अंतिम निर्णय / गोवर्धन यादव
मन था कि कहीं जुड़ नहीं पा रहा था। जुड़ता भी कैसे, जब उदासी, गहरी काली चादर ओढ़े मन के भीतर उतर आयी हो तो खुश कैसे रहा जा सकता है? । उसने अपनी हथेली फ़ैलाई और देखने की कोशिश करने लगी कि कहीं विधाता ने गलती से छोटी-मोटी ही सही, ख़ुशी की एक छॊटी-सी लाईन ही खींच दी हो? । हथेली पर तेढ़ी-मेढ़ी लाइनों का जाल-सा बिछा था। कहीं आपस में एक दूसरे को काटती हुईं तो कहीं एक सिरे से आकर दूसरी ओर निकल जाती हुई. निश्चित ही इन लाइनों में से कोई एक लाईन तो ज़रूर रही होगी ख़ुशी कि लेकिन दुर्भाग्य कि वह कई जगहों से कटी हुई थी। इन लाइनों के क्या अर्थ है, इनमें क्या लिखा-बदा है, यह तो वह नहीं जानती लेकिन इतना ज़रूर जानती है कि उसके भाग्य में ख़ुशी की जगह दुख ही दुख लिखे हैं,
दिल पर छाई उदासी की कलिमा अब आँखों में उतर आथी थी। उदास आँखे लिए वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी। बाहर गहमा-गहमी थी। लोग बदहवास से आते और दूर निकल जाते। कुछ बच्चे कंचे खेलने में लगे थे। जो ज़्यादा कंचे जीत जाता, ख़ुशी से उछल-कूद करने लगता और जो हार जाता मुँह लटकाए एक ओर खड़ा रहता। तभी उसे बाबा संपतराव धरणीधर की एक कविता याद हो आयी... "कभी खुशी, तो ग़म कभी, पी रहे हैं लोग, किस्त-किस्त ज़िन्दगी जी रहे हैं लोग" । इन छोटे-छोटे शब्दों में ज़िन्दगी का गहरा फ़लसफ़ा छिपा हुआ है। सच ही है, ख़ुशी सभी को नहीं मिलती और न ही सभी खुशनसीब होते हैं।
तभी उसकी नजरें आकाश की ओर उठ गई. उसने देखा। एक कटी हुई पतंग हिचकोले खाते हुए नीचे की ओर आ रही है। उसे देखकर वह सोचने लगी थी-" जब तक पतंग तनी हुई थी, कितनी शान से आसमान में इतरा रही थी और जैसे ही उसकी डोर कटी, वह कहीं की नहीं रही। न आसमान की और न ही उसकी जो उसे उड़ा रहा होता है। कटी हुई यह पतंग किस ओर जाकर गिरेगी, कोई नहीं जानता। संभव है किसी पेड़ की डाली से आकर उलझ जाएगी या फिर टेलीफ़ोन के तार पर जाकर लटक जाएगी। धोके से किसी लूटने वाले के हाथ लग गई तो पलभर में उसका अस्तित्व ही मिट जाएगा, क्योंकि पंतग लूटने वाला एक नहीं बल्कि दस-पांच लड़के इस लूट में शामिल होते हैं। कटी हुई पतंग को देखकर वह अपनी तुलना पतंग से करने लगी थी। फ़र्क केवल इतना ही है कि वह दोनों स्थितियाँ झेल रही है बारी-बारी से, कभी अधर में टंगे रहने के लिए तो कभी बंधनहीन तैरने के लिए.
