वस्तु के लिए नही होने दूँगा।'

जयप्रकाश का यह स्वतंत्रता-प्रेम जो उनकी वासना बन चुकी थी, जीवन भर उन्हें सक्रिय और गतिशील बनाए रही। इसी ने उन्हें कभी चैन से बैठने नहीं दिया। आराम और ठाट से जीने नहीं दिया। 1966 ई. में जब बिहार में भीषण अकाल पड़ा था, वे गाँव-गाँव का दौरा कर रहे थे और भूख से जूझते किसानों को हिम्मत बँधा रहे थे, प्रशासन का ध्यान उन किसानों की ओर आकृष्ट करवा रहे थे। ठीक उसी तरह जैसे गांधी 1947 ई. में पूर्वी बंगाल के दंगा-पीड़ित गाँवों का पैदल दौरा कर प्रेम और भाईचारे का अलख जगा रहे थे। जयप्रकाश भी गांधी की तरह भारत की गरीब जनता के हृदय से एकाकार थे। यही कारण है कि 1974 ई. में उनके नेतृत्व में एक अपार जनजागरण आया था।

आज भी देश में वैसा ही भ्रष्टाचार का बोलबाला है, सत्ता का निरंकुश रवैया भले ही वैसा न हो, किंतु सत्ता का जनपक्षधर स्वरूप अब तक नहीं बन पाया है, हजारों समस्याओं से देश घिरा हुआ है, किंतु देश में प्रतिवाद का वैसा जन-सैलाब क्या पुनः मुखरित हो सकता है?

जयप्रकाश जनता को जागृत करने वाले भारत के अंतिम गांधीवादी व्यक्तित्व थे, जिनके चिंतन में भले ही असंगतियाँ हों, जिनके जीवन के कई विरोधी आयाम हों - पर जनतंत्र की रक्षा के लिए लड़ने वाला उनके जैसे प्रखर योद्धा को भारत की जनता आज भी तलाश रही है। जयप्रकाश ने कहा था - 'रोटी और आजादी - इन दोनों को जोड़कर ही इस देश को आगे बढ़ाया जा सकता है।' लोकतंत्र की जड़े भी तभी मजबूत होंगी। जयप्रकाश के सपनों का भारत भी तभी निर्मित हो सकेगा। उन्होंने लिखा है - 'मेरे सपनों का भारत एक ऐसा समुदाय है, जिसमें हर एक व्यक्ति, हर एक साधन निर्बल की सेवा के लिए समर्पित है - अंत्योदय तथा निर्बल और असहाय की बेहतरी को समर्पित समुदाय। ...मेरे मन में एक स्वतंत्र, प्रगतिशील और गांधीवादी भारत की तस्वीर है।'