विचारों की कंटीली झाड़ियों में उलझते हुए उसका मन लहुलुहान हुआ जा रहा था। वह और कुछ सोच पाती तभी उसकी बेटी कुनमुनाते हुए रोने लगी। शायद उसने सु कर दिया था। गीले कपड़ों में वह अपने आपको असहज पा रही थी। उसने हथेली से बिछे कपड़ों को छू कर देखा। अनुमान सही निकला। बिना देर किए उसने कपड़ा बदल दिया और हथेली से थपकी देने लगी। थोड़ी देर तक तो वह कुनमुनाती रही फिर सो गई थी।
पास ही एक पीपल का पेड़ था जिस पर पखेरुओं ने घोंसले बना रखे थे। पीपल की शाखों में उलझा सूरज धीरे-धीरे नीचे उतरते हुए अस्ताचल की ओर बढ़ने लगा था और एक सुरमई अंधियारा छाने लगा था। पक्षियों के दल अब लौटने लगे थे। वे अपने नन्हें शिशुओं के लिए मुंह में चुग्गा-दाना भर कर लाए थे। घोंसलों में बैठे नन्हें परिंदें घोंसले के बाहर अपना सिर निकाले उन्हें आता देख, खुश होकर चिंचिंयाने लगे थे। पक्षियों का दल अपने-अपने घोंसले पर आकर उतर गए थे और अब वे अपने-अपने शिशुओं के मुंह में चुग्गा खिलाने लगे थे। शिशुओं से देर तक लाड़ लड़ाने के बाद, वे दूर-दूर तक उड़कर जाते और फिर लौट आते थे। शायद दिन भर के बिछड़े अपने संगी-साथियों के साथ आकाश में उड़ते हुए एक दूसरे का हालचाल जानने की गरज से ये उड़ाने होती थीं। सूरज अपनी किरणॊं का जाल समेटे पहाड़ के उस पास उतरने की तैयारी में था। तभी सारे पखेरु अपनी-अपनी बोलियों में बोलने लगे थे, शायद अपने आराध्य देव की बिदाई में वे मिल जुलकर सांध्यगीत गा रहे थे। ये सब दृष्य देखकर बूढ़े पीपल की देह में झुरझुरी-सी भर आयी थी। वह भी अब तालियाँ बजा-बजाकर पक्षियों का उत्साहवर्धन करने लगा था।
काला-कलूटा अन्धियारा खिड़की फ़लांग कर अन्दर घुस आया और पूरे कमरे में फ़ैल गया। देर तक अंधियारे में बैठे रहने के बाद उसने स्विच आन किया। रोशनी से कमरा जगमगा उठा। सबसे पहले उसकी नज़र बेटी पर पड़ी। उसके सूखे होंठॊं पर तैरती मुस्कान देखते ही उसका मन वितृष्णा से भर आया। उसने तत्काल अपनी नजरें हठा ली। मन में तरह-तरह के विचार उठ खड़े होने लगे थे। वह सोचने लगी थी-" इस कलमुहीं को मेरी ही कोख से पैदा होना था? । पैदा ही हुई थी तो शकल-सूरत में तो खूबसूरत होनी चाहिए थी। सूखे गन्ने जैसे तो उसके हाथ-पांव है। चमढ़ी का रंग भी ऎसा कि कोयला भी शरमा जाए. जचकी के ठीक बाद नावन ने उसे नल्हा-धुलाकर पास में लिटाया तो देखते ही वह बिफ़र पड़ी थी और कह उठी थी कि इतनी बदसूरत लड़की मेरी नहीं हो सकती।? । कहीं तुम इसे कब्रस्थान से तो उठाकर तो नहीं ले आयी? मैं ही क्या कोई भी इसे कोई देख ले, तो यही कहेगा कि इसे कब्र से ही उठाकर लाया गया है। पास बैठी भाभी ने लगभग डांटते हुए तथा इस बात का खण्डन करते हुए बतलाया कि तूने ही तो इसे जन्मा है। कोई क्यों भला तेरे साथ ऎसा करेगा। पता नहीं... इस करमजलि को हमारे ही घर पैदा होने था। इसके केवल हाड़ ही हाड़ है, मांस तो एक तोला भी नहीं है। शक्ल-सूरत में भी उतनी खूबसूरत नहीं है। बच्चे पैदा होते ही रोने लगते है, जबकि ये तो हंसी थी डायन के जैसी. मुँह में दांत भी इसके देखे गए हैं। अपशकुनी पैदा हुई है ये लड़की। अपने परिवार में तो क्या, दूर-दूर तक ऎसी लड़की पैदा हुई हो, हमने तो नहीं सुना। बड़बड़ाते हुए वे कमरे से बाहर निकल गईं थीं।
भैया भी खुश कहाँ थे? जिस दिन ये पैदा हुई, उसी दिन उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था-"सुसी... जिन्दगी भर चैन से जी नहीं पायेगी इस लड़की को लेकर। जितनी जल्दी हो सके, इससे छुटकारा पा ले" और क्या कहते वे? । कम बोलकर भी उन्होंने काफ़ी कुछ कह दिया था। इसके बाद उन्होंने कमरे में झांक कर भी नहीं देखा था।
जिस दिन से ये पैदा हुई है, उस दिन से घर का सुख-चैन ही छिन गया था। खुश होने के बजाय सभी दुखी थे। भैया-भामी से लेकर भतिजा-भतिजी भी इसके आने से खुश नहीं हुए थे। भाई ने इसके पैदा होने के बाद सुशील को फ़ोन करके ख़बर दी थी कि उसके बेटी पैदा हुई है। उत्सुकतावश उसने पूछा भी थी कि कैसी दिखती है उसकी लाड़ो? उसका रंग-रुप कैसा है? मेरी शक्ल पर है कि उसकी आई की शकल पर गई है। भैया क्या कहते? कहने और छुपाने को था ही क्या? वे झूठ कैसे बोल सकते थे? बोलना भी नहीं चाहिए था? अगर बात छुपा भी जाते और जब हक़ीक़त सामने आती तो चेहरा दिखाने लायक नहीं रहता उनका? जो हक़ीक़त थी उन्होंने सच-सच कह सुनाया था सुनील को। सुनते ही उसका मूड खराब हो गया था। दोनों के बीच जो बातें हुईं उसे सुनकर तो उसका कलेजा धक से रह गया था। सुशील ने तो सीधे-सीधे कह दिया था कि उसे ऎसी लड़की नहीं चाहिए. संभव हो तो तत्काल उसका टॆंटुआ दबा देना चाहिए. इस लड़की का ज़िंदा रहना हमारे लिए नासुर बन जायेगा। सही कहा था सुनील ने। उसकी जगह कोई और होता तो वह भी यही कहता।
सुधा का मन किसी घड़ी के पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था। कभी इधर, तो कभी उधर। वह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि आख़िर उसे क्या करना चाहिए? एक मन होता कि इसका टॆंटुआ तत्काल दबा देना चाहिए और इससे छुटकारा पा लेना चाहिए. एक मन होता कि क्या एक माँ को ऎसा करना चाहिए? क्या एक माँ ऎसा कर पाएगी? । तरह-तरह के विचार मन में आते जो उसे अशांत कर जाते।
नींद ने आंखों से दूरी बना रखी थी। कभी पास आती तो कभी कोसों दूर निकल जाती। बिस्तर पर सोती लड़की को देखती तो उसे लगता कि कोई नागिन पसरी पड़ी है। न तो उसे हाथ लगाने की इच्छा होती और न ही लाड़ लड़ाने की इच्छा ही होती। नींद को पास बुलाने का एक ही नायाब और पुराना तरीक़ा था उसके पास। स्कूल की पढ़ाई के समय जब उसे नींद नहीं आती थी तो वह कोई किताब निकाल कर बैठ जाती थी। पढ़ते-पढ़ते आँखें बोझिल होने लगती थी और वह कब नींद के आगोश में चली जाया करती थी, पता ही नहीं चल पाता था। कमरे में उस समय कोई किताब उपलब्ध नहीं थी। किताबों का जखिरा तो भाई के कमरे में होता है। उनकी अपनी नीजि लायब्रेरी है। लेकिन इतनी रात गए उनके कमरे में जाना उचित नहीं लगा था उसे। भाई भले ही नहीं जाग पाए लेकिन भाभी इनसे हटकर है। हलका-सा खटका सुनते ही वे उठ बैठती हैं। यदि उनकी नींद खुल गई तो सैकड़ों सवाल दागे जायेंगे और वह यह नहीं चाहती कि उसके लिए किसी की नींद में खलल पैदा हो। बिना लाईट जलाये उसने टेबुल को टटोला, अखबारों का पुलिंदा पड़ा हुआ था। बिना किसी आहट के उसने अखबारों का गठ्ठा उठाया और अपने कमरे में चली आयी।
शायद ही कोई ऎसा अख़बार होगा जिसमें महिलाओं के साथ सामुहिक बलात्कार और बलात्कार के बाद जघन्य हत्या कि खबरें न छपी हों। चार साल की मासूम बच्ची से लेकर जवान और बूढ़ी महिलाओं तक को नहीं बख्शा था इन आतताइयों ने। कभी सूने घर में घुसकर, तो कभी शादी का प्रलोभन देकर उनकी असमत लूटी गई, तो कभी चलती बस में तो कभी कार में उनके शरीर को रौंदा गया या उसे रास्ता चलते अगवा कर लिया गया और सुनसान जगह पर ले जाकर उसका शारीरिक शोषण किया, फिर हत्या कर दी गई ताकि नाम उजागर न हो सके और उसे विवस्त्र कर सड़क पर फ़ेंक दिया गया। गुंडॊं का खौफ़ इतना बढ़ गया है कि लोग अवाक होकर देखते रहते हैं लेकिन बीच बचाव करने कोई आगे नहीं आता। कुछ दयालु क़िस्म के लोग मदद के नाम पर आगे बढ़ते तो ज़रूर हैं लेकिन जान से मारे जाते हैं। इस डर के लोग हिम्मत नहीं जुटा पाते और दरिन्दे अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं। एक ख़बर ने तो उसे बुरी तरह से चौका दिया था। एक अर्धविक्षिप्त महिला को वे रोटी खिलाने के नाम से एक सूने नवनिर्मित मकान में ले गए थे और उसके साथ बलात्कार किया और उसे मौत की नींद सुला दिया गया था।
हत्या और बलात्कार के किस्से पढ़-पढ़कर उसका माथा ठनकने लगा था और वह इस सोच में पड़ गई थी कि अगर यह लड़की किसी तरह ज़िंदा भी बची रही तो उन पर बोझ बन कर ही रहेगी। पहली बात तो यह कि वह न तो तन से स्वस्थ है और न ही मानसिक रूप से विकसित। यदि उसे ज़िंदा रखने का प्रयास भी किया जाए तो पास में इतनी रक़म भी नहीं है कि उस पर ख़र्च किया जा सके. एक अपंग, लाचार लड़की को पालना, उसका हगा-मुता करना, उसकी देखरेख करना, उसे हाथों से उठाना, नहलाना-धुलाना, सजाना-संवारना आसान काम थोड़े ही है? बावजूद इसके वह बच भी रही तो कौन भला उससे शादी करना चाहेगा और कौन भला इस बला को गले लगाना चाहेगा? मां-बाप भले ही ममता के नाम पर उसे जिलाते रहें लेकिन उनके न रहने पर कौन उसकी देखरेख करेगा...कौन उसकी परवरिश करेगा?
तरह-तरह के विचार मन में उठ खड़े होते, जिनका समाधान कर पाना उसके बूते के बाहर था। काफ़ी सोचने-समझने के बाद उसने अन्तिम निर्णय ले लिया था कि यदि एक माँ किसी बच्चे को जन्म देती है तो उसे मार भी सकती है, यदि वह ख़ुद के लिए, समाज के लिए, देश के लिए अनुपयोगी सिद्ध होता है तो, उसे तत्काल समाप्त कर देना ही उचित होगा